आज का युग वैज्ञानिक युग है। लोग विज्ञान से अत्यधिक प्रभावित और चमत्कृत हैं। बात—बात पर विज्ञान की बात करते और पूछते हैं अत: जब भी हम कोई दर्शनशास्त्र की बात करते हैं तब भी वे तुरन्त ‘विज्ञान इस विषय में क्या कहता है’ अथवा ‘इसका वैज्ञानिक आधार/प्रमाण क्या है’—इत्यादि प्रकार की बातें करने लग जाते हैं।
विचारणीय है कि दर्शन और विज्ञान में क्या अन्तर है ? क्या दर्शन भी विज्ञान ही नहीं है ?
दर्शन भी विज्ञान ही है, दर्शन और विज्ञान में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है; क्योंकि दोनों ही तर्क, युक्ति या परीक्षा से प्राप्त निष्कर्षों को ही स्वीकार करने पर जोर देते हैं।
दरअसल ऐसा प्रतीत होता है कि जिसे आधुनिक युग में ‘विज्ञान’ कहते हैं, उसे ही प्राचीन युग में ‘दर्शन’ कहा जाता था अत: दर्शन भी वस्तुत: विज्ञान ही है और विज्ञान भी वस्तुत: दर्शन ही है, दोनों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। मात्र ‘प्राचीन’ और ‘आधुनिक’ का ही इन दोनों में अन्तर आज हो गया है। ‘विज्ञान’ नाम भी वस्तुत: कोई नया नहीं है, दर्शन ग्रंथों में पहले से ही
अनेक स्थानों पर ‘विज्ञान’ शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे—
जैनदर्शन को ‘वीतराग विज्ञान’ शब्द से बहुत बार सम्बोधित किया गया है। यथा—
(क) ‘मंगलमय मंगलकरण, वीतराग विज्ञान।’
(ख) ‘तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता।’
(ग) ‘ जय वीतराग विज्ञान पूर।’
(घ) ‘वन्दूँ श्री अरिहंत पद, वीतराग विज्ञान।’
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि शास्त्रों में ‘दर्शन’ के लिए ‘विज्ञान’ में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि धर्म और विज्ञान में तो अन्तर है, बहुत अन्तर है; परन्तु हमारा कहना है कि दर्शन और विज्ञान में वस्तुत: कोई अन्तर नहीं है।
इसके लिए सर्वप्रथम धर्म और दर्शन में अन्तर समझ लेना उपयोगी होगा। डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने धर्म और दर्शन का अन्तर इस प्रकार स्पष्ट किया—
‘‘सब जीवों पर दया करो, किसी जीव की िंहसा न करो, सत्य बोलो, असत्य मत बोलो आदि विधि और निषेध रूप आचार का नाम धर्म है किन्तु जब इसमें ‘क्यों’ का सवाल उठता है तो उसके उत्तर में कहा जाता है कि जीवों पर दया करना कर्तव्य है, गुण (अच्छा) है, पुण्य है और इससे सुख मिलता है किन्तु जीवों की िंहसा करना अकर्त्तव्य है, दोष है, पाप है और उससे दु:ख मिलता है; इसी तरह सत्य बोलना कर्त्तव्य है, दोष है, पाप है और उससे दु:ख प्राप्त होता है। इस प्रकार के विचार दर्शन कहे जाते हैं।’’
तात्पर्य यह है कि धर्म तो सीधे—सीधे विधि—निषेध का उपदेश देता है किन्तु दर्शन उस विधि—निषेध की अनेक तर्कों या प्रमाणों द्वारा भलीभाँति परीक्षा करता है, हमें सयुक्ति समझाता है कि वैसा ही विधि—निषेध क्यों समीचीन है, उससे भिन्न या विपरीत क्यों नहीं।
इस प्रकार धर्म को ठोस आधार देने का काम दर्शन करता है। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि धर्म की अनेक प्रमाणों द्वारा युक्तिसंगत परीक्षा करना ही तो दर्शन है। दर्शनशास्त्र का उद्भव ही वस्तुत: इसलिए हुआ प्रतीत होता है कि निर्दिष्ट धर्म की पूर्णत: निष्पक्ष होकर सप्रमाण परीक्षा की जाए। स्पष्ट है कि यही कार्य आधुनिक विज्ञान का भी है, वह भी निर्दिष्ट विषय की पूर्णत: निष्पक्ष होकर सप्रमाण परीक्षा करता है। यही कारण है कि हम यहाँ यह कहना चाहते हैं कि दर्शन और विज्ञान में मूलत: कोई अन्तर नहीं है, दोनों वस्तुत: एक ही हैं।
इस प्रकार यदि देखा जाए तो दर्शन और विज्ञान दोनों पर्यायवाची ही हैं, एक ही विधा के दो नाम हैं, उनमें प्रकृतिगत कोई अन्तर नहीं है । अत: हमेशा हर बात को मात्र आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित होने पर ही स्वीकार करने का आग्रह रखना उचित नहीं है।’ अपितु सर्वत्र तार्किकता या युक्तिसंगतता को ही विशेष महत्त्व देना उचित है, क्योंकि वही हमें अज्ञानता या मधविश्वास से मुक्ति दिलाकर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कराने में समर्थ है ।
दर्शन और विज्ञान में इस प्रकार कोई मौलिक अन्तर न होते हुए भी, आधुनिक विज्ञान और दर्शनशास्त्र में आज बड़ा अन्तर देखने में आता है । एक तो स्पष्ट अन्तर यह आ गया है कि आधुनिक विज्ञान मात्र मूर्तिक पदार्थों के विषय में ही अध्ययन- अनुसन्धान करता है, किन्तु दर्शनशास्त्र मानता है कि इस जगत् में दो प्रकार के पदार्थ हैं-१. मूर्तिक और २. अमूर्तिक तथा वह इन दोनों का ही अध्ययन प्रस्तुत करना अपना परम कर्तव्य समझता है । यही कारण है कि दर्शनशास्त्र के कथों में मूर्तिक और अमूर्तिक दोनों ही प्रकार के पदार्थों का सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण प्राप्त होता है।
दर्शनशास्त्र का मानना है कि जब जगत् में दो प्रकार के पदार्थ हैं- मूर्तिक और अमूर्तिक तब दोनों का ही तो अध्ययन करना आवश्यक है, उनमें से किसी भी एक को छोड़ा कैसे जा सकता है? तथा यदि छोड़ दिया जाए तो वह अध्ययन अपूर्ण अध्ययन वैâसे नहीं माना जाएगा ?
