कर्मों की ८ प्रकृतियों एवं उनके बंध की प्रक्रिया को बताने के साथ ही एक समय में प्रबद्ध कर्मवर्गणाओं के ८ कर्मों में विभाजन की रूपरेखा बताई गई है। आत्मा के साथ जुड़े इन कर्मों के कारण ही व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्धारित होता है। जीव के अपने—अपने कर्म के उदय से उसमें उपस्थित डी एन ए की शृंखला में भिन्न—भिन्न प्रकार के बंध होते हैं जो लाखों लाखों प्रकार के हैं, जिनसे प्रत्येक जीव के गुण भिन्न—भिन्न् होते हैं। किन्तु इन बंधनों को पुरुषार्थ से परिर्वितत भी किया जा सकता है। वैज्ञानिक इस कार्य में संलग्न हैं, सफलताएँ मिल रही हैं और भविष्य में मिलेगी भी किन्तु बाधा अभी यह है कि कार्माण वर्गणा इतनी सूक्ष्म हैं कि उनका वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से भी देख पाना अभी सम्भव नहीं है। भविष्य के गर्भ में क्या दिया है ? इसे जानना अभी कठिन सा है। इस प्रबंध में तीन स्थानों पर रासायनिक प्रतिक्रियाएँ देकर यही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि परमाणु में या उनसे बने यौगिकों में भिन्न—भिन्न रचनाएँ बनने या नये प्रकार के बॉन्ड बनने पर किस प्रकार से उनके गुणों में अंतर आ जाता है। इसी प्रकार से भावों से कियाओं से कार्माण वर्गणाओं में भी अंतर आता है जिससे औदारिक या वैक्रियिक शरीर की रचना, आकृति तथा संस्कारों में अंतर आ जाता है।
आत्मा शाश्वत एवं अमूर्तिक द्रव्य है
लोक के मौलिक छह अवयवी द्रव्यों में एकमात्र चेतनत्व गुण से युक्त आत्मा (अप्पा, आदा), असंख्यात प्रदेशी, अर्मूितक, शाश्वत द्रव्य है जो संसारी अवस्था में अर्थात् द्रव्यकर्म से युक्त कार्माण शरीर तथा सहयोगी तैजस शरीर से युक्त किसी औदारिक या वैक्रियिक शरीर के मुख्यत: आश्रित है। इस कार्माण शरीर का निर्माण अनन्तानन्त कार्माण वर्गणाओं से हुआ है (जो अनादि है) तथा जो किसी जीव के मन, वचन या/और काय के परिस्पंदन के कारण द्रव्यकर्म में परिणत हो चुकी हैं तथा समस्त, असंख्यात आत्मप्रदेशों के साथ अब एकक्षेत्रावगाही व समाङ्ग रूप से बंधी हुई है। प्रश्न होता है कि इन कर्मों का बन्ध हुआ कैसे ? सामान्य सा उत्तर है कि कथंचित् अनन्तकालीन पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से उत्पन्न भावकर्म और भावकर्म से प्रभावित/प्रेरित होकर अनन्त ज्ञेयों में रुचि या आकर्षण—विकर्षण अर्थात् राग, द्वेष मोहादि के कारण। प्रत्येक समय किसी भी जीव के साथ कर्मों का आस्रव (आगमन) हो रहा है, उनकी संख्या कितनी है ? उनका विभिन्न अष्ट कर्म प्रकृतियों में विभाजन वैâसे होता है ? वे घातिया कर्मों में किस प्रकार से बंटते हैं तथा काल अथवा एक समय प्रबद्ध कर्मवर्गणाओं के विभाजन का गणितीय आधार क्या है ?
