लेखिका-गणिनी ज्ञानमती
स्वयंसिद्ध जैनधर्म अनादिनिधन है, इसको किसी ने स्थापित नहीं किया है। अनंतानंत काल व्यतीत हो चुका है और आगे भी अनंतानंत प्रमाण काल आवेगा तथा जो वर्तमान काल चल रहा है इन तीनों कालों में और तीनों लोकों में यह प्राणीमात्र का हित करने वाला है अतएव यह सार्वधर्म भी कहलाता है। अर्थात् ‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’ जो कर्म शत्रुओं को जीतते हैं वे ‘जिन’ कहलाते हैं और ‘जिनो देवता अस्येति जैन:’ जिन देवता हैं जिसके वह जैन कहलाता है। तथा ‘सर्वेभ्यो हितं सार्व:’ इस निरूक्ति के अनुसार यह सबका हित करने वाला होने से ही सार्वधर्म है।
वैराग्य भावना–इस जैन सिद्धान्त के अनुसार जब किसी भी बालिका१, सौभाग्यवती महिला या विधवा को संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य हो जाता है तब वह विचार करती है कि यह संसार अनादि निधन है। इसमें अनादिकाल से प्रत्येक जीवात्मा के साथ कर्म का संबंध हो रहा है। उस कर्मोदय के निमित्त से प्रत्येक जीव कभी एकेन्द्रियपर्याय में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि शरीरों को धारण करता है। कभी दो इंद्रिय आदि में लट, चिंवटी, मक्खी, पशु-पक्षी आदि योनियों में चला जाता है, तो कभी मनुष्य पर्याय, स्त्री, पुरुष या नपुंसक अवस्था को प्राप्त कर लेता है अथवा कदाचित् देवगति में जाकर देवों के या देवांगनाओं के सुन्दर शरीर को प्राप्त कर सुखों का भी अनुभव करता है किंतु फिर भी वहाँ से च्युत होकर संसार में भटकता रहता है। जब कोई जीव पुरुषार्थ के बल से कर्मों का नाश कर देता है तब वही पूर्व का संसारी आत्मा मुक्त होकर सिद्ध परमात्मा बन जाता है। जैन मत के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बनने की शक्ति से सहित है।
मेरी आत्मा स्त्री नहीं है न मनुष्य ही है किन्तु चैतन्यस्वरूप है यद्यपि यह व्यवहार नय से स्त्री- पर्याय को धारण किये है फिर भी निश्चयनय से मेरी आत्मा सिद्धों के सदृश शुद्ध है। अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य से संयुक्त है अर्थात् शक्तिरूप से ये अनंतचतुष्टय मेरे में विद्यमान हैं। जैसे बीज में अंकुर की शक्ति है, दूध में घी शक्तिरूप में विद्यमान है वैसे ही इस देहरूपी देवालय में भगवान आत्मा शक्तिरूप से विराजमान है। यह शरीर महान् अपवित्र विनाशीक है, पुद्गल से रचा गया है। मेरी आत्मा अशरीरी, पवित्र और शाश्वत है। एक शरीर के छूटने के बाद द्वितीय शरीर को ग्रहण कर लेता है किन्तु मरता नहीं है।
इस प्रकार से चिंतवन करते हुये उसके मन में सहसा आत्मा को शरीर से पृथक् करने के लिये पुरुषार्थ करने का भाव उमड़ आता है। तब वह महिला अपने माता-पिता अथवा पति, पुत्रादि कुटुंबियों से आज्ञा मांगती है और अब तक के हुये छोटे या बड़े अपराधों की क्षमा कराती है तथा स्वयं भी क्षमा करती है। यदि अज्ञानी या मोही कुटुंबीजन आज्ञा नहीं देते हैं तो भी यदि वह दृढ़प्रतिज्ञ है तो दीक्षा लेने के लिये गुरू के पास जाकर उनके चरणों का आश्रय ग्रहण करती है।वास्तव में संसार में अनंतानंत काल तक भ्रमण करते हुये इस जीव ने किसको तो अपना माता-पिता नहीं बनाया है या किसको कौन सा संबंधी नहीं बनाया है अथवा किनके साथ कौन सा संबंध प्राप्त नहीं किया है अर्थात् सभी के साथ सभी कुछ संबंध हो चुके हैं। इस जीव ने भव-भव में इतने माता-पिता पुत्रादिकों को रोते हुये छोड़े हैं और स्वयं भी इतनों के लिये रोया है कि यदि वह अश्रुजल इकट्ठा किया जावे तो लवण-समुद्र से भी अधिक हो जावे।