यदि कोई कहे कि अमूर्तिक पदार्थ (आत्मादि अप्रत्यक्ष पदार्थ) हमारी पकड़ में ही नहीं आते, हमें बिल्कुल ही प्रत्यक्ष नहीं होते, तो हम उनका वैज्ञानिक (निष्पक्ष एवं प्रामाणिक) अध्ययन कैसे कर सकते हैं? तो उसका उत्तर दर्शनशास्त्र यह देता है कि मात्र प्रत्यक्ष से ही निणर्य करने का आग्रह रखना संकीर्णता है । हर वस्तु का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से ही नहीं होता, बहुत-सी बातों का निणर्य हम लोक में भी अनुमानादि के द्वारा करते ही हैं । अनुमानादि द्वारा ज्ञात पदार्थ भी प्रत्यक्षादि की भांति असन्दिग्ध तथा समीचीन सिद्ध होते हैं । तथा जिस वस्तु का प्रत्यक्ष सम्भव ही नहीं है, उसका किया ही क्या जा सकता है? यह तो नहीं किया जा सकता कि हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती तो उसका अभाव ही मान लिया जाए क्योंकि तब तो फिर हमें अपने प्रपितामहादि अनेक सद्भावरूप वस्तुओं को भी अभावरूप मानना पड़ेगा, जो अवैज्ञानिक (मिथ्याज्ञान) ही होगा । अत: जिस वस्तु की परीक्षा जिस विधि (प्रमाण) से सम्भव हो, वही विधि हमें उसकी परीक्षा हेतु अपनानी चाहिए । एक ही विधि से सबकी परीक्षा का आग्रह रखना वैज्ञानिक (समीचीन) नहीं कहा जा सकता । स्वर्ण को शुद्ध करने की विधि अलग होती है और वस्त्र को शुद्ध करने की अलग । दोनों को एक ही विधि से शुद्ध करने का आग्रह वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता । वैसे तो विज्ञान भी स्वयं यह नहीं कहता कि मैं मात्र मूर्तिक वस्तुओं के विषय में ही अध्ययन करूँगा, अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में नहीं करूँगा, किन्तु यह उसकी मजबूसीदुर्बलता है कि वह अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में ठीक से अध्ययन नहीं कर पा रहा है; यद्यपि वह कोशिश बहुत कर रहा है, सम्भव है कि भविष्य में किसी-न-किसी प्रकार से सफलता प्राप्त कर सकेगा । वर्तमान में भी विज्ञान की अनेक शाखाएँ-उपशाखाएँ अमूर्तिक वस्तुओं का अध्ययन कर रही हैं । जैसे- मनोविज्ञान और जीवविज्ञान- ये दोनों विज्ञान की ही शाखाएँ हैं और बड़ी महत्त्वपूर्ण शाखाएँ हैं । ये दोनों प्राणियों की विविध मनोदशाओं और जैविक क्रियाओं का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत कर रही हैं, जो अमूर्तिक चैतन्य का ही अध्ययन है । अत: सर्वथा यह समझना भी मिथ्या ही है कि आधुनिक विज्ञान मात्र मूर्तिक वस्तुओं के विषय में ही अध्ययन करता है, अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में अध्ययन नहीं करता है । अमूर्तिक वस्तुओं के विषय में भी वह यथासम्भव कोशिश करता ही है; परन्तु कुछ तो अभी उसमें भी अनेक कमियाँ हैं और कुछ उसके निष्कर्ष भी अधिक लोगों तक पहुँच नहीं पा रहे हैं अत: उस ओर थोड़ा ध्यान देने की विशेष आवश्यकता है। यद्यपि यह भी सत्य है कि आधुनिक विज्ञान मूर्तिक वस्तुओं के विषय में ही अधिक अध्ययन करता है।
आधुनिक विज्ञान और दर्शनशास्त्र में बड़ा भारी अन्तर लोगों को इसलिए भी लगता है क्योंकि आधुनिक विज्ञान तो प्राय: मूर्तिक (भौतिक) वस्तुओं के अध्ययन में ही डूबा हुआ है जबकि दर्शनशास्त्र कहता है कि हमें अपने वास्तविक हित हेतु अमूर्तिक वस्तुओं—विशेषत: आत्मा, परमात्मा आदि के ज्ञान पर अधिक ध्यान देना चाहिए, मात्र मूर्तिक (भौतिक) वस्तुओं के ज्ञान में ही सारा समय व्यतीत करना बुद्धिमानी नहीं। जीवन छोटा है और ज्ञान का कोई अन्त नहीं है अत: हमें वही शीघ्र सीख लेना चाहिए जिससे जन्म—मरण आदि दु:खों का विनाश हो।