गोम्मटसार में कहा है
गोम्मटसार कर्मकाण्ड में सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र ने एक समय प्रबद्ध कर्म वर्गणाओं की संख्या को अभव्य जीवों की कुल संख्या का अनन्तगुणा तथा समस्त सिद्ध राशि की संख्या का अनन्तवां भाग बतलाया है। आचार्य गुणधर प्रणीत कसायपाहुड’ के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्रों के रूप में रचित कसायपाहुड सुत्त की व्याख्या में एक समयप्रबद्ध कर्म वर्गणाओं का विभिन्न कर्मों में विभाजन निम्न प्रकार से निर्देशित किया है। कार्माण वर्गणाओं का सबसे बड़ा अंश—वेदनीय कर्म में जाता है, शेष द्रव्य कर्म में से, वेदनीय कर्म द्रव्य से कुछ कम (आधा) अंश मोहनीय कर्म में परिणमित होता है। इनसे भी कुछ कम द्रव्यकर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय कर्म प्रकृतियों में जाता है जो इन तीनों में परस्पर समान हैं। शेष में से इन तीनों कर्मों के द्रव्य से कुछ कम किन्तु परस्पर में समान—समान नाम व गोत्र कर्मों में जाता है तथा शेष व सबसे कम भाग आयु कर्म में प्रवेश करता हैं गणितीय आधार पर यदि एक समय प्रबद्ध कर्म वर्गणाओं का द्रव्य ३०, ७२० मान लिया जाये तब उसका विभाजन निम्न प्रकार से होता है। १. सम्पूर्ण द्रव्यराशि ३०,७२० के चार समान अंश करने पर इनके ७६८०-७६८० के चार अंश बनते हैं। इनमें एक अंश को ३०,७२० सम्पूर्ण से ऋण पर शेष २३०४० को समान—समान रूप से आठों कर्मों में अर्थात् २८८०-२८८० अंश चले जाते हैं। २. शेष लघुभाग ७६८० के पुन: चार समान भाग १९२०, १९२० अंश के प्राप्त होते हैं। इनमें से बहुभाग अर्थात् तीन अंश १९८र्० ३ ५७६० वेदनीय कर्म में परिर्वितत होते हैं। ३. शेष १९२० राशि के पुन: समान चार अंश करने पर ४८०-४८० के अंश प्राप्त होते हैं। इनमें से बहुभाग अर्थात् ९८र्० ३ १४४० अंश मोहनीय कर्म में परिणमित हो जाते हैं। ४. शेष लघुभाग ४८० के पुन: चार समान अंश १२०—१२० प्राप्त होते हैं। इनमें तीन १२०—१२० अंश ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय कर्मों में पहुँच जाते हैं। ५. शेष उपलब्ध १२० अंश के पुन: चार समान—समान खण्ड ३०—३० अंश के प्राप्त होते हैं जिनमें तीन अंश अर्थात् ३र्० ३० ९० में से आधे—आधे ४५-४५ अंश नाम वे गोत्र कर्मों में पहुँचते हैं तथा शेष ३० अंश आयु कर्म में पहुँचते हैं। इस प्रकार एक समय प्रबद्ध अनन्त कर्म वर्गणाओं का इसी प्रकार विभाजन (वितरण) होता है।
इन वर्गणाओं का कुल विभाजन का योग इस प्रकार बनता है
एक समयप्रबद्ध कर्म वर्गणाओं का इस प्रकार अष्ट कर्मों में विभाजन होने के पश्चात् प्रश्न उठता है कि प्रत्येक मूल कर्म की उत्तर प्रकृतियों में विभाजन कैसे होता है ? यह पुनर्विभाजन प्रत्येक बद्धकर्म के लिये भावों पर निर्भर करता है। माना, वेदनीय कर्म का द्रव्य इसकी दो उत्तर प्रकृति साता व असाता में जाना है, तब आचार्य बतलाते हैं कि उस समय इन दोनों प्रकार के वेदनीय कर्म की प्रकृति के बंध के योग्य भाव—शुभ या अशुभ जैसे भी थे, जो किसी एक समय में एक ही जाति के होंगे, उसी के अनुरूप प्रकृति बनकर इनका समस्त द्रव्य उसी उत्तर प्रकृति रूप में चला जाता है। यही पुनर्विभाजन सभी