दीक्षा-ऐसा विचार करते हुये वह वैराग्यशील महिला किसी के प्रति मोह न रखते हुये आचार्य संघ में प्रवेश करती है। संघ में जो प्रमुख-गणिनी आर्यिका हैं उनके शासन में अपने को समर्पित करके उनसे प्रार्थना करती है कि हे मात:! अब आप मुझे हस्तावलंबन देकर मेरी आत्मा का कल्याण कीजिये।ऐसा इसलिये है कि गणिनी की जिम्मेदारी के बिना आचार्य देव स्त्रियों को दीक्षा नहीं प्रदान कर सकते हैं क्योंकि स्त्रियों की सुरक्षा स्त्रियों पर ही निर्भर है। वे आचार्य भी प्रौढ़ उम्र के धारक, गंभीर, महामना, सर्वशास्त्र में निपुण और शास्त्र की मर्यादा के सच्चे प्रतिपालक होते हैं।
जब गणिनी आर्यिका उस नववैराग्यशालिनी महिला को कुछ दिन अपने पास में रखकर उसके मन की दृढ़ता को, शारीरिक क्षमता को और उसमें आर्यिका दीक्षा की योग्यता को देख लेती हैं तब वे स्वयं उसको साथ लेकर आचार्यश्री के पास जाकर निवेदन करती हैं कि हे भगवन्! यह भव्य आत्मा संसार समुद्र से पार होने के लिये जहाज के समान ऐसी दीक्षा को चाहती है अत: आप इसे दीक्षा देकर अनुगृहीत करें। भविष्य में मैं इसका संरक्षण करूंगी और विद्या-शिक्षा में निपुण करके स्वपर कल्याण करने में कुशल बना दूंगी।अनंतर आचार्य महाराज शुभ मुहूर्त में दीक्षा देने की घोषणा कर देते हैं। तब भाक्तिक धर्म- स्नेही श्रावक या उस दीक्षार्थी के कुटुंबीजन कुछ दिन पूर्व से ही धर्म उत्सव प्रारंभ कर देते हैं। जिसमें जिनमंदिर में सिद्धचक्र विधान, चारित्रशुद्धि, रत्नत्रय या गणधरवलय विधान की पूजा कराई जाती है जिसमें वह दीक्षार्थिनी भी भाग लेती है अथवा यदि वह पूर्व में संपन्न परिवार की है तो स्वयं अपने द्रव्य से पूजन विधान करती है।
इससे पूर्व यदि तीर्थ यात्राओं की इच्छा है तो तीर्थ यात्रा कर लेती है पुन: उत्तम आदि पात्रों को इच्छानुसार और शक्ति के अनुसार चतुर्विध दान देकर अपने मन को पवित्र बना लेती है।
कहीं-कहीं श्रावक लोग दीक्षार्थिनी की शोभायात्रा निकालकर शहर में धर्म की प्रभावना करते हुये यह प्रगट कर देते हैं, कि यह बहन अमुक दिन साध्वी के पद पर आरोहण करने वाली हैं पुन: कोई एक श्रावक दीक्षा दिलाने के लिये निश्चित किये जाते हैं वे सपत्नीक विधान आदि उत्सवों में भाग लेते हुये अपनी धार्मिक भावना व्यक्त करते हैं।दीक्षा के शुभमुहूर्त के अवसर पर विशाल सभामंडप में सौभाग्यवती महिलायें दीक्षार्थिनी को मंगल स्नान कराकर गणिनी को आगे करके उत्सव के साथ सभा मंडप में लाती हैं। वहां पर सौभाग्यवती महिलायें तंदुल का चौक पूरकर उस पर पीले तंदुल से स्वस्तिक बनाकर उस पर नूतन, श्वेत शुचिवस्त्र को बिछा देती हैं।दीक्षार्थिनी महिला वहीं पर सभा मंडप में विराजमान देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान की पूजादि करके हाथ में श्रीफल लेकर आचार्यश्री से दीक्षा ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करती हैं कि हे भगवन्! इस संसार के परिभ्रमण से अब मेरा जी ऊब चुका है, अब मुझे चारित्ररूपी जहाज पर बिठाकर आप कर्णधार होइये।