हमारा प्रकरण यहाँ आधुनिक विज्ञान के मत में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप स्पष्ट करना है। ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा और परमात्मा भी अमूर्तिक या अभौतिक (र्दह-श्aूूी) वस्तुएँ हैं जो किसी भी भौतिक उपकरण द्वारा पकड़ में आने वाली नहीं हैं अत: आधुनिक विज्ञान उन्हें परखनली आदि में रखकर तो हमें नहीं दिखा सकता है किन्तु ऐसे अनेक वैज्ञानिक तथ्य अवश्य प्रस्तुत करता है जिनसे आत्मा—परमात्मा के अस्तित्व और स्वरूप पर विशद प्रकाश पड़ता है। यहाँ हम उन्हीं तथ्यों के आधार पर अपनी बात संक्षेप में कहने का प्रयास करेंगे।
आत्मा और परमात्मा भारतीय दर्शनों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है और इसलिए भारतीय जनजीवन में प्रारम्भ से लेकर आज तक निरन्तर अत्यधिक चर्चित रहता आया है। बालक से लेकर वृद्ध तक और राजा से लेकर रंक तक सभी लोग यहाँ सदैव आत्मा और परमात्मा की चर्चा करते रहते हैंं अत: आधुनिक विज्ञान ने भी इन विषयों पर गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने का अनेक बार प्रयास किया है। यह बात अलग है कि वह अभी तक इनके सम्बन्ध में अपने कोई स्पष्ट निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं कर पाया है किन्तु इन विषयों की उसने उपेक्षा की हो अथवा इनकी ओर कभी कोई ध्यान ही नहीं दिया हो ऐसा नहीं है।
तथा अनेक घटनाओं और प्रयोगों के आधार पर वह इनके अस्तित्व की सम्भावना भी प्रकट कर चुका है। भले ही वह इनके स्वरूपादि को स्पष्टतया सिद्ध नहीं कर पा रहा हो किन्तु अनेक जैविक क्रियाओं और मनोभावों के आधार पर वह यह भी सशक्त सम्भावना प्रस्तुत करता है कि इस शरीर में आत्मा जैसा कोई अन्य तत्त्व अवश्य ही होना चाहिए अन्यथा जीवित और मृत शरीर में और क्या अन्तर हो सकता है। जिस प्रकार हमें लगता है कि हम चश्मा आदि उपकरणों से देख रहे हैं किन्तु वस्तुत: चश्मा आदि से नहीं, आँख से देख रहे होते हैं उसी प्रकार हमें लगता है कि हम आँख से देख रहे हैं किन्तु वस्तुत: आँख से भी नहीं, किसी अन्य ज्ञान तत्त्व से देख रहे होते हैं, जो मृत्यु हो जाने पर शरीर से निकल जाता है। यदि आँख ही देखती हो तो मृत शरीर क्यों नहीं देखता, अत: सिद्ध होता है कि आँख तो चश्मा आदि के समान बाह्य निमित्त मात्र है, मूल कारण कोई अन्य ज्ञान तत्त्व है। यह अन्य ज्ञान तत्त्व ही दर्शन ग्रंथों में ‘आत्मा’ या ‘जीव’ कहा गया है।
आँख की देखना क्रिया की भाँति सारे ही शरीर की सुनना, सूँघना आदि सभी सैंकड़ों जैविक क्रियाएँ जिस तत्त्व के रहने पर चलती रहती हैं और जिसके न रहने पर (शरीर से बाहर निकल जाने पर, मृत्यु हो जाने पर) नहीं चलती हैं, रुक जाती हैं, वह अन्य चैतन्य तत्त्व ही ‘आत्मा’ होना चाहिए।
आत्मा शरीर से भिन्न एक अलग स्वतन्त्र तत्त्व है—
इसे डॉ. अनिल कुमार जैन ने निम्नलिखित तीन वैज्ञानिक तथ्यों द्वारा सशक्त रूप से इस प्रकार सिद्ध किया है—
१. पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ—पृथ्वी पहले तपता हुआ आग का गोला था। इसके पर्याप्त शीतल हो जाने पर अनुकूल वातावरण में कई प्रकार के जटिल प्रोटीन बनने लगे। इन जटिल प्रोटीनों के संघटन से कोशिका का निर्माण हुआ और अमीबा जैसे सूक्ष्म जीव अस्तित्व में आये। कई वैज्ञानिकों का मत है कि जीव तत्त्व का निर्माण जटिल रसायनों के संश्लेषण द्वारा नहीं हुआ है बल्कि यह किसी अन्य ग्रह से आया है। अन्य ग्रहों पर भी जीवन की पूर्ण सम्भावनाएँ हैं। यह जीव तत्त्व आत्मा ही है जो कि जड़ पदार्थों से निर्मित नहीं हो सकता है। जड़ पदार्थों से निर्मित तो मात्र शरीर है जिसका निर्माण पृथ्वी पर हुआ।