कर्मों में किन्तु कुछ भिन्न—भिन्न प्रकार से घटित किया जा सकता है। जैसे—नाम कर्म की ४२ या ९३ उत्तर प्रकृतियों में होत हैं” इस गणना से यह ज्ञात हो जाता है कि कि कार्माण वर्गणा के कितने प्रदेश (द्रव्य) किस कर्म में गये किन्तु उनकी प्रकृति कैसे बनी व बंधी, उनकी आंतरिक रचना अर्थात् Chemical Structure या Resonatic Structure (रासायनिक संरचना या अनुनाद रचना) में कैसा व कैसे परिवर्तन होता है, यह अभी वैज्ञानिकों को ज्ञात नहीं और न ही ऐसी रचना का उल्लेख कहीं देखने में आया है। किन्तु यह र्नििववाद सत्य व तथ्य है कि उनकी भिन्न—भिन्न प्रकृति अर्थात् गुण होने से, रासायनिक संरचना में अन्तर अवश्य आता है क्योंकि उसी समय विभिन्न प्रकृतियाँ पड़कर उनके प्रभाव में संरचना में अन्तर आता है। रसायन विज्ञान की दृष्टि से उनके Resonatic Structure में अंतर अवश्य आता है जिसका सौदाहरण उल्लेख आगे किया जाने वाला है। इस तथ्य का सबसे रुचिकर पक्ष यह है कि प्रत्येक जीव अपने साथ अनन्तानन्त कार्माण वर्गणाओं से र्नििमत कार्माण शरीर लेकर जब अगले भव में गमन करता है अर्थात् विग्रह गति के पश्चात् गर्भ में प्रवेश करता है, तब गर्भ में आते ही, उसकी विभिन्न कर्म प्रकृतियों के उदय के कारण, तथा अन्तर्मुहूर्त में अपनी पर्याप्ति पूर्ण कर व फिर अपनी शारीरिक रचना पूर्ण करने लगता है। वास्तव में, जो जीव जैसी कर्म प्रकृतियां लेकर आता है, उनके उदय में आने पर उनके प्रभाव को भोगने के लिये अगले भव की वैसी प्रकृतियां लेकर आता है, उनके उदय में आने पर उनके प्रभाव को भोगने के लिये अगले भव की वैसी ही परिस्थितियां बनाता है व बनती है। इसी कारण समागम के पश्चात् माता व पिता के ४६-४६ गुणसूत्रों में से २३-२३ उसी प्रकार के गुणसूत्र छंटकर परस्पर युग्मित होते हैं। शेष २३-२३ अप्रभावी हो जाते हैं। युग्मित गुणसूत्रों में प्रत्येक का १-१ गुणसूत्र लिङ्ग निर्धारित करने में उत्तरदायी है तथा दोनों के शेष २२-२२ गुणसूत्र परस्पर में संयुक्त होकर / बंधकर इस प्रकार से रचना बनाते हैं कि उनके अनुसार पूर्वोर्पािजत कर्म के उदय के अनुसार जो प्रभाव / संस्कार / व्यवहार पड़ने वाला है वे ही क्रियाशील रहें। वे गुणसूत्र व डीएनए (Deoxy Ribonueleic Acid) के द्वारा उन्हीं गुणों को दिखाने वाले परमाणु या अभिलाक्षणिक समूह (Atoms or Functional Groups) को मुक्त रखता है तथा जो गुण/संस्कार प्रगट (दिखाने) नहीं करने होते हैं (क्योंकि उनके उदय रूप कर्म प्रकृति नहीं बंधी है।) उन्हीं में बंधन (Bonds) बनकर उन्हें सुरक्षित या अप्रभावी या निष्क्रिय कर देते हैं। अर्थात् किसी विशेष गुण/संस्कार को प्रगट करने वाला एटम या Functional Group (वे ही अपनी विभिन्न संरचना से विभिन्न गुण प्रर्दिशत करने के लिये उत्तरदायी होते हैं), सत्ता रूप में होते हुए भी बन्ध को प्राप्त होने से अप्रभावी हो जाते हैं। इसी प्रभावी व अप्रभावी अवस्था को जैन दर्शन कर्म का उदय व अनुदय संज्ञा से निरूपित करता है। इसके कारण ही एक ही रचना में तनिक या अंतर हो जाने पर गुणों में अंतर आ जाता है।
रासायनिक सूत्रों से इसे निम्न प्रकार से समझा सकते हैं
