आयुष्मन् शृणु तत्वार्थान् वक्ष्यमाणाननुक्रमात्।
जीवादीन् कालपर्यन्तान् सप्रभेदान् सपर्ययान्।।८५।।
जीवादीनां पदार्थानां याथात्म्यं तत्त्वमिष्यते।
सम्यग्ज्ञानाज्र्मेतद्धि विद्धि सिद्ध्यङ्गमङ्गिनाम्।।८६।।
तदेकं तत्त्वसामान्याज्जीवाजीवाविति द्विधा।
त्रिधा मुक्तेतराजीवविभागात्परिकीर्त्यते।।८७।।
जीवो मुक्तश्च संसारी संसार्यात्मा द्विधा मत:।
भव्योऽभव्यश्च साजीवास्ते चतुर्धा विभाविता:।।८८।।
मुक्तेतरात्मको जीवो मूर्तामूर्तात्मक: पर:।
इति वा तस्य तत्त्वस्य चातुर्विध्यं विनिश्चितम्।।८९।।
पञ्चास्तिकायभेदेन तत्तत्त्वं पञ्चधा स्मृतम्।
ते जीवपुद्गलाकाशधर्माधर्मा: सपर्यया:।।९०।।
त एव कालसंयुक्ता: षोढा तत्त्वस्य भेदका:।
इत्यनन्तो भवेदस्य प्रस्तारो विस्तरैषिणाम्।।९१।।
चेतनालक्षणो जीव: सोऽनादिनिधनस्थिति:।
ज्ञाता द्रष्टा च कर्ता च भोक्ता देहप्रमाणक:।।९२।।
गुणवान् कर्मनिर्मुक्तावूर्ध्वघ्न ज्यास्वभावक:।
परिणन्तोपसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।।९३।।
तस्येमे मार्गणोपाया गत्यादय उदाहृता:।
चतुर्दशगुणस्थानै: सोऽत्र मृग्य: सदादिभि:।।९४।।
गतीन्द्रिये च कायश्च योगवेदकषायका:।
ज्ञानसंयमदृग्लेश्या भव्यसम्यक्त्वसञ्ज्ञिन:।।९५।।
सममाहारकेण स्यु: मार्गणस्थानकानि वै।
सोऽन्वेष्य स्तेषु सत्सङ्ख्याद्यनुयोगैर्विशेषत:।।९६।।
सत्सङ्ख्याक्षेत्रसंस्पर्शकालभावान्तरैरयम् ।
बहुत्वाल्पत्वतश्चात्मा मृग्य: स्यात् स्मृतिचक्षुषाम्।।९७।।
स्युरिमेऽधिगमोपाया जीवस्याधिगम: पुन:।
प्रमाणनयनिक्षेपै: अवसेयो मनीषिभि:।।९८।।
तस्यौपशमिको भाव: क्षायिको मिश्र एव च।
स्व तत्त्वमुदयोत्थश्च पारिणामिक इत्यपि।।९९।।
निश्चितो यो गुणैरेभि: स जीव इति लक्ष्यताम्।
द्वेधा तस्योपयोग: स्याज्ज्ञानदर्शनभेदत:।।१००।।
ज्ञानमष्टतयं ज्ञेयं दर्शनं च चतुष्टयम्।
साकारं ज्ञानमुद्दिष्टमनाकारं च दर्शनम्।।१०१।।
भेदग्रहणमाकार: प्रतिकर्मव्यवस्थया।
सामान्यमात्रनिर्भसादनाकारं तु दर्शनम्।।१०२।।
जीव: प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञ: पुरुषस्तथा।
पुमानात्मान्तरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्यया:।।१०३।।
यतो जीवत्यजीवी च जीविष्यति च जन्मसु।
ततो जीवोऽयमाम्नात: सिद्ध: स्ताद्भूतपूर्वत:।।१०४।।
प्राणा दशास्य सन्तीति प्राणी जन्तुश्च जन्मभाक्।
क्षेत्रं स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते।।१०५।।
पुरुष: पुरुभोगेषु शयनात् परिभाषित:।
पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते।।१०६।।
भवेष्वतति सातत्याद् एतीत्यात्मा निरुच्यते।
सोऽन्तरात्माष्टकर्मान्तर्वर्तित्वादभिलप्यते।।१०७।।
ज्ञ: स्याज्झानगुणोपेतो ज्ञानो च तत एव स:।
पर्यायशब्दैरेभिस्तु निर्णेयोऽन्यैश्च तद्विधै:।।१०८।।
शाश्वतोऽयं भवेज्जीव: पर्यायस्तु पृथक् पृथक्।
मृद्द्रव्यस्येव पर्यायैस्तस्योत्पत्ति विपत्तय:।।१०९।।
अभूत्वाभाव उत्पादो भूत्वा चाभवनं व्यय:।
ध्रौव्यं तु तादवस्थ्यं स्यादेवमात्मा त्रिलक्षण:।।११०।।
एवं धर्माणमात्मानमजानाना: कुट्टष्टय:।
बहुधात्र विमन्वाना विवदन्ते परस्परम्।।१११।।
नास्त्यात्मेत्याहुरेकेऽन्ये सोऽस्त्यनित्य इति स्थिता:।
न कर्तेत्यपरे केचिद् अभोक्तेति च दुर्दृश:।।११२।।
अस्यात्मा िंक तु मोक्षोऽस्य नास्तीत्येके विमन्वते।
मोक्षोऽस्ति तदुपायस्तु नास्तीतीच्छन्ति केचन।।११३।।
इत्यादि दुर्णयानेतानपास्य सुनयान्वयात्।
यथोक्तलक्षणं जीवं त्वमायुष्मन् विनिश्चिनु।।११४।।
संसारश्चैव मोक्षश्च तस्यावस्थाद्वयं मतम्।
संसारश्चतुरङ्गेऽस्मिन् भवावर्ते विवर्तनम्।।११५।।
नि:शेषकर्मनिर्मोक्षो मोक्षोऽनन्तसुखात्मक:।
सम्यग्विशेषणज्ञानदृष्टिचारित्रसाधन: ।।११६।।
आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं परया मुदा।
सम्यग्दर्शनमाम्नातं प्रथमं मुक्तिसाधनम्।।११७।।
ज्ञानं जीवादिभावानां याथात्म्यस्य प्रकाशकम्।
अज्ञानध्वान्तसंतानप्रक्षयानन्तरोद्भवम् ।।११८।।
माध्यस्थलक्षणं प्राहुश्चारित्रं वितृषो मुने:।