उस समय आचार्य महाराज पहले उस दीक्षार्थी से कहते हैं कि तुम्हें संघ की मर्यादा में और गणिनी के अनुशासन में रहना होगा, एकाकिनी विहार नहीं करना होगा इत्यादि। जब वह दीक्षार्थिनी महिला सभी बातों को स्वीकार कर लेती है तब आचार्य महोदय अपने संघस्थ साधु-साध्वी वर्गों से, उनके कुटुंबियों से और वहां पर उपस्थित सभी श्रावक-श्राविकाओं से पूछते हैं कि क्या इसे दीक्षा दी जावे? तब सभी साधुवर्ग भी धर्म वृद्धि से हर्षितमना होते हुये सहर्ष स्वीकृति देते हैं और श्रावकगण व दीक्षार्थिनी के कुटुंबीवर्ग भी दु:खमिश्रित हर्षपूर्वक जय-जयकार की ध्वनि से सभा को गुंजायमान करते हुये स्वीकृति देते हैं।
बस फिर क्या है, गणिनी उस दीक्षार्थी महिला को मंगल चौक पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बिठा देती हैं और आप भी वहीं पर बैठकर अन्य साध्वियों की सहायता से सबसे प्रथम उसका केशलोंच प्रारंभ कर देती हैं।
अनंतर ‘क्रियाकलाप, में मुद्रित बृहद्दीक्षा विधि के द्वारा आचार्य महाराज उसका संस्कार करते हैं अथवा आचार्य की आज्ञा से प्रमुख आर्यिका संस्कार करती हैं, उसके मस्तक पर बीजाक्षर लिखकर पीले तंदुल और लवंग से उसके मस्तक पर मंत्रों का आरोपण करती हैं। उसके हाथ में बीजाक्षर लिखकर तथा दोनों हाथों की अंजुली में तंदुल भरकर उसमें श्रीफल आदि द्रव्य रखकर पुन: उन्हें अट्ठाईस मूलगुण प्रदान करती हैं।पुन: गुर्वावली को पढ़कर नामकरण करके मंत्रों द्वारा ही संयम के उपकरणरूप मयूर पंख की पिच्छिका, शौच के लिये उपकरणस्वरूप काष्ठ या नारियल का कमंडलु और ज्ञान के लिए उपकरण-स्वरूप शास्त्र देती हैं। शिष्या भी विनयपूर्वक दोनों हाथों से पिच्छिका को, बायें हाथ से कमंडलु को और दोनों हाथों से शास्त्र को ग्रहण करती हैं।
पुन: नवदीक्षिता साध्वी गुरूभक्ति से गुरू को नमोस्तु करके अन्य मुनियों को नमोस्तु एवं अपनी गणिनी आर्यिका आदि सभी आर्यिकाओं को ‘वंदामि’ करके बैठ जाती है। जब तक व्रतारोपण विधि नहीं होती है, तब तक सभी आर्यिकायें प्रतिवंदना नहीं करती हैंं।सभी प्रमुख श्रावकगण श्रीफल आदि चढ़ाकर उस नवदीक्षिता को नमस्कार करते हैं। आचार्य महोदय अथवा अन्य मुनि या आर्यिकायें सभा में उपदेश के द्वारा दीक्षा के महत्त्व को और व्रतों के महत्त्व को समझाते हुये दर्शकों के मन को कुछ क्षण के लिये वैराग्य से ओत-प्रोत कर देते हैं। इस प्रकार यह वैराग्यपूर्ण दृश्य सभी दर्शकों के मन में वैराग्य की लहर दौड़ा देता है। अनन्तर उसी पक्ष में या द्वितीय पक्ष में व्रतारोपण विधि करने के लिये रत्नत्रय की पूजा कराके पाक्षिक प्रतिक्रमण पढ़कर पूर्ववत् व्रतों को दिया जाता है और उसके साथ कोई एक पल्यविधान, कर्मदहन आदि व्रत देते हैं। दातार जनों को भी कुछ न कुछ व्रतादि देते हैं। अनंतर बड़ी आर्यिकायें प्रतिवंदना विधि करती हैं।दीक्षा के दिन दीक्षार्थी महिला का उपवास रहता है। द्वितीय दिवस गुरुओं के आहार के लिये निकल जाने के बाद गणिनी आदि मुख्य आर्यिकाओं के पीछे वह आहार के लिये श्रावकों के यहाँ जाती है। वहाँ पर श्रावक विधिवत् पड़गाहन करके नवधाभक्ति से आहार दान देकर अपना जन्म सफल समझते हैं। अब इनके अट्ठाईस मूलगुण, दैनिक चर्या और विहार आदि व्यवस्थायें तथा इनके निषिद्ध कार्यों का क्रम से वर्णन किया जावेगा।