२. ब्रह्माण्ड का विस्तार—खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है। इस बात को प्रयोगों द्वारा भी सिद्ध किया जा चुका है। वैज्ञानिकों का मत है कि ब्रह्माण्ड में संकुचन एवं विस्तरण होता रहता है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मात्र जड़ तत्त्व से ही निर्मित होता तो इसमें एक स्थिरता होनी चाहिए, इसमें संकुचन—विस्तरण नहीं होना चाहिए। फिर यह विस्तार क्यों हो रहा है ? यह इस बात की ओर इशारा करता है कि ब्रह्माण्ड मात्र जड़ पदार्थ से निर्मित नहीं है बल्कि इसमें जड़ पदार्थ से भिन्न अन्य तत्त्व भी मौजूद है जिस पर भौतिकी के नियम लागू नहीं होते हैं। जड़ से भिन्न यह तत्त्व आत्मा हो सकता है।
३. अंग—प्रत्यारोपण—अंग—प्रत्यारोपण आज एक आम बात हो गई है। आँख, गुर्दा, हृदय आदि सभी अंग—प्रत्यंगों का प्रत्यारोपण किया जा सकता है। सैद्धान्तिक तौर पर मस्तिष्क का प्रत्यारोपण भी सम्भव है। किसी के शरीर से पूरे का पूरा खून निकाल कर किसी अन्य के खून को डाला जा सकता है। इन सबसे जुड़ी एक दिलचस्प बात यह है कि चाहे व्यक्ति के शरीर का पूरे का पूरा खून बदल दो, चाहे उसके गुर्दे, हृदय तथा मस्तिष्क को बदल दो; फिर भी यह व्यक्ति अपना वजूद, अपनी पहचान बनाएं रखता है। उसका चित्त पहले जैसा बना रहता है। अपने परिवारीजनों एवं मित्रों के प्रति उसका प्रेम, उसकी स्मरण शक्ति यथावत् बनी रहती है। इससे सिद्ध होता है कि चाहे सारे अंग—प्रत्यंग बदल दिये जाएँ, चाहे पूरा खून बदल दिया जाए, फिर भी कुछ ऐसा अवश्य होता है जो व्यक्ति को अपनी मूल स्थिति से अलग नहीं होने देता है, उसे अपने पूर्व संस्कारों से युक्त बने रहने को बाध्य करता है और निश्चित तौर पर यह चैतन्य युक्त आत्मा ही है।’’
डॉ. जैन के उक्त तीनों ही तर्क बड़े ठोस हैं और गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने योग्य हैं।
इसके अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत दो प्रकार के पदार्थों का निम्नलिखित वर्गीकरण भी जीव या आत्मा के अस्तित्व को अनिवार्यत: सिद्ध करता है—
१. सजीव पदार्थ (Living thing)
२. निर्जीव पदार्थ (Non-living thing)
इनके सम्बन्ध में भी डॉ. अनिल कुमार जैन ने ठीक ही लिखा है—
‘‘अधिकतर लोगों को सजीव और निर्जीव की पहचान करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। उदाहरण के तौर पर वे आसानी से यह बता सकते हैं कि मक्खी, घोड़ा और पेड़ सजीव हैं जो वृद्धि और प्रजनन जैसी कुछ क्रियाओं को करते हैं। इस प्रकार जीव (सजीव) और निर्जीव (अजीव) की पहचान तो की जा सकती है लेकिन जीवन (त्ग्fा) क्या है ? इसका सीधा उत्तर दे पाना कठिन है। जैव वैज्ञानिकों के पास जीव से सम्बन्धित विशद ज्ञान है, फिर भी वे जीवन को परिभाषित करने में कठिनाई महसूस करते हैं।’’
वैज्ञानिक दृष्टि से जीव के लक्षणों का निरूपण करते हुए वे आगे और भी लिखते हैं—
‘‘पृथ्वी पर अनेकों प्रकार के जीव पाये जाते हैं। अब तक बीस लाख से अधिक प्रजातियों को खोजा जा चुका है। वे सूक्ष्म बैक्टीरिया से लेकर विशालकाय व्हेल मछली तक के अनेक प्रकार में पायी जाती हैं। ये जीव विभिन्न प्रकार के वातावरण में पाये जा सकते हैं। इनमें से कुछ गर्मी से तपते रेगिस्तानों में भी मिल सकते हैं तथा कुछ अन्य बर्फीले ध्रुवों पर भी। जीवों के खान—पान तथा रहन—सहन में भी विविधता पायी जाती है। इसके बावजूद भी सभी जीवों में कुछ समानताएँ होती हैं तथा वे ही जीव के लक्षण भी निर्धारित करती हैं। प्रत्येक जीव में एक प्रकार का रसायन पाया जाता है जो कि एक ही प्रकार की रासायनिक क्रिया भी करता है। ये रसायन एक यूनिट (unit) में व्यवस्थित तरीके से रहते हैं जिसे कोशिका कहते हैं।
सभी जीवों में जो समान लक्षण पाये जाते हैं वे हैं—(१) प्रजनन (reproduction), (२) वृद्धि (growth), (३) चयापचय (metabolism), (४) हलन—चलन (movement), (५) संवेदन (responsiveness), (६) अनुकूलन (adaptation)। लेकिन कुछ जीव ऐसे भी हैं जिनमें ये सब पूर्णत: नहीं पाये जाते जबकि कुछ निर्जीवों में भी इनमें से कुछ गुण देखने को मिल जाते हैं। फिर भी ये गुण/लक्षण जीव की मूल प्रकृति को रेखांकित अवश्य करते हैं।’’