बैंजीन (Bengene C6H6) में सक्रिय रचना होती है तथा इसके 6-Corbon Atoms को १ से ६ की संख्या से सामान्यत: इस प्रकार दिखाते हैं— उपरोक्त A व B रचनाएँ समान हैं क्योंकि इस चक्रीय रचना में एकल (—) व द्वि बंध (=) निरन्तर घूमते रहते हैं। जिन्हें अनुनाद संरचना कहते हैं। यदि इस बैंजीन में क्रम संख्या १ कार्बन की हाइड्रोजन विस्थापित (हटकर या सबस्टीट्यूट) होकर कलोराइड (-ल्) या नाइट्रो (-NO2) समूह आ जाये तब उनकी रचना निम्न होगी— क्लोरोबैंजीन में क्लोराइड समूह के कारण तथा नाइट्रोबेंजीन में नाइट्रो समूह के कारण भिन्न—भिन्न यौगिक आ गये हैं। माना इन यौगिकों में पुन: कोई रासायनिक प्रतिक्रिया सम्पन्न कराकर कोई नया यौगिक उत्पाद बनाया जाये तब समीकरणों से निम्न प्रकार का अन्तर आ जाता है। जैसे प्२ध् की क्रिया से Sulphonic acid Group जोड़ने पर—दोनों रासायनिक क्रियाओं में विशेष अन्तर स्पष्ट दिखायी देता है कि क्लोराइड होने पर सल्फ्यूरिक एसिड की क्रिया से दो यौगिक मिलते हैं जिनमें एक में -SO3H समूह दूसरे कार्बन परमाणु पर तथा दूसरे समावयव में चौथे कार्बन परमाणु पर सल्फोनिक एसिड समूह संयुक्त हुआ जबकि नाइट्रो बेंजीन में नाइट्रो समूह होने से SO3H समूह तीसरे कार्बन परमाणु पर संयुक्त हुआ। निष्कर्ष निकलता है कि एक ही यौगिक बेंजीन भिन्न—भिन्न समूह या परमाणु होने पर क्रिया भिन्न भिन्न प्रकार से होती है अर्थात् यदि किसी स्थान पर कोई परिवर्तन या संयोग या बंध किसी प्रकार से होता है, तब उनका सम्पूर्ण प्रभाव ही विशिष्ट प्रकार का हो जाता है। इस तथ्य का आगे उपयोग किया जायेगा। ऑक्सीजन व सल्फर का परमाणु संख्या क्रमश: ८ व १६ होने से इनमें कुल इलेक्ट्रॉन की संख्या ८ व १६ है जिनका वितरण क्रमश: (२,६) व (२,८,६) है अर्थात् दोनों के बाह्यतम् कोश में इलेक्ट्रान की संख्या ६—६ ही है किन्तु दोनों के गुणों में अन्तर निम्न प्रकार से स्पष्ट होता है। ऑक्सीजन (Oxygen-O) व सल्फर (Suplgur-S) दोनों हाइड्रोजन (H) से संयोग से संयोग करके समान प्रकार के यौगिक (H2O) (जल) व H2S (हाइड्रोजन सल्फाइड) बनाते हैं, इनमें (H2O) द्रव व (H2S) गैस है। क्यों ? ऑक्सीजन में रचना (२, ६) होने से यह अपने नाभिक के प्रति आकर्षण अधिक रखती है जब सल्फर की रचना (२, ८, ६) अर्थात् इसमें एक कोश अधिक होने से नाभिक से दूरी बढ़ गयी, अत: ६ के प्रति आकर्षण कम हुआ जिससे यह निष्कर्ष निकला कि अपनी बाह्यतम कोश की रचना पूर्ण अर्थात् अष्टक (Octet-प्रत्येक तत्त्व का सामान्य स्वभाव है कि वह अपनी बाहरी ऑर्बिट में ८ इलेक्ट्रॉन पूर्ण करने की प्रवृत्ति रखता है, जिससे अपने इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, जिसे विद्युत ऋणात्मकता कहते हैं) पूर्ण करने की प्रवृत्ति सल्फर की अपेक्षा ऑक्सीजन में अधिक है। इसी गुण के कारण के अणु परस्पर संपर्व में आने पर भी सल्फर परमाणु दूसरे परमाणु से इलेक्ट्रॉन आर्किषत नहीं कर पात, जिससे प्२ए का प्रत्येक अणु पृथक्—पृथक् ही रहता है अर्थात् प्२ए गैस अवस्था में पायी जाती है। जबकि के अणुओं में अद्भुत प्रभाव उत्पन्न हो जाता है । अणु परस्पर सम्पर्व में आने पर का ऑक्सीजन परमाणु, के दूसरे अणु के