अट्ठाईस मूलगुण-मुनियों के प्रधान आचरण को मूलगुण कहते हैं। मूल शब्द के अनेक अर्थ होते हैं फिर भी यहां मूल का प्रधान या मुख्य ऐसा अर्थ लेना चाहिये। गुण शब्द से भी यहां पर आचरण विशेष अर्थ लेना है। ये मूलगुण इस लोक और परलोक में हितकर हैं। इस लोक में सर्वजन मान्यता, गुरूपना, सर्वजनों के साथ मैत्रीभाव आदि गुण होते हैं और परलोक में देवों का ऐश्वर्य, तीर्थंकर पद, चक्रवर्ती पद आदि प्राप्त होते हैं।मूलगुण अट्ठाईस होते हैं-पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिरोध, षट् आवश्यक क्रिया तथा लोच, आचेलक्य, स्नान का त्याग, क्षितिशयन, दंतधावनत्याग, स्थिति भोजन और एक भक्त। मूलगुणों की वृद्धि करने वाले उत्तर गुण कहलाते हैं। ये उत्तर गुण चौंतीस हैं-बारह तप और बाईस परीषहजय।मूलव्रतों को महाव्रत कहते हैं। महान् का अर्थ है प्रधान और व्रत अर्थात् हिंसादि पापों का त्याग करना। तीर्थंकरादि महापु!षों द्वारा पाले जाने से अथवा जो स्वत: मोक्ष प्राप्ति करने में हेतु होने से महान् हैं ऐसे व्रतों को महाव्रत कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इनका पूर्णतया त्याग करने से पाँच महाव्रत हो जाते हैं।
१. अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह काय हैं, इन छह कायिक जीवों की हिंसा का मन-वचन-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत वाले संपूर्ण आरंभ और परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि होते हैं और एक साड़ी मात्र परिग्रह वाली आर्यिकायें होती हैं।
२.सत्य महाव्रत-राग, द्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से भरे हुये असत्य वचनों का त्याग करना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात होता है सो सत्य महाव्रत है।
३.अचौर्य महाव्रत-ग्राम, शहर, आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के दिये बिना योग्य वस्तु को भी नहीं लेना अचौर्य महाव्रत है।
४.ब्रह्मचर्य महाव्रत-रागभाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना, बालिका, युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना त्रैलोक्यपूज्य ब्रह्मचर्य व्रत है।
५.परिग्रहत्याग महाव्रत-धन-धान्य आदि दश प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्व, वेद आदि चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग करना, वस्त्राभूषण, अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना, यहाँ तक कि लंगोटीमात्र भी नहीं रखना अपरिग्रह महाव्रत है। आर्यिकाओं के लिये दो साड़ी रखने का विधान है।आगम में कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। इसके भी पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।
१. ईर्यासमिति-निर्जंतुक मार्ग से सूर्योदय होने पर चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्त करके तीर्थयात्रा, गुरूवंदना आदि धर्मकार्यों के लिये गमन करना ईर्यासमिति है।
२.भाषासमिति-चुगली, हंसी, कर्कश, पर-निंदा आदि से रहित हित, मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है।
३.एषणासमिति-छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नव कोटि से शुद्ध, श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक, निर्दोष पवित्र आहार लेना एषणासमिति है।
४.आदाननिक्षेपण समिति-पुस्तक, कमंडलु आदि को रखते या उठाते समय कोमल मयूर पंख की पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना, उठाना, तृण-घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना, आदाननिक्षेपण समिति है।
