(चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज की प्रेरणा से
ब्र. सुमतिबाई शाह द्वारा षट्खण्डागम ग्रंथ के सभी सूत्रों के अनुवाद ग्रंथ में प्राक््कथन)
लगभग ११-१२ वर्ष हुए होंगे जब मैं श्री १०८ परमपूज्य आचार्य शांतिसागरजी महाराज के दर्शनार्थ बारामती गई थी तब उनके साथ जो तत्त्वचर्चा हुई उसके प्रसंग में उन्होंने मुझे हिन्दी अनुवाद के साथ षट्खण्डागम के मूल सूत्र मात्र को सम्पादित कर उसे आचार्य शान्तिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था से प्रकाशित कराने की आज्ञा दी थी। उस समय मैंने ग्रंथ की गम्भीरता और अपनी अल्पज्ञता को देखकर उनसे प्रार्थना की थी कि महाराज यह महान् कार्य मेरे द्वारा सम्पन्न हो सकेगा, इसमें मुझे सन्देह है। इस पर महाराज ने दृढ़तापूर्वक यह कहा कि इसमें सन्देह करने का कुछ काम नहीं है, आचार्य वीरसेन स्वामी की धवला टीका तथा हिन्दी अनुवाद के साथ उसका बहुत-सा भाग अमरावती से प्रकाशित हो चुका है उसकी सहायता से यह कार्य सरलतापूर्वक किया जा सकता है। तब मैंने यह कहते हुए उसे स्वीकार कर लिया था कि महाराज, मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती, पर जब आपका वैसा आदेश है तो मैं उसे स्वीकार करती हूँ। फिर भी यह निश्चित है कि इस गुरुतर कार्य के सम्पन्न होने में आपका आशीर्वाद ही काम करेगा।
तत्पश्चात् मैंने उसे प्रारम्भ किया और यह काम निर्दोष और अच्छी तरह से होने के लिए और संशोधन करने के लिये किसी सुयोग्य विद्वान् की खोज में थी। इस बीच सोलापुर में श्री ब्र. जीवराज गौतमचन्द जी दोशी के द्वारा स्थापित जैन संस्कृति-संरक्षक संघ में श्री पं. बालचन्द्रजी शास्त्री की नियुक्ति हुई और वे यहाँ आ भी गये। उनका अमरावती से प्रकाशित षट्खण्डागम के सम्पादन में महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। अत: मैंने उनसे मिलकर इस कार्य के सम्पादन करा देने बाबत निवेदन किया, जिसे उन्होंने न केवल सहर्ष स्वीकार ही किया, बल्कि यथावकाश उसके लिये सक्रिय सहयोग भी देना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार कार्य प्रगति के पथ पर चलने लगा। अन्त में मुद्रण के योग्य हो जाने पर प्रेस में भी दे दिया गया। इस प्रकार मुद्रण कार्य के समाप्त हो जाने पर उसे आज स्वाध्याय प्रेमियों के हाथों में अर्पित करती हुई मैं एक अभूतपूर्व प्रसन्नता का अनुभव करती हूँ व उसे प्रात: स्मरणीय पूज्य आ. शान्तिसागर जी महाराज के उस आशीर्वाद का ही फल मानती हूँ, जिसके प्रभाव से मुझे प्रस्तुत कार्य की पूर्ति के लिये उत्तरोत्तर अनुकूल साधन-सामग्री प्राप्त होती गई।
इस कार्य की पूर्ति का पूरा श्रेय मेरे गुरुतुल्य पं. बालचन्द्र जी शास्त्रीजी को है। यदि उनका ग्रंथ के सम्पादन कार्य में सक्रिय सहयोग न मिला होता तो मेरे द्वारा उसका सम्पादन यदि असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य तो अवश्य था, यह मैं नि:संकोच कह सकती हूँ। इसके लिये मैं उनका हृदय से अभिनन्दन करती हूँ।
दूसरे विद्वान् साढूमर (झाँसी) निवासी श्री पं. हीरालाल जी सिद्धान्त- शास्त्री हैं, जिनको मैं नहीं भूल सकती हूँ। आपने सोलापुर आकर प्रस्तुत ग्रंथ की प्रस्तावना में समाविष्ट करने के लिये ‘महाबन्ध का विषय-परिचय’ शीर्षक लिख दिया तथा साथ ही उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, गोम्मटसार, कर्मप्रकृति और जीवसमास जैसे ग्रंथों के साथ प्रकृत ग्रंथ की तुलना करके जो निबन्ध लिखकर दिया है उसे भी भविष्य में संशोधन कार्य के लिये उपयोगी समझ प्रस्तावना में गर्भित कर लिया है। इसके अतिरिक्त कुछ परिशिष्टों के तैयार करने में भी आपका सहयोग रहा है। इसके लिये मैं आपकी बहुत कृतज्ञ हूँ।ग्रंथ के सम्पादन कार्य में अमरावती से १६ भागों में प्रकाशित धवला टीका युक्त षट्खण्डागम का पर्याप्त उपयोग किया गया है। इसके लिये मैं उक्त ग्रंथ की प्रकाशक संस्था और सम्पादकों की अतिशय ऋणी हूँ।
आचार्य शांतिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था फलटण की प्रबन्धसमिति का, जिसने प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन की व्यवस्था करके मुझे अनुगृहीत किया है, मैं अतिशय आभार मानती हूँ। साथ ही ग्रंथ के प्रकाशन कार्य के लिये श्री सेठ हीराचन्द तिलकचंद शहा डोरलेवाडीकर ने जो ४००१ की आर्थिक सहायता की है वह भी विस्तृत नहीं की जा सकती है।अन्त में वर्धमान मुद्रणालय के मालिक श्री प्रकाशचन्द्र फूलचंद शाह को भी मैं धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकती हूँ, जिन्होंने ग्रंथ के मुद्रण कार्य में यथासम्भव तत्परता दिखलायी है।खेद इस बात का है कि जिन आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के शुभ आशीर्वाद से यह गुरुतर कार्य सम्पन्न हुआ है वे आज यहाँ नहीं है। फिर भी उनकी स्वर्गीय आत्मा इस कृति से अवश्य सन्तुष्ट होगी।
सुमतिबाई
श्राविकाश्रम, सोलापुर
महावीर-जयन्ती
वीर नि. सं. २४९०
ईस्वी सन् १९६४
(षट्खण्डागम ग्रंथ की प्रस्तावना से उद्धृत)
नोट—जो कहते हैं कि आर्यिकायें धवला आदि ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं कर सकती, ग्रंथों का लेखन नहीं कर सकती हैं। उनके लिए ‘चारित्रचक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज’’ की आज्ञा का यह प्रमाण है।