हाइड्रोजन परमाणु (जिसमें मात्र एक इलेक्ट्रॉन होने से, इसकी प्रकृति इलेक्ट्रॉन त्यागने की भी है अर्थात् यह विद्युत ऋणात्मक के स्थान पर विद्युत धनात्मक है। एक विशेष प्रकार के आकर्षण बलसे आंशिक बंध (…..) बनाता है, जिसे हाइड्रोजन बंध कहते हैं। इस हाइड्रोजन बॉडिंग के कारण के असंख्यात अणु परस्पर संयुक्त हो जाते हैं जिससे वह द्रव अवस्था में आ जाता है। इसी कारण जल में विशेष प्रभाव आ गया है कि अग्रि पर डालने से उसकी ऊष्मा को शोषित कर अग्नि को बुझा देता है तथा यह टूटने से जल, भाप (जलवाष्प) में परिर्वितत हो जाता है। अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें कि के कारण जल के बहुत से अणु संयुक्त होकर द्रव अवस्था में आ गये तथा अन्य गुण भी परिर्वितत हो गये। उपरोक्त दोनों तथ्यों को जोड़कर कर्म वर्गणाओं तथा गुणसूत्र व डीएनए तथा आरएनए की रचना व उनके प्रभाव पर घटित किया जा सकता है।
डीएनए में मुख्यत: तीन यौगिक होते हैं
नाइट्रोजन युक्त विशेष रचना वाले इनके गुण इस प्रकार से हैं— ऑक्सीराइबोस प्यूरीन —दो प्रकार के हैं— इस सबमें एक अणु एक अणु तथा झ्ल्rग्हा यामें से कोई एक मिलकर एक संयुक्त अणु बनाता है जिसे कहते हैं। तथा ऐसे कई—कई लाख अणु संयुक्त होकर एक लम्बी शृंखला बना लेते हैं जिसमें ऐसी दो शृंखला सीढ़ीदार या र्सिपलाकर रचना बनाते हैं। इन दो शृंखलाओं में संयोग में उपस्थित नाइट्रोजन व हाइड्रोजन परमाणुओं में एक बड़ी संख्या में हाइड्रोजन द्वारा होता है यह डीएनए की रचना है जो निम्न है— इस ग्वानीन, थायमीन या साइटोसीन में कोई एक अणु हो सकता है। (यूरेसिल केवल आरएनए में पाया जाता है) यहाँ थायमीन वाले ल्म्तदूग् की रचना दी गयी है अब ऐसे लाखों अणु निम्न प्रकार से संयुक्त होते हैं— ये सभी कहलाते हैं। इस प्रकार बनी लम्बी की वास्तविक रासायनिक रचना निम्न प्रकार से होती है। कार्बनिक यौगिकों की रचना में कार्बन परमाणु को केवल एक मोड के बिन्दु के द्वारा प्रर्दिशत किया जाता है। इसी क्रम में शृंखलाओं में एक दूसरे से हाइड्रोजन के द्वारा संयोग होकर र्सिपलाकार रचना बनती जाती है जिसमें दोनों ओर लाखों—लाखों न्यूक्लिओटाइड होते हैं। अब प्रश्न ये होता है कि डीएनए की इन शृंखलाओं का कर्म, कर्मोदय, संस्कार, अनुदय, उपशम आदि से क्या संबंध है ? ये डीएनए ही किसी भी जीव के सभी गुणों या स्वभावों को अपने में संचित रखते हैं। माता व पिता के समागम के समय उनके ४६-४६ गुणसूत्रों में से १-१ गुणसूत्र लिङ्ग निर्धारित करता है। किन्तु यह लिङ्ग विग्रह गति से आये के वेद के उदय के प्रभाव से गुणसूत्रों के संयोग से बनता है अर्थात् जैसा जीव ने बंध किया था, अब नये भव में उसी अनुरूप पिता के भ् व माता र्के के सहयोग से पुरुषवेद तथा पिता र्के व माता र्के के संयोग से स्त्रीवेद बनता है। शेष जैसे—जैसे कर्म के अनुरूप में नाइट्रोजन व हाइड्रोजन एटम में हाइड्रोजन बनती है या नहीं बनती अर्थात् सभी १४८ में से १४५ कर्म प्रकृतियों के अनुरूप ही बन्ध होता है। जो प्रकृति उदय में नहीं आती है, वह बंधन युक्त होने से उदय में नहीं आती अर्थात् डीएनए की रासायनिक संरचना में दबाती है तथा जो उदय में आनी