इसी प्रकार हम देखते हैं कि जीवविज्ञान (biology) और मनोविज्ञान (psychology) की प्राय: सभी खोजें कहीं न कहीं आत्मा के अस्तित्व को भी सिद्ध करती हैं तथा न केवल अस्तित्व को ही सिद्ध करती हैं, उसके स्वरूप को भी कुछ न कुछ स्पष्ट करती हैं। मनोविज्ञान ने क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, प्रार्थना, याचना आदि मनोभावों का जो सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है, उससे भी आत्मा का ही स्वरूप स्पष्ट होता है।
जीवविज्ञान (biology) और मनोविज्ञान (psychology) की भाँति वनस्पति विज्ञान (botony) की खोजें भी जीव या आत्मा के स्वरूप पर विशद प्रकाश डालती हैं। महान् वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बसु (१८५८—१९३७) ने जो स्पष्ट तौर पर अनेकानेक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि पेड़—पौधों में जीव होता है क्योंकि उनमें चेतना पाई जाती है, वे जन्मते—मरते हैं, उनमें सुख—दु:ख होता है, वे हँसते—रोते हैं, उन्हें भी शत्रु—मित्र की पहचान होती है आदि। इस सम्बन्ध में विश्वविख्यात लेखक सर एल्डुअस हक्सले के विचार ज्ञातव्य हैं जो कि उन्होंने स्वयं सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला की परखनलियों में देखकर प्रकट किये थे—
‘‘वह (वनस्पति) हमारे समान ही सुखी—दु:खी, क्रोधी, मिलन—बिछोह पर हँसने—रोने वाली, गाने वाली तथा स्वस्थ अथवा रोगी होती है। उस पर क्लोरोफॉर्म का प्रभाव, उसके हृदय की धड़कन, उस पर ऑक्सीजन का प्रभाव, विषैली औषधि के छिड़के जाने का दुष्प्रभाव, बिछोह की असह्य यन्त्रणा आदि सभी दशाओं को साक्षात् देखकर हक्सले ने पुन: कहा—‘किसी पशु—पक्षी की मृत्यु का दृश्य देखकर हम लोग मर्माहत हो जाते हैं क्योंकि उसकी यन्त्रणा को अपनी आँखों से स्वयं देखते हैं किन्तु वनस्पतियों के जीवन—मरण को देखने के लिए तो हमारी दृष्टि लाखों गुनी तेज होनी चाहिए।’
उन्होंने आगे और कहा—‘बसु महोदय की प्रयोगशाला में रखे गये यन्त्र हम लोगों को सूक्ष्मतम खूबियों के साथ वे सारी चीजें दिखा देते हैं, जो शक्तिशाली से शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक यन्त्र भी नहीं दिखा सकते। एक फूल जब जहर खाकर छटपटा—छटपटाकर हमारे सामने ही मरा तब हम लोग उसी तरह करुणा से भर उठे, जैसे हम किसी अपने ही प्रियजन की मृत्यु को देखकर बेहाल हो जाते हैं। सचमुच ही यह एक अपूर्व अनुभूति थी, जिससे हम लोग आज तक अपरिचित थे।’…… उन्होंने पुन: कहा कि ‘बहुत से प्रबुद्ध व्यक्तियों को मैंने कसाईखाने में वध किये जाते हुए पशु की यन्त्रणा और तड़पना देखकर उससे द्रवित होते और उन्हें मांसभोजी से पूर्ण निरामिषभोजी बनते देखा है। यदि वे अपने आहार में और भी कमी करना चाहते हों तो उन्हें ‘बसु विज्ञान मन्दिर (कलकत्ता)’ में जाकर देखना चाहिए। तब वे कदाचित् शाकाहार भी छोड़ने पर मजबूर हो जावें और सिर्फ धातुओं पर ही निर्भर रहने लगें।’’
सर जगदीशचन्द्र बसु के बाद तो आधुनिक विज्ञान में पेड़—पौधों पर और भी अधिक खोजें हो चुकी हैं और वैज्ञानिक मान गये हैं कि पेड़—पौधों में भी स्पष्ट रूप से जैविक क्रियाएँ और जैविक भावनाएँ अनुभव की जा सकती हैं। कुछ पौधे ऐसे होते हैं जो मनुष्य के छूने से मुरझा जाते हैं अथवा खिल जाते हैं, यह उनकी जैविक भावना ही प्रकट करता है। इसी प्रकार अनेक पौधे ऐसे होते हैं जो दूसरे (आगन्तुक) जीवों को खा जाते हैं। जैसे—ड्योसेरा (Sundew), पिचर (Pitcher), (Pitcher), वीनस (Venus) आदि पौधे अपने पास आने वाले तितली आदि कीट—पतंगों को फिर जाने नहीं देते, उन्हें खा जाते हैं। यथा—
