-आर्यिका सुदृढ़मती
तर्ज-झुमका गिरा रे…….
आरति करो रे, केवली प्रणीत श्री जिनधर्म की आरति करो।
तीर्थंकर के श्री विहार में, धर्म चक्र चलता आगे।
प्रभु प्रभाव से जीवों के, सब रोग, शोक दारिद भागे।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
रत्नत्रयमय इस धर्म तीर्थ की आरति करो रे।।१।।
श्री जिनेन्द्र का धर्म ही जग में, जैनधर्म कहलाता है।
जो भी इसकी शरण में आता, भव सागर तर जाता है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
इस आदि अंत से रहित धर्म की आरति करो रे।
नव देवों में एक देव, जिनधर्म को माना जाता है।
जो भी इसकी पूजन करता, मनवांछित फल पाता है।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
इस केवलि भगवन् कथित धर्म की आरति करो रे
‘‘सुदृढ़मती’’ इस धर्म का पालन, मुनि श्रावक दोनों करते।
सकल विकल चारित्र रूप, दो भेद कहे जिन आगम में।।
आरति करो, आरति करो, आरति करो रे,
उत्तम क्षमादि मय दश धर्मों की आरति करो रे।