मोक्षकामस्य निर्मुक्तचेलस्यािंहसकस्य तत्।।११९।।
त्रयं समुदितं मुक्ते: साधनं दर्शनादिकम्।
नैकाङ्गविकलत्वेऽपि तत्स्वकार्यकृदिष्यते।।१२०।।
सत्येव दर्शने ज्ञानं चारित्रं च फलप्रदम्।
ज्ञानं च दृष्टिसच्चर्यासांनिध्ये मुक्तिकारणम्।।१२१।।
चारित्रं दर्शनज्ञानविकलं नार्थकृन्मतम्।
प्रपातायैव तद्धि स्यादन्धस्येव विवल्गतम्।।१२२।।
त्रिष्वेकद्वयविश्लेषाद् उद्भूता मार्गदुर्णया:।
षोढा भवन्ति मूढानां तेऽप्यत्र विनिपातिता:।।१२३।।
इतो नाधिकमस्त्यन्यत् नाभून्नैव भविष्यति।
इत्याप्तादित्रये दार्ढ्याद् दर्शनस्य विशुद्धता।।१२४।।
आप्तो गुणैर्युतो धूतकलंको निर्मलाशय:।
निष्ठितार्थो भवेत् सार्वस्तदाभासास्ततोऽपरे।।१२५।।
आगमस्तद्वचोऽशेषपुरुषार्थानुशासनम् ।
नयप्रमाणगम्भीरं तदाभासोऽसतां वच:।।१२६।।
पदार्थस्तु द्विधा ज्ञेयो जीवाजीवविभागत:।
यथोक्तलक्षणो जीवस्त्रिकोटि परिणामभाक्।।१२७।।
भव्याभव्यो तथा मुक्त इति जीवस्त्रिधोदित:।
भविष्यत्सिद्धिको भव्य: सुवर्णोपलसंनिभ:।।१२८।।
अभव्यस्तद्विपक्ष: स्यादन्धपाषाणसंनिभ:।
मुक्तिकारणसामग्री न तस्यास्ति कदाचन।।१२९।।
कर्मबन्धननिर्मुक्तस्त्रिलोकशिखरालय: ।
सिद्धो निरञ्जन: प्रोक्त: प्राप्तानन्तसुखोदय:।।१३०।।
इति जीवपदार्थस्ते संक्षेपेण निरूपित:।
अजीवतत्त्वमप्येवमवधारय धीधन।।१३१।।
अजीवलक्षणं तत्त्वं पञ्चधैव प्रपञ्च्यते।
धर्माधर्मावथाकाशं काल: पुद्गल इत्यपि।।१३२।।
जीवपुद्गलयोर्यत्स्याद् गत्युपग्रहकारणम्।
धर्मद्रव्यं तदुद्दिष्टमधर्म : स्थित्युपग्रह:।।१३३।।
गतिस्थितिमतामेतौ गतिस्थित्योरुपग्रहे।
धर्माधर्मौ प्रवेर्तेते न स्वयं प्रेरकौ मतौ।।१३४।।
यथा मत्स्यस्य गमनं बिना नैवाम्भसा भवेत्।
न चाम्भ: प्रेरयत्येनं तथा धर्मास्त्यनुग्रह:।।१३५।।
न चाम्भ: प्रेरयत्येनं तथा धर्मास्त्यनुग्रह:।।१३५।।
तरुच्छाया यथा मर्त्यं स्थापयत्यर्थिनं स्वत:।
न त्वेषा प्रेरयत्येनमथ च स्थितिकारणम्।।१३६।।
तथैवाधर्मकायोऽपि जीवपुद्गलयो: स्थितिम्।
निवर्तयत्युदासीनो न स्वयं प्रेरक: स्थिते:।।१३७।।
जीवादीनां पदार्थानामवगाहनलक्षणम्।
यत्तदाकाशमस्पर्शममूर्तं व्यापि निष्क्रियम्।।१३८।।
वर्तनालक्षण: कालो वर्तना स्वपराश्रया।
यथास्वं गुणपर्यायै: परिणन्तृत्वयोजना।।१३९।।
यथा कुलालचक्रस्य भ्रमणेऽध:शिला स्वयम्।
धत्ते निमित्ततामेवं कालोऽपि कलितो बुधै:।।१४०।।
व्यवहारात्मकात् कालान्मुख्यकालविनिर्णय:।
मुख्ये सत्येव गौणस्य वाह्लीकादे: प्रतीतित:।।१४१।।
स कालो लोकमात्रै: स्वैरणुभिर्निचित: स्थितै:।
ज्ञेयोऽन्योन्यमसंकीर्णै रत्नानामिव राशिभि:।।१४२।।
प्रदेशप्रचया योगादकायोऽयं प्रकीर्तित:।
शेषा: पञ्चास्तिकाया: स्यु: प्रदेशोपचितात्मका:।।१४३।।
धर्माधर्मवियत्कालपदार्था मूर्तिवर्जिता:।
मूर्तिमत्पुद्गलद्रव्यं तस्य भेदानित: शृणु।।१४४।।
वर्णगन्धरसस्पर्शयोगिन: पुद्गला मता:।
पूरणाद् गलनाच्चैव संप्राप्तान्वर्थनामका:।।१४५।।
स्कन्धाणुभेदतो द्वेधा पुद्गलस्य व्यवस्थिति:।
स्निग्धरूक्षात्मकाणूनां संघात: स्कन्ध इष्यते।।१४६।।
द्व्यणुकादिर्महास्कन्धपर्यन्तस्तस्य विस्तर:।
छायातपतमोज्योत्स्नापयोदादिप्रभेदभाक् ।।१४७।।
अणव: कार्यलिङ्गा: स्यु: द्विस्पर्शा: परिमण्डला:।
एकवर्णरसा नित्या: स्युरनित्याश्च पर्यय:।।१४८।।
सूक्ष्मसूक्ष्मास्तथा सूक्ष्मा: सूक्ष्मस्थूलात्मका: परे।
स्थूलसूक्ष्मात्मका: स्थूला: स्थूलस्थूलाश्च पुद्गला:।।१४९।।
सूक्ष्मसूक्ष्मोऽणुरेक: स्यादद्दश्योऽस्पृश्य एव च।
सूक्ष्मास्ते कर्मणां स्कन्धा: प्रदेशानन्त्ययोगत:।।१५०।।
शब्द: स्पर्शो रसो गन्ध: सूक्ष्मस्थूलो निगद्यते।
अचाक्षुषत्वे सत्येषामिन्द्रियग्राह्यतेक्षणात्।।१५१।।
स्थूलसूक्ष्मा: पुनर्ज्ञेयाश्छायाज्योत्स्नातपादय:।
चाक्षुषत्वेऽप्यसंहार्य रूपत्वादविघातका:।।१५२।।
द्रवद्रव्यं जलादि स्यात् स्थूलभेदनिदर्शनम्।
स्थूलस्थूल: पृथिव्यादिर्भेद्य: स्कन्ध: प्रकीर्तित:।।१५३।।
इत्यमीषां पदार्थानां याथात्म्यमविपर्ययात्।
य: श्रद्धत्ते स भव्यात्मा परं ब्रह्माधिगच्छति।।१५४।।
तत्त्वार्थसंग्रहं कृत्स्नमित्युक्त्वास्मै विदांवर:।