यह पिचर (Pitcher) का पौधा है। इसकी पत्तियाँ जग (jug) जैसी लगती हैं, जिनके ऊपर ढक्कन सा भी होता है। जब कोई मक्खी इस पर आकर बैठती है तो यह उसे अन्दर बन्द करके खा जाता है।
वीनस (Venus) की पत्तियाँ गदा जैसी होती हैं, और उस पर लम्बे—लम्बे काँटे—जैसे बाल भी होते हैं। जब भी कोई कीट—पतंगा इस पर आकर बैठता है तो यह अपने उन बालों को और पैâलाकर उसे जकड़ लेता है और उसका सारा रस सोखकर फेंक देता है।
पेड़—पौधों में भी जैविक भावनाएँ बहुत गहरी होती हैं।
डॉ. अशोक जैन ने तो पेड़—पौधों में क्रोध, मान, माया, लोभ—इन चार कषायों और आहार, भय, मैथुन, परिग्रह—इन चार संज्ञाओं को भी बड़ी ही स्पष्टता से सिद्ध कर दिखाया है, जिनका सारांश इस प्रकार है—
चार कषााएँ-
१. क्रोध—क्वींस और न्यू साउथ वेल्स के जंगलों में डंक मारने वाले वृक्ष होते हैं। इन वृक्षों पर नुकीले काँटे होते हैं और इनकी पत्तियाँ घने बालों से युक्त होती हैं। समीप जाने पर इनकी पत्तियाँ शरीर से चिपक जाती हैं और अपने रोएँ छोड़ देती हैं। यह क्रोध है।
२. मान—बरगद का वृक्ष अपनी डालियों से शाखाएँ निकालता है जो भूमि पर आकर तने और जड़ का रूप ले लेती हैं। उसका जरा सा बीज इतना पैâलाकर अपने अहं को पुष्ट करता मालूम होता है। यूकेलिप्टस वृक्ष की जड़ें इतना ज्यादा पानी अवशोषित करती हैं कि आसपास की वनस्पति का बढ़ना मुश्किल हो जाता है। यह वृक्ष बहुत तेजी से बढ़कर २००—३०० फुट ऊँचाई तक तनकर सीधा खड़ा रहता है। यह मान है।
३. माया—कीटभक्षी पौधे अपने रूप, रस, गन्ध से कीट—पतंगों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं और समीप आने पर उन्हें पकड़कर नष्ट कर देते हैं। यह माया है।
४. लोभ—वनस्पतियाँ अपना भोजन जमीन के भीतर अपनी जड़ों और तनों में संचित कर लेती हैं। यह लोभ है।
चार संज्ञाएँ-
१. आहार—आहार संज्ञा वनस्पति में कई प्रकार की होती हैं। कुछ पौधे स्वयंपोषी होते हैं जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। कुछ पौधे परजीवी होते हैं जो कि आंशिक रूप से या पूरी तरह से दूसरे पौधों पर निर्भर रहते हैं। अमरबेल एक ऐसी बेल है जो अपनी जड़ें दूसरे पौधे के तने में घुसाकर वहाँ से भोज्य सामग्री चूसती रहती है।
२. भय—जिस प्रकार विपत्ति आने पर जीव भयभीत होते हैं उसी प्रकार वनस्पति भी विपत्ति की आशंका से भयभीत होकर काँपने लगती है। उसके रोएँ खड़े हो जाते हैं। छुईमुई के पौधे को छूने मात्र से उसकी पत्तियाँ भय से सिमट जाती हैं। ‘जवागल’ वनस्पति हथेली पर रखते ही काँपने लगती है। जिस प्रकार सभी जीव अपने जीवन की रक्षा के उपाय करते हैं उसी प्रकार वनस्पति भी अपनी रक्षा के लिए उपाय करती है। काकतुरई अपनी दुर्गन्ध फेंककर रक्षा करती है। नागफनी अपने काँटों के माध्यम से अपनी रक्षा करती है।
३. मैथुन—निम्नवर्गीय एककोशीय पौधों से लेकर विशालकाय वृक्षों तक में मैथुन अर्थात् काम—वासना की इच्छा देखने में आती है। मनुष्यों एवं अन्य जन्तुओं में मुख्यतया लैंगिक जनन ही होता है परन्तु पौधों में वर्धी, अलैंगिक एवं लैंगिक तीन प्रकार से जनन माना गया है। वनस्पति में एक ही पौधे के अन्तर्गत नर व मादा का होना नपुंसक होने की सूचना है, जिसमें कामवासना स्त्री—पुरुष से भी ज्यादा होती है।
४. परिग्रह—भोजन संचित करने की प्रवृत्ति मूली, गाजर, आलू, अदरक आदि पौधों में दृष्टिगोचर होती है जो अपनी जड़ों व तने में खाद्य सामग्री एकत्रित कर लेते हैं। बंदगोभी, प्याज आदि अपनी पत्तियों में भोजन संगृहीत करते हैं। नागफनी आदि अपने तने में भोजन इकट्ठा किए रहते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक विज्ञान ने पेड़—पौधों में जीवत्व की सम्भावना ही व्यक्त नहीं की है, स्वीकृति भी स्पष्टतया कर ली है।