है, उसको प्रगट करने वाला परमाणु या अभिलाक्षणिक समूह बंधन से मुक्त रहता है। इस प्रकार किसी भी जीव में उपस्थित कोशिका के डीएनए की रचना से यह ज्ञात किया जा सकता है कि इसमें किस प्रकार की होने से कौन सा संस्कार उत्पन्न होगा और कौन नहीं। वैज्ञानिक आजकल इन्हीं की रचना व खोजों में संलग्न हैं जिनमें बहुत से ऐसे जीन की पहिचान कर ली गयी है और की जा रही है, जो किसी रोग या अन्य प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं। उनकी रचना को परिर्वितत करके उसके पहिले प्रभाव को समाप्त व अन्य उत्तम प्रभाव को क्रियाशील बनाया जा सकता है। अर्थात् निष्कर्ष यह आया कि किसी जीव के मरण के पश्चात नये भव में जाते समय, माता व पिता के वे—वे गुणसूत्र, डीएनए आदि क्रियाशील होंगे, अर्थात् उनकी रचना में उपस्थित Nल्म्तदूग् क्रियाशील होंगे जैसे गुण, स्वभाव, रचना, आकृति, संस्थान, संहनन आदि उसके कर्मोदय के कारण बनेंगे।
उदाहरण के लिये
उदाहरण के लिये, माना किसी जीव को इस भव में कोई रोग जैसे मधुमेह है तब उसकी माता द्वारा प्राप्त गुणसूत्र में मधुमेह उत्पन्न करने वाला डीएनए है तथा जीव के अशुभ कर्म के उदय के कारण यह रोग उसे हो गया। माता के और दूसरे पुत्र—पुत्रियों में भी वह गुणसूत्र आ सकता है और नहीं भी। यदि नहीं आया, तब रोग नहीं होगा। किन्तु यदि वह गुणसूत्र इस रोग के लिये उत्तरदायी रचना को लेकर आया, तब यह सम्भव है कि उदस जीव के शुभ कर्म के उदय से उसके सम्पूर्ण आयुकाल में वह उदय में ही ना आये, अर्थात् सत्ता में रहते हुए भी उदय में न आये, यही अनुदय अवस्था है। इसी कारण कुल १४८ कर्म प्रकृतियों में ३ कर्म प्रकृतियों (तीर्थंकर, आहारक शरीर व आहारक अंगोपांग) एवं शेष १४५ सत्ता में रहती हैं, किन्तु Nल्म्तदूग् की रचना में वे को प्राप्त हो जाने से भी उदय में नहीं है। जैन दर्शनानुसार साधक/श्रमण अपने पुरुषार्थ, तप, यम, नियम, संयम, भावविशुद्धि आदि के कारण ऐसी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं कि कर्म प्रकृति में उत्कर्षता, अपकर्षता, उपशम, संक्रमण व उदीरणा तथा काण्डक घात आदि के द्वारा उन्हें अप्रभावी कर देते हैं। यहाँ फिर प्रश्न उठता है कि क्या इन कार्यों के द्वारा अर्थात् इस ऊर्जा के द्वारा यह परिवर्तन सम्भव है ?
एक और रासायनिक प्रतिक्रिया से इसे समझाया जा सकता है
एक यौगिक एसिटीन हाइड्रोजन क्लोराइड से दो पदों में क्रिया करके १—१ डाइक्लोरोईथेन बनाती है। किन्तु एक पदार्थ बेंजोइक एनहाइड्राइड या ईथर परॉक्साइड की उपस्थिति में क्रिया का स्वरूप बदलकर १, २ डाइक्लोरो इथेन बनाता है अर्थात् परिस्थितियाँ परिर्वितत होने पर क्रिया व क्रियाफल परिर्वितत हो गया। इसी प्रकार सब जीवों के साथ तथा विशेषत: यौगिकों के साथ ऐसा ही होता है। इस प्रकार सभी तथ्यों को जोड़ने पर निष्कर्ष है कि जीव के अपने—अपने कर्म के उदय से उसमें उपस्थित डीएनए की शृंखला में Nल्म्तदूग् में भिन्न—भिन्न प्रकार के बंध होते हैं जो लाखों लाखों प्रकार के हैं, जिनसे प्रत्येक जीव के गुण भिन्न—भिन्न हैं।