कानिचित्तत्त्वबीजानि पुनरुद्देशतो जगौ।।१५५।।
पुरुषं पुरुषार्थं च मार्गं मार्गफलं तथा।
बन्धं मोक्षं तयोर्हेतुं बद्धं मुक्तं च सोऽम्यधात्।।१५६।।
त्रिजगत्समवस्थानं नरकप्रस्तरानपि।
द्वीपाब्धिह्रदशैलादीनप्यथास्मा युपादिशत्।।१५७।।
त्रिषष्टिपटलं स्वर्ग देवायुर्भोगविस्तरम्।
ब्रह्मस्थानमपि श्रीमान् लोकनाडीं च संजगौ।।१५८।।
तीर्थेशानां पुराणानि चक्रिणामर्धचक्रिणाम्।
तत्कल्याणानि तद्धेतूनप्याचख्यौ जगद्गुरु:।।१५९।।
गतिमागतिमुत्पिंत्त च्यवनं च शरीरिणाम्।
भुक्तिमृिंद्ध कृतं चापि भगवान् ब्याजहार स:।।१६०।।
भवद्भविष्यद्भूतं च यत्सर्वं द्रव्यगोचरम्।
तत्सर्वं सर्ववित्सर्वो भरतं प्रत्यबूबुधत्।।१६१।।
श्रुत्वेति तत्त्वसद्भावं गुरो: परमपूरुषात्।
प्रह्लादं परमं प्राप भरतो भक्तिनिर्भर:।।१६२।।
तत: सम्यक्त्वशुद्धिं च व्रतशुिंद्ध च पुष्कलाम्।
निष्कलाद्भरतो भेजे परमानन्दमुद्वहन्।।१६३।।
भगवान् कहने लगे कि हे आयुष्मन्! जिनका स्वरूप आगे अनुक्रम से कहा जायेगा, ऐसे भेद-प्रभेदों तथा पर्यायों से सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों को तू सुन।।८५।। जीव आदि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप ही तत्त्व कहलाता है, यह तत्त्व ही सम्यग्ज्ञान का अंग अर्थात् कारण है और यही जीवों की मुक्ति का अंग है।।८६।। वह तत्त्व सामान्य रीति से एक प्रकार का है, जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार का है तथा जीवों के संसारी और मुक्त इस प्रकार दो भेद करने से संसारी जीव, मुक्त जीव और अजीव इस प्रकार तीन भेद वाला भी कहा जाता है।।८७।। संसारी जीव दो प्रकार के माने गये हैं—एक भव्य और दूसरा अभव्य, इसलिए मुक्त जीव, भव्य जीव, अभव्य जीव और अजीव इस तरह वह तत्त्व चार प्रकार का भी माना गया है।।८८।। अथवा जीव के दो भेद हैं—एक मुक्त और दूसरा संसारी, इसी प्रकार अजीव के भी दो भेद हैं एक मूर्तिक और दूसरा अमर्तिक, दोनों को मिला देने से भी तत्त्व पाँच प्रकार का भी स्मरण किया है। अपनी-अपनी पर्यायों सहित जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं।।९०।।
उन्हीं पाँच अस्तिकायों में काल के मिला देने से तत्त्व के छह भेद हो जाते हैं। इस प्रकार विस्तारपूर्वक जानने की इच्छा करने वालों के लिए तत्त्वों का विस्तार अनन्त भेद वाला हो सकता है।।९१।। जिसमें चेतना अर्थात् जानने, देखने की शक्ति पायी जाये उसे जीव कहते हैं, वह अनादिनिधन है अर्थात् द्रव्य-दृष्टि की अपेक्षा न तो वह कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट ही होगा। इसके सिवाय वह ज्ञाता है—ज्ञानोपयोग से सहित है, द्रष्टा है—दर्शनोपयोग से युक्त है, कर्ता है—द्रव्यकर्म और कर्मों को करने वाला है, भोक्ता है—ज्ञानादि गुण तथा शुभ-अशुभ कर्मों के फल को भोगने वाला है और शरीर के प्रमाण के बराबर है—सर्वव्यापक और अणुरूप नहीं है।।९२।। वह अनेक गुणों से युक्त है, कर्मों का सर्वथा नाश हो जाने पर ऊर्ध्वगमन करना उसका स्वभाव है और वह दीपक के प्रकाश की तरह संकोच तथा विस्तार रूप परिणमन करने वाला है। भावार्थ—नामकर्म के उदय से उसे जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है वह उतना ही संकोच विस्ताररूप हो जाता है।।९३।।
उस जीव का अन्वेषण करने के लिए गति आदि चौदह मार्गणाओं का निरूपण किया गया है। इसी प्रकार चौदह गुणस्थान और सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा भी वह जीवतत्त्व अन्वेषण करने के योग्य है। भावार्थ—मार्गणाओं, गुणस्थानों और सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा जीव का स्वरूप समझा जाता है।।९४।।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक ये चौदह मार्गणास्थान हैं। इन मार्गणास्थानों में सत्, संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा विशेष रूप से जीव का अन्वेषण करना चाहिए—उसका स्वरूप जानना चाहिए।।९५-९६।। सिद्धान्तशास्त्ररूपी नेत्र को धारण करने वाले भव्य जीवों को सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अन्तर, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों के द्वारा जीवतत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए।।९७।। इस प्रकार ये जीवतत्त्व के जानने के उपाय हैं। इनके सिवाय विद्वानों को प्रमाण, नय और निक्षेपों के द्वारा भी जीव तत्त्व का निश्चय करना चाहिए—उसका स्वरूप जानकर दृढ़ प्रतीति करना चाहिए।।९८।।