पेड़—पौधों की भाँति कुछ वर्ष पूर्व अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा अग्नि में जीवत्व की सिद्धि ‘अग्नि और जीवत्वशक्ति’ कृति में देखा जा सकता है। अग्नि में भी जीव है क्योंकि उसमें निम्न प्रकार के चेतन भाव पाये जाते हैं—
१. वह दूसरों को जलाती है—यह क्रोध है।
२. सदा ऊपर लौ रखती है—यह मान है।
३. राख के नीचे भी जलती रहती है—यह माया है।
४. कितना भी ईंधन मिले तृप्त नहीं होती—यह लोभ है।
५. ऑक्सीजन मिलने पर ही रहती है—यह श्वासोच्छ्वास है।
६. तेल या ईंधन चाहिए—यह आहार है।
७. धुआँ आदि छोड़ती है—यह नीहार है।
इसी प्रकार अन्य चयापचय (metabolism), वृद्धि—हानि, जीवन—मरण की क्रियाएँ अग्नि में भी स्पष्टतया अनुभव में आती हैं अत: वह सजीव है।
ज्ञातव्य है कि भारतीय दर्शनों में विशेषतया जैन दर्शन में अग्नि को भी गाय—भैंस—मनुष्यादि की भाँति सजीव (living thing) माना गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक विज्ञान भी किसी न किसी रूप में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और न केवल अस्तित्व को ही स्वीकार करता है, उसके स्वरूप को भी बहुत स्पष्ट करता है जो बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि भारतीय दर्शन ग्रंथों में बताया गया है। हाँ, इतना स्पष्ट भी नहीं कर पा रहा है कि भारतीय दर्शनों का एतद्विषयक विवाद भी शान्त हो सके किन्तु ऐसा शायद सम्भव ही नहीं है।
आधुनिक विज्ञान के समर्थकों ने आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप को वैज्ञानिक पद्धति से सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार के और भी अनेकानेक प्रयोग और प्रयत्न पहले भी किये थे। जैसे—
१. समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली पुनर्जन्म की घटनाओं को सूचीबद्ध करके उनकी सत्यता का अनुसन्धान करना।
२. मृत्यु से पूर्व ही गहन निरीक्षण प्रारम्भ कर देना कि मरते समय शरीर में से कौन बाहर निकलता है, वैâसे निकलता है, कहाँ से निकलता है आदि। अनेक बार मरने वाले प्राणी को वायुरोधक (Air-tight) पेटी में भी बन्द किया गया, ताकि देखा जा सके कि जीव वैâसे बाहर निकलता है, पेटी टूटती है या नहीं। अनेक बार मरने से पहले और बाद में वजन तोला गया और यह भी कहा गया कि इस प्रकार आत्मा का वजन २१ ग्राम सिद्ध होता है।
परन्तु ये सब प्रारम्भिक प्रयास हैं और नितान्त असफल सिद्ध हुए हैं। आज हमारा विज्ञान तब से बहुत आगे बढ़ गया है और आशा है कि आगे भी उन्नति करेगा। आशा है कि तब हमें आत्मा के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक ज्ञानाधार भी प्राप्त हो सकेगा।
‘परमात्मा’ शब्द से यहाँ हमारा अभिप्राय उस भगवान, ईश्व, गॉड (GOD) या खुदा नामक उस परम तत्त्व से है जिसे विभिन्न हजारों नामों से प्राय: सभी धर्म दर्शनों में पूज्य, आराध्य या उपास्य स्वीकार किया गया है।
आधुनिक विज्ञान आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप को स्पष्ट करने वाले कुछ तथ्य तो फिर भी प्रस्तुत करता है, किन्तु परमात्मा या भगवान् के विषय में तो आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से कुछ भी कहना सचमुच ही बहुत कठिन है क्योंकि आधुनिक विज्ञान को अभी तक ऐसे ‘परमात्मा’ के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की कोई सामग्री, प्रमाणादि उपलब्ध नहीं हुए हैं।
तथापि इस सम्बन्ध में भी कुछ एक—दो बातें इस प्रकार स्पष्टतया समझी जा सकती हैं—