किन्तु इन बंधनों को पुरुषार्थ से परिर्वितत भी किया जा सकता है। वैज्ञानिक इस कार्य में संलग्न हैं, सफलताएं मिल रही हैं और भविष्य में मिलेगी भी किन्तु बाधा अभी यह है कि कार्माण वर्गणा इतनी सूक्ष्म हैं कि उनका वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से भी देख पाना अभी सम्भव नहीं है। भविष्य के गर्भ में क्या दिया है ? इसे जानना अभी कठिन सा है। इस प्रबंध में तीन स्थानों पर रासायनिक प्रतिक्रियाएं देकर यही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि परमाणु में या उनसे बने यौगिकों में भिन्न—भिन्न रचनाएँ बनने या नये प्रकार के ब्रॉन्ड बनने पर किस प्रकार से उनके गुणों में अंतर आ जाता है। इसी प्रकार से भावों से क्रियाओं से कार्माण वर्गणाओं में भी अंतर आ जाता है। अत: अभी वैज्ञानिक अनुसंधान की बहुत आवश्यकता व अपेक्षाएँ हैं। संभवत: हम भी इन्हें जानने से समर्थ हो सवें। किन्तु इतना निश्चित है कि हमारी क्रियाओं से कैसे—कैसे बंध पड़ते हैं उनका प्रभाव किस प्रकार से वह किस प्रकार का होता है। उनके प्रभाव से बचने का उपाय भी इन्हीं की रचना में छिपा है। इसी तथ्य को वैज्ञानिक दृष्टि से समझकर वैज्ञानिक इनमें परिवर्तन करने में समर्थ हो रहे हैं। नये प्रकार के गुणसूत्रों को कृत्रिम रूप प्रयोगशाला में उत्पत्ति की जा रही है। डीएनए द्वारा कैसे अपना प्रभाव कोशिका को दिया जाता है, यह सभी रहस्य भलीभाँति जाने जा चुके हैं। अत: हम भी ऐसा आध्यात्मिक प्रयास भी करें कि संसार भ्रमण में अधिक न उलझ पायें तथा जब तक भी संसार में है, निराकुल व सुखी रहें, यह तथ्य ध्यान में रखकर कि ये सभी कार्य हमारे ही द्वारा ही किये गये हैं, किन्तु किसी अन्य को या भगवान को दोष न दें। विभिन्न Nल्म्तदूग् से बनी सर्पिलाकार रचना कैसी होती है, इसकी सरल संरचना का चित्र आगे प्रस्तुत हैं। संक्षेप में इस क्रिया की रूपरेखा समझाने का प्रयास किया गया है, विशेष अध्ययन के लिये संदर्भित ग्रंथों का अवलोकन करें। इन सभी चिन्हों में अभी और खोज व प्रयोगों की आवश्यकता है। इस चिन्तन का लेखन समाप्त होने पर पुनरावलोकन के समय २१ मई २०१० दिन शुक्रवार व २३ मई, २०१० दिन रविवार को टाइम्स ऑफ इंडिया (अंग्रेजी संस्करण) के विज्ञान विभाग में समाचार छपा कि यूएसए में वैज्ञानिक दल द्वारा कोशिका का संश्लेषण कर लिया गया है। अमेरिका के व उनके २४ वैज्ञानिकों के दल ने प्राणी शरीर की इकाई कोशिका को कृत्रिम रूप से र्नििमत किया जिसमें लगभग १.६ मिलियन Nल्म्तदूग् इकाई है। विशेषता यह है कि वे जीवित कोशिका की भाँति स्वयं अपना पुर्निवभाजन करने में समर्थ है। सर्वप्रथम जीनोम को संश्लेषित कर उसे एक बेक्टीरिया की कोशिका में प्रविष्ट कराया गया जिसे माइकोप्लाज्मा माइकोउीज जेसीबी। संश्लेषण १.० Mycoplasma mycoides JCVI syn 1.00) नाम दिया गया। इस क्रोमोसोम को कम्पयूटर की सहायता से ४ विभिन्न रसायनों की बोतलों ४ करोड़ डॉलर व्यय करके र्नििमत किया गया। इस टीक में तीन भारतीय वैज्ञानिक संजय वाशी, राधा कृष्णकुमार व प्रशान्त पी. परमार भी सम्मिलित हैं। जैन दर्शनानुसार यह जीवन की उत्पत्ति नहीं, वरन ‘योनि’ की उत्पत्ति है। यहाँ ढेर से प्रश्न जाग्रत होते हैं जो निकट भविष्य में विश्वस्तरीय वार्ता का कारण बनेंगे।