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव जीव के निजतत्त्व कहलाते हैं, इन गुणों से जिसका निश्चय किया जाये उसे जीव जानना चाहिए। उस जीव का उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का होता है।।९९-१००।। इन दोनों प्रकार के उपयोगों में से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार का जानना चाहिए। जो उपयोग साकार है अर्थात् विकल्प सहित पदार्थ को जानता है उसे ज्ञानोपयोग कहते हैं और जो अनाकार है—विकल्प रहित पदार्थ को जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं।।१०१।। घट-पट आदि की व्यवस्था लिये हुए किसी वस्तु के भेद ग्रहण करने को आकार कहते हैं और सामान्यरूप ग्रहण करने को अनाकार कहते हैं। ज्ञानोपयोग वस्तु को भेदपूर्वक ग्रहण करता है इसलिए वह साकार—सविकल्पक उपयोग कहलाता है और दर्शनोपयोग वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है इसलिए वह अनाकार—अविकल्पक उपयोग कहलाता है।।१०२।।
जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीव के पर्यायवाचक शब्द हैं।।१०३।। चूँकि यह जीव वर्तमान काल में जीवित है, भूतकाल में भी जीवित था और अनागत काल में भी अनेक जन्मों में जीवित रहेगा इसलिए इसे जीव कहते हैं। सिद्ध भगवान् अपनी पूर्व पर्यायों में जीवित थे इसलिए वे भी जीव कहलाते हैं।।१०४।। पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण इस जीव के विद्यमान रहते हैं इसलिए यह प्राणी कहलाता है, यह बार-बार अनेक जन्म धारण करता है इसलिए जन्तु कहलाता है, इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्रज्ञ भी कहलाता है।।१०५।। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भोगों में शयन अर्थात् प्रवृत्ति करने से यह पुरुष कहा जाता है और अपने आत्मा को पवित्र करता है इसलिए पुमान् भी कहा जाता है।।१०६।। यह जीव नर-नारकादि पर्यायों में अतति अर्थात् निरन्तर गमन करता रहता है इसलिए आत्मा कहलाता है और ज्ञानावरणााfद आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से अन्तरात्मा भी कहा जाता है।।१०७।। यह जीव ज्ञानगुण से सहित है इसलिए ज्ञ कहलाता है और इसी कारण ज्ञानी भी कहा जाता है, इस प्रकार यह जीव ऊपर कहे हुए पर्याय शब्दों तथा उन्हीं के समान अन्य अनेक शब्दों से जानने के योग्य है।।१०८।। यह जीव नित्य है परन्तु उसकी नर-नारकादि पर्याय जुदी-जुदी है। जिस प्रकार मिट्टी नित्य है परन्तु पर्यायों की अपेक्षा उसका उत्पाद और विनाश होता रहता है उसी प्रकार यह जीव नित्य है परन्तु पर्यायों की अपेक्षा उसमें भी उत्पाद और विनाश होता रहता है। भावार्थ—द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव द्रव्य नित्य है और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है। एक साथ दोनों अपेक्षाओं से यह जीव उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है।।१०९।। जो पर्याय पहले नहीं थी उसका उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है, किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना व्यय कहलाता है और दोनों पर्यायों में तदवस्थ होकर रहना ध्रौव्य कहलाता है, इस प्रकार यह आत्मा उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों से सहित है।।११०।। ऊपर कहे हुए स्वभाव से युक्त आत्मा को नहीं जानते हुए मिथ्यादृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकार से मानते हैं और परस्पर में विवाद करते हैं।।