परमात्मा, ईश्वर या भगवान के सम्बन्ध में आज बहुसंख्यव्ाâ लोगों की मान्यता है कि वह इस जगत् का कर्ता—धर्ता—हर्ता है और कुछ लोगों के अनुसार उसे इसी अर्थ में `GOD’ (G = generator, O = operator, D = Destroyer कहा जाता है। ऐसे लोगों के अनुसार वह सर्वशक्तिमान है, कुछ भी कर सकता है, पल भर में राजा को रंक और रंक को राजा भी बना देता है, मूर्ख को विद्वान् और विद्वान् को मूर्ख भी बना सकता है। सम्पूर्ण जगत् का कण—कण उसी की इच्छानुसार परिणमन करता है। वही एक सबका भला—बुरा करने वाला है, सबको सुख—दु:ख की सामग्री देने वाला है अथवा जैसा चाहे वैसा करने वाला है, इत्यादि।
किन्तु आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से ऐसा कोई भी ईश्वर या भगवान सम्भव नहीं है क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत एक निश्चित कारण—कार्य व्यवस्था के अनुसार संचालित है, उसमें किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं है तथा उस कारण—कार्य व्यवस्था के विरुद्ध कुछ भी उल्टा—सीधा कार्य कभी भी कोई नहीं कर सकता है। कभी-कभी हमें अपनी अल्पज्ञता से ऐसा प्रतीत अवश्य हो सकता है परन्तु वास्तव में उल्टा-सीधा यहाँ न कुछ होता है और न ही कथमपि हो सकता है। उदाहरणार्थ—अग्नि के ऊपर बर्तन में पानी रखा जाएगा तो वह स्वयमेव गर्म होगा, उसे कोई अन्य ईश्वरादि गर्म नहीं करेगा तथा जैसे खेत में यदि गेहूँ बोया जाएगा तो गेहूँ ही उगेगा, चना नहीं और यदि चना बोया जाएगा तो चना ही उगेगा, गेहूँ नहीं; उसी प्रकार सृष्टि के समस्त कार्य अपनी—अपनी सुनिश्चित कारण—कार्य व्यवस्था के अनुसार स्वयमेव संचालित हो रहे हैं, उन्हें कोई ईश्वर या परमात्मा संचालित करने वाला नहीं है तथा उन कार्यों को कभी कोई ईश्वर उल्टा—सीधा भी परिणमन नहीं कर सकता है क्योंकि यदि ऐसा हो तो अग्नि पर रखा दूध बर्फ बन जाएगा और फ्रीज (fridge) में रखा दूध उबल जाएगा अथवा गेहूँ बोने पर चना उग जाएगा और चना बोने पर गेहूँ उग जाएगा; जैसा कि कभी नहीं होता, कभी नहीं हो सकता।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार इस सम्पूर्ण विश्व में वस्तुत: जितने पदार्थ प्रारम्भ से थे, उतने ही आज हैं और भविष्य में भी अनन्त काल तक उतने ही रहेंगे; उनमें से कभी भी किसी भी पदार्थ को मूलत: न तो पैदा किया जा सकता है और न ही सर्वथा नष्ट किया जा सकता है मात्र पदार्थों का अवस्था परिवर्तन होता है (Nothing can be produced or destroyed, It’s form only changes), अत: इस वैज्ञानिक दृष्टि से भी जगत् का कर्ता—धर्ता—हर्ता कोई ईश्वर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से सिद्ध नहीं होता।
इसी प्रकार जब जीवों का सुखी—दु:खी होना भी अपने—अपने कर्मों और भावों पर निर्भर करता है। उसमें भी किसी ईश्वर जैसे अन्य तत्त्व की कोई आवश्यकता नहीं है। स्तुति से प्रसन्न होकर भला करने वाला और निन्दा से नाराज होकर बुरा करने वाला ईश्वर वैज्ञानिक दृष्टि से भी न्यायसम्पन्न परम पूज्य सिद्ध नहीं होता है।
ज्ञातव्य है कि सांख्य, मीमांसा आदि अनेक प्राचीन दर्शनों में भी ईश्वर या परमात्मा को आरम्भत: जगत का कर्ता—धर्ता—हर्ता नहीं माना गया है और इस प्रकार की धारणा बहुत परवर्ती है और किसी प्रकार के ठोस प्रमाण पर आधारित नहीं है। इस तथ्य को अनेक विद्वानों ने सिद्ध भी किया है जिनमें डॉ. याकूब मसीह की पुस्तक ‘निरीश्वरवाद: भारतीय एवं पाश्चात्य’ विशेष उल्लेखनीय है।
इस प्रकार आधुनिक विज्ञान भले ही हमें यह नहीं बता पा रहा है कि ईश्वर कौन है, कहाँ है, वैâसा है आदि; किन्तु इतना अवश्य सिद्ध कर रहा है कि वह रागी—द्वेषी और जगत् का कर्ता—धर्ता—हर्ता नहीं हो सकता। हम समझते हैं कि इस प्रकार की मिथ्या धारणा से मुक्ति दिलाकर भी आधुनिक विज्ञान ने हम पर बड़ा उपकार किया है।