सूर्पणखा नाम की एक स्त्री रोती हुई मंच पर प्रवेश करती है और सामने राम-लक्ष्मण को देखकर उनके रूप पर मोहित होकर कहती है — ओहो ! ये तो कोई देवपुरुष अथवा कामदेव दिख रहे हैं। इन्हें देखकर मैं तो धन्य हो गई। अब तो अपने ऊपर इन्हें मोहित करने हेतु कुछ मायाजाल बिछाना पड़ेगा।
स्त्री — लगता है सीधी उंगली से घी निकलने वाला नहीं, टेढी उंगली से ही निकालना पड़ेगा।
(रोती है…….) गाती है— चाल चली भई चाल चली, मैंने कैसी चाल चली । कभी रामजी निहारें, कभी लक्ष्मण प्यारे, सीता सी सती वनवास चली। चाल चली भई चाल चली……आवाज सुनकर सीता आगे आती है और एक कन्या को बैठी देखकर कहती है—
सीता — कन्ये! तुम इस घनघोर जंगल में क्यों बैठी रो रही हो ? क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आई हो ? सूर्पणखा को सीता अपने साथ में राम के समीप ले जाती है। वहाँ सूर्पणखा आकर पहले लक्ष्मण से कहती है—
सूर्पणखा — हे रूपसुन्दर ! मैं यहाँ अनाथ हूँ । मेरा यहाँ कोई भी नहीं है । मेरी माता मुझे छोड़कर स्वर्ग सिधार गई है । अब तो तुम्हीं मेरे नाथ हो, मुझे स्वीकार करो, मुझ कन्या पर दया करो।
लक्ष्मण — सुन्दरी! मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता । तुम तो मेरी बहन के समान हो । ऐसी बात मुझसे मत करो। वैसे भी आजकल तो मैं अपने भाई—भाभी के साथ वनवास में चल रहा हूँ अतः स्त्री को साथ रखने का कोई औचित्य भी नहीं है।
सूर्पणखा —नाथ! मैंने तो आपको अपना पति मान लिया है । अब आप चाहे ठुकराओ या स्वीकार करो। लक्ष्मण मौनपूर्वक बैठे हैं अतः वह राम से कहने लगती है— हे राम ! तुम्हीं मुझे अपनी पत्नी बना लो। अब मैं कहाँ जाऊँ ? यदि इस जंगल में कोई शेर या अजगर आकर मुझे खा लेगा तब तुम्हें भी तो पाप लगेगा। जैसे तुम्हारे साथ यह (सीता) स्त्री है वैसे ही मैं भी रह लूँगी। उसकी अश्लील बातें सुनकर सभी मौन हो जाते हैं— सूर्पणखा पुन: जोर-जोर से रोने लगती है और कहती है — अरे माँ ! तुम मुझे छोड़कर कहाँ चली गईं ? ओह ! अब मैं कहाँ जाऊँ ? नहीं-नहीं…… मुझे तो अब ये राजकुमार मिल गए हैं, मैं इन्हीं के साथ जंगल में भी स्वर्ग सुखों का अनुभव करूँगी। पुन:कुछ दूर जाकर जोर से हँसती है— हः हः हः । मेरा जादू चल गया ( गाती है ……..) चाल चली भई चाल चली ………...
राम — पुत्री ! हम दोनों भाई तुम्हें स्वीकार करने में असमर्थ हैं। तुम अपने पिता का नाम बता दो । हम तुम्हें वहीं पहुँचा देगें। बेटी! तुम्हें दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं है। सूर्पणखा बार-बार लक्ष्मण के पास जाकर प्रेमालाप करती है—
सूर्पणखा — हे देव! आपके सामने अब मेरे लिए राजसुख भी बेकार जान पड़ रहा है। मैं आपके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती । सुनो! मेरे साथ कुछ दिन रहकर तो देखो, तुम्हें बड़ा आनन्द आएगा।
लक्ष्मण — (गुस्से में) जाती है यहाँ से या नहीं ? तू तो कोई कुल्टा स्त्री जान पड़ती है। धिक्कार है तेरी माया को! सुना तो बहुत है तिरिया चरित्रं पुरुषत्य भाग्यं। लेकिन आज तुझमें माया की साकार मूर्ति दिख रही है। शर्म नहीं आती तुझे परपुरुष से ऐसा प्रेमालाप करते हुए ?
सूर्पणखा — (क्रोधित होकर) ओह! तुमने तो मेरी नाक ही काट दी। ध्यान रखना, मैं तुम लोगों को इस अपमान का बदला अवश्य चखाऊँगी। पुनः सूर्पणखा चली जाती है (गाती हुई)— नहीं चली भई, नहीं चली, मेरी माया नहीं चली । नहिं राम मुझे चाहें, नहिं लखन भि चाहे,इनसे नहिं मेरी दाल गली। नहीं चली भई नहीं चली मेरी माया नहीं चली।
सभा को सम्बोधन— महानुभावों एवं मेरी बहनों ! सूर्पणखा मायाचारी के द्वारा राम लक्ष्मण को अपना पति बनाना चाहती थी। वह रावण की बहन और खरदूषण की पत्नी थी किन्तु राम लक्ष्मण के रूप पर मोहित होकर अपनी विद्या से कन्या का रूप धारण कर मायाजाल रचा था इसीलिए उसे लक्ष्मण द्वारा अपमानित होना पड़ा। आज भी संसार में यह प्रचलित है कि लक्ष्मण ने सूर्पणखा की नाक काटी थी सो उसका अपमान ही नाक काटना था । महापुरुष किसी स्त्री की शस्त्र द्वारा नाक नहीं काटते हैं उसे तो अपनी मायाचारी तथा चरित्रहीनता का फल मिला था अत: मेरा तो आपसे यही कहना है कि मायाचारी कभी भी नहीं करनी चाहिए।