१११।। कितने ही मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ ही नहीं है, कोई कहते हैं कि वह अनित्य है, कोई कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि वह भोक्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ है तो सही परन्तु उसका मोक्ष नहीं है और कोई कहते हैं कि मोक्ष भी होता है परन्तु मोक्ष प्राप्ति का कुछ उपाय नहीं है, इसलिए हे आयुष्मन् भरत, ऊपर कहे हुए इन अनेक मिथ्या नयों को छोड़कर समीचीन नयों के अनुसार जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे जीवतत्त्व का तू निश्चय कर।।११२-११४।। उस जीव की दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं एक संसार और दूसरी मोक्ष। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों से युक्त संसाररूपी भँवर में परिभ्रमण करना संसार कहलाता है।।११५।। और समस्त कर्मों का बिलकुल ही क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है, वह मोक्ष अनन्तसुख स्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप साधन से प्राप्त होता है।।११६।। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और समीचीन पदार्थों का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है, यह सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्ति का पहला साधन है।।११७।। जीव, अजीव आदि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने वाला तथा अज्ञानरूपी अन्धकार की परम्परा के नष्ट हो जाने के बाद उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।।११८।। इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समताभाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं, वह सम्यक्चारित्र यथार्थ रूप से तृष्णारहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले वस्त्र रहित और िंहसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज के ही होता है।।११९।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर ही मोक्ष के कारण कहे गये हैं यदि इनमें से एक भी अंग की कमी हुई तो वह अपना कार्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते।।१२०।। सम्यग्दर्शन के होते हुए ही ज्ञान और चारित्र फल के देने वाले होते हैं इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यक््âचारित्र के रहते हुए ही सम्यग्ज्ञान मोक्ष का कारण होता है।।१२१।। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता किन्तु जिस प्रकार अन्धे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चारित्र भी उसके पतन अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण होता है।।१२२।। इन तीनों में से कोई तो अलग-अलग एक-एक से मोक्ष मानते हैं और कोई दो-दो से मोक्ष मानते हैं इस प्रकार मूर्ख लोगों ने मोक्षमार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्यानयों की कल्पना की है परन्तु इस उपर्युक्त कथन से उन सभी का खण्डन हो जाता है। भावार्थ—कोई केवल दर्शन से, कोई ज्ञानमात्र से, कोई मात्र चारित्र से, कोई दर्शन और ज्ञान दो से, कोई दर्शन और चारित्र इन दो से और कोई ज्ञान तथा चारित्र इन दो से मोक्ष मानते हैं। इस प्रकार मोक्षमार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्यानय की कल्पना करते हैं परन्तु उनकी यह कल्पना ठीक नहीं है क्योंकि तीनों की एकता से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।।१२३।।
जैनधर्म में आप्त, आगम तथा पदार्थ का जो स्वरूप कहा गया है उससे अधिक वा कम न तो है, न था और न आगे ही होगा। इस प्रकार आप्त आदि तीनों के विषय में श्रद्धान की दृढ़ता होने से सम्यग्दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है।।१२४।। जो अनन्तज्ञान आदि गुणों से सहित हो, घातिया कर्मरूपी कलंक से रहित हो, निर्मल आशय का धारक हो, कृतकृत्य हो और सबका भला करने वाला हो वह आप्त कहलाता है। इसके सिवाय अन्य देव आप्ताभास कहलाते हैं।।१२५।। जो आप्त का कहा हुआ हो, समस्त पुरुषार्थों का वर्णन करने वाला हो और नय तथा प्रमाणों से गम्भीर हो उसे आगम कहते हैं, इसके अतिरिक्त असत्पुरुषों के वचन आगमाभास कहलाते हैं।।१२६।। जीव और अजीव के भेद से पदार्थ के दो भेद जानना चाहिए। उनमें से जिसका चेतना रूप लक्षण ऊपर कहा जा चुका है और जो उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप तीन प्रकार के परिणमन से युक्त है वह जीव कहलाता है।।१२७।। भव्य-अभव्य और मुक्त इस प्रकार जीव के तीन भेद कहे गये हैं, जिसे आगामी काल में सिद्धि प्राप्त हो सके उसे भव्य कहते हैं, भव्य जीव सुवर्ण-पाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त मिलने पर सुवर्ण-पाषाण आगे चलकर शुद्ध सुवर्णरूप हो जाता है उसी प्रकार भव्यजीव भी निमित्त मिलने पर शुद्ध सिद्धस्वरूप हो जाता है।।१२८।। जो भव्य जीव से विपरीत है अर्थात् जिसे कभी भी सिद्धि की प्राप्ति न हो सके उसे अभव्य कहते हैं, अभव्य जीव अन्धपाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार अन्धपाषाण कभी भी सुवर्णरूप नहीं हो सकता उसी प्रकार अभव्य जीव भी कभी सिद्धस्वरूप नहीं हो सकता। अभव्य जीव को मोक्ष प्राप्त होने की सामग्री कभी भी प्राप्त नहीं होती है।।१२९।। और जो कर्मबन्धन से छूट चुके हैं, तीनों लोकों का शिखर ही जिनका स्थान है, जो कर्म कालिमा से रहित हैं और जिन्हें अनन्तसुख का अभ्युदय प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मुक्त जीव कहलाते हैं।।१३०।। इस प्रकार हे बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले भरत, मैंने तेरे लिए संक्षेप से जीवतत्त्व का निरूपण किया है अब इसी तरह अजीव तत्त्व का भी निश्चय कर।।१३१।। धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इस प्रकार अजीव तत्त्व का पाँच भेदों द्वारा विस्तार निरूपण किया जाता है।।१३२।। जो जीव और पुद्गलों के गमन में सहायक कारण हो उसे धर्म कहते हैं और जो उन्हीं के स्थित होने में सहकारी कारण हो उसे अधर्म कहते हैं।।१३३।। धर्म और अधर्म ये दोनों ही पदार्थ अपनी इच्छा से गमन करते और ठहरते हुए जीव तथा पुद्गलों के गमन करने और ठहरने में सहायक होकर प्रवृत्त होते हैं स्वयं किसी को प्रेरित नहीं करते हैं।।१३४।। जिस प्रकार जल के बिना मछली का गमन नहीं हो सकता फिर भी जल मछली को प्रेरित नहीं करता उसी प्रकार जीव और पुद्गल धर्म के बिना नहीं चल सकते फिर भी धर्म इन्हें चलने के लिए प्रेरित नहीं करता किन्तु जिस प्रकार जल चलते समय मछली को सहारा दिया करता है उसी प्रकार धर्म पदार्थ भी जीव और पुद्गलों को चलते समय सहारा दिया करता है।।१३५।। जिस प्रकार वृक्ष की छाया स्वयं ठहरने की इच्छा करने वाले पुरुष को ठहरा देती है—उसके ठहरने में सहायता करती है परन्तु वह स्वयं उस पुरुष को प्रेरित नहीं करती तथा इतना होने पर भी वह उस पुरुष के ठहरने की कारण कहलाती है उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी उदासीन होकर जीव और पुद्गलों को स्थित करा देता है—उन्हें ठहरने में सहायता पहुँचाता है परन्तु स्वयं ठहरने की प्रेरणा नहीं करता।।१३६-१३७।। जो जीव आदि पदार्थों को ठहरने के लिए स्थान दे उसे आकाश कहते हैं। वह आकाश स्पर्श रहित है, अमूर्तिक है, सब जगह व्याप्त है और क्रिया रहित है।।१३८।।
जिसका वर्तना लक्षण है उसे काल कहते हैं, वह वर्तना काल तथा काल से भिन्न जीव आदि पदार्थों के आश्रय रहती है और सब पदार्थों का जो अपने-अपने गुण तथा पर्यायरूप परिणमन होता है उसमें सहकारी कारण होती है।।१३९।। जिस प्रकार कुम्हार के चक्र के फिरने में उसके नीचे लगी हुई शिला कारण होती है उसी प्रकार कालद्रव्य भी सब पदार्थों के परिवर्तन में कारण होता है ऐसा विद्वान् लोगों ने निरूपण किया है। भावार्थ—कुम्हार का चक्र स्वयं घूमता है परन्तु नीचे रखी हुई शिला या कील के बिना वह घूम नहीं सकता इसी प्रकार समस्त पदार्थों में परिणमन स्वयमेव होता है परन्तु वह परिणमन कालद्रव्य की सहायता के बिना नहीं हो सकता इसलिए कालद्रव्य पदार्थों के परिणमन में सहकारी कारण है।।१४०।। (वह काल दो प्रकार का है—एक व्यवहार काल और दूसरा निश्चयकाल। घड़ी, घण्टा आदि को व्यवहारकाल कहते हैं और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान एक दूसरे से असंपृक्त होकर रहने वाले जो असंख्यात कालाणु हैं, उन्हें निश्चयकाल कहते हैं) व्यवहारकाल से ही निश्चयकाल का निर्णय होता है, क्योंकि मुख्य पदार्थ के रहते हुए ही बाल्हीक आदि गौण पदार्थों की प्रतीति होती है। भावार्थ—बाल्हीक एक देश का नाम है परन्तु उपचार से वहाँ के मनुष्यों को भी बाल्हीक कहते हैं। यहाँ बाल्हीक शब्द का मुख्य अर्थ देश विशेष है और गौण अर्थ है वहाँ पर रहने वाला सदाचार से पराङ्मुख मनुष्य। यदि देशविशेष अर्थ को बतलाने वाला बाल्हीक नाम का कोई मुख्य पदार्थ नहीं होता तो वहाँ रहने वाले मनुष्यों में भी बाह्लीक शब्द का व्यवहार नहीं होता इसी प्रकार यदि मुख्य कालद्रव्य नहीं होता तो व्यवहारकाल भी नहीं होता। हम लोग सूर्योदय और सूर्यास्त आदि के द्वारा दिन-रात, महीना आदि का ज्ञान प्राप्त कर व्यवहारकाल को समझ लेते हैं परन्तु अमूर्तिक निश्चयकाल के समझने में हमें कठिनाई होती है इसलिए आचार्यों ने व्यवहारकाल के द्वारा निश्चयकाल को समझने का आदेश दिया है क्योंकि पर्याय के द्वारा ही पर्यायी का बोध हुआ करता है।।१४१।।
वह निश्चयकाल लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित लोकप्रमाण (असंख्यात) अपने अणुओं से जाना जाता है और काल के वे अणु रत्नों की राशि के समान परस्पर में एक दूसरे से नहीं मिलते, सब जुदे-जुदे ही रहते हैं।।१४२।। परस्पर में प्रदेशों के नहीं मिलने से यह कालद्रव्य अकाय अर्थात् प्रदेशी कहलाता है। काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों के प्रदेश एक दूसरे से मिले हुए रहते हैंं इसलिए वे अस्तिकाय कहलाते हैं। भावार्थ—जिसमें बहुप्रदेश हों उसे अस्तिकाय कहते हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये द्रव्य बहुप्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय कहलाते हैं और कालद्रव्य एकप्रदेशी होने से अनस्तिकाय कहलाता है।।१४३।।
ध्ार्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ मूर्ति से रहित हैं, पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है। अब आगे उसके भेदों का वर्णन सुनो। भावार्थ—जीव द्रव्य भी अमूर्तिक है परन्तु यहाँ अजीव द्रव्यों का वर्णन चल रहा है इसलिए उसका निरूपण नहीं किया है। पाँच इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय के द्वारा जिसका स्पष्ट ज्ञान हो उसे मूर्तिक कहते हैं, पुद्गल को छोड़कर और किसी पदार्थ का इन्द्रियों के द्वारा स्पष्ट ज्ञान नहीं होता इसलिए पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है और शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं।।१४४।। जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पाया जाये उसे पुद्गल कहते हैं। पूरण और गलन रूप स्वभाव होने से पुद्गल यह नाम सार्थक है। भावार्थ—अन्य परमाणुओं का आकर मिल जाना पूरण कहलाता है और पहले के परमाणुओं का बिछुड़ जाना गलन कहलाता है, पुद्गल स्कन्धों में पूरण और गलन ये दोनों ही अवस्थाएँ होती रहती हैं इसलिए उनका पुद्गल स्कन्धों में पूरण और गलन ये दोनों ही अवस्थाएँ होती रहती हैं इसलिए उनका पुद्गल यह नाम सार्थक है।।१४५।।
स्कन्ध और परमाणु के भेद से पुद्गल की व्यवस्था दो प्रकार की होती है। स्निग्ध और रूक्ष अणुओं का जो समुदाय है उसे स्कन्ध कहते हैं।।१४६।। उस पुद्गल द्रव्य का विस्तार दो परमाणु वाले द्वयणुक स्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त परमाणु वाले महास्कन्ध तक होता है। छाया, आतप, अन्धकार, चाँदनी, मेघ आदि सब उसके भेद-प्रभेद हैं।।१४७।। परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, वे इन्द्रियों से नहीं जाने जाते। घट-पट आदि परमाणुओं के कार्य हैं उन्हीं से उनका अनुमान किया जाता है। उनमें कोई भी दो अविरुद्ध स्पर्श रहते हैं, एक वर्ण, एक गन्ध और एक रस रहता है। वे परमाणु गोल और नित्य होते हैं तथा पर्यायों की अपेक्षा अनित्य भी होते हैं।।१४८।। ऊपर कहे हुए पुद्गल द्रव्य के छह भेद हैं—१ सूक्ष्मसूक्ष्म, २ स्थूल, ३ सूक्ष्म स्थूल, ४ स्थूल सूक्ष्म, ५ स्थूल और ६ स्थूलस्थूल।।१४९।। इनमें से एक अर्थात् स्कन्ध से पृथक््â रहने वाला परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म है क्योंकि न तो वह देखा जा सकता है और न उसका स्पर्श ही किया जा सकता है। कर्मों के स्कन्ध सूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि वे अनन्त प्रदेशों के समुदायरूप होते हैं।।१५०।। शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध सूक्ष्मस्थूल कहलाते हैं, क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ज्ञान नहीं होता इसलिए ये सूक्ष्म हैं परन्तु अपनी-अपनी कर्ण आदि इन्द्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये सूक्ष्म हैं परन्तु अपनी-अपनी कर्ण आदि इन्द्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए ये स्थूल भी कहलाते हैं।।१५१।।
छाया, चाँदनी और आतप आदि स्थूलसूक्ष्म कहलाते हैं क्योंकि चक्षु इन्द्रिय के द्वारा दिखायी देने के कारण ये स्थूल हैं परन्तु इनके रूप का संहरण नहीं हो सकता इसलिए विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म भी हैं।।१५२।। पानी आदि तरल पदार्थ जो कि पृथक््â करने पर भी मिल जाते हैं, स्थूल भेद के उदाहरण हैं अर्थात् दूध, पानी आदि पतले पदार्थ स्थूल कहलाते हैं और पृथिवी आदि स्कन्ध जो कि भेद किये जाने पर न मिल सकें स्थूलस्थूल कहलाते हैं।।१५३।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का जो भव्य विपरीतता रहित श्रद्धान करता है वह परब्रह्म अवस्था को प्राप्त होता है।।१५४।। इस प्रकार ज्ञानवानों में अतिशय श्रेष्ठ भगवान् वृषभदेव भरत के लिए समस्त पदार्थों के संग्रह का निरूपण कर फिर भी संक्षेप से कुछ तत्त्वों का स्वरूप कहने लगे।।१५५।। उन्होंने आत्मा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ, मुनि तथा श्रावकों का मार्ग, स्वर्ग और मोक्षरूप मार्ग का फल, बन्ध और बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण, कर्मरूपी बन्धन से रहित मुक्त जीव आदि विषयों का निरूपण किया।।१५६।। इसी प्रकार तीनों लोकों का आकार, नरकों के पटल, द्वीप, समुद्र, ह्रद और कुलाचल आदि का भी स्वरूप भरत के लिए कहा।।१५७।। अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी के धारक भगवान् वृषभदेव ने त्रेसठ पटलों से युक्त स्वर्ग, देवों की आयु और उनके भोगों का विस्तार, मोक्षस्थान तथा लोकनाड़ी का भी वर्णन किया।।१५८।। जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने तीर्थंकर, चक्रवर्ती और अर्ध चक्रवर्तियों के पुराण, तीर्थंकरों के कल्याणक और उनके हेतुस्वरूप सोलहकारण भावनाओं का भी निरूपण किया।।१५९।। भगवान ने अमुक जीव मरकर कहाँ-कहाँ पैदा होता है ? अमुक जीव कहाँ-कहाँ से आकर पैदा हो सकता है ? जीवों की उत्पत्ति, विनाश, भोगसामग्री, विभूतियाँ अथवा मुनियों की ऋद्धियाँ तथा मनुष्यों के करने और न करने योग्य कार्य आदि सबका निरूपण किया था।।१६०।। सबको जानने वाले और सबका कल्याण करने वाले भगवान् वृषभदेव ने भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी सब द्रव्यों का सब स्वरूप भरत के लिए बतलाया था।।१६१।। इस प्रकार जगद्गुरु—परमगुरु भगवान् वृषभदेव से तत्त्वों का स्वरूप सुनकर भक्ति से भरे हुए महाराज भरत परम आनन्द को प्राप्त हुए।।१६२।। तदनन्तर परम आनन्द को धारण करते हुए भरत ने निष्फल अर्थात् शरीरानुराग से रहित भगवान् वृषभदेव से सम्यग्दर्शन की शुद्धि और अणुव्रतों की परम विशुद्धि को प्राप्त किया।।१६३।।