५.उत्सर्ग समिति-हरी घास, चिंवटी आदि जीव जंतु से रहित प्रासुक, ऐसे एकांत स्थान में मल-मूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति है।
स्पर्शन, रसना आदि पांचों इन्द्रियों को वश में रखना, इनको शुभ ध्यान में लगा देना पंचेंद्रिय निरोध होता है। इसके भी पांच इन्द्रियों की अपेक्षा से पांच भेद होते हैं।
१. स्पर्शन इन्द्रिय निरोध-सुखदायक, कोमल स्पर्शादि में या कठोर कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनंद या खेद नहीं करना।
२. रसनेंद्रिय निरोध-सरस-मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन में हर्ष-विषाद नहीं करना।
३. घ्राणेंद्रिय निरोध-सुगंधित पदार्थ में या दुर्गन्धित वस्तु में राग-द्वेष नहीं करना।
४. चक्षु इंद्रिय निरोध-स्त्रियों के सुंदर रूप या विकृत वेष आदि में राग भाव नहीं करना और द्वेष भाव भी नहीं करना।
५. कर्णेन्द्रिय निरोध-सुंदर-सुंदर गीत, वाद्य तथा असुंदर-निंदा, गाली आदि के वचनों में हर्ष-विषाद नहीं करना। यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो तो उसे राग भाव से नहीं सुनना।
जो अवश-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है वह आवश्यक कहलाता है। उसके छह भेद है-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
१. समता-जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख आदि में हर्ष-विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसी का नाम सामायिक है। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिक व्रत है। प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त-४८ मिनट तक सामायिक करना होता है।
२.स्तुति-ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तुति नाम का आवश्यक है।
३.वंदना-अरिहंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमा को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
४. प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतिचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके भी सात भेद हैं-ऐर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ।गमनागमन से हुए दोषों को दूर करने के लिए ‘‘पडिक्कमामि भंते! इरियावहियाए विराहणाए’’ इत्यादि दण्डकों का उच्चारण करके कायोत्सर्ग करना ऐर्यापथिक है। दिवस संबंधी दोषों को दूर करने के लिए सायंकाल में ‘जीवे प्रमादजनिता’ इत्यादि पाठ करना दैवसिक, रात्रि संबंधी दोषों के निराकरण हेतु रात्रि के अंत में प्रतिक्रमण करना रात्रिक, प्रत्येक मास की चतुर्दशी या पूर्णिमा या अमावस्या को करना पाक्षिक, कार्तिक और फाल्गुन मास के अंत में करना चातुर्मासिक, अाषाढ़ की अंतिम चतुर्दशी या पूर्णिमा को करना सांवत्सरिक तथा मरण काल में करना उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
५. प्रत्याख्यान-मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनंतर गुरू के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता हैै, वह प्रत्याख्यान कहलाता है।
६. कायोत्सर्ग-दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर से उत्सर्ग-ममत्त्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
यहां तक इक्कीस मूलगुण हुए हैं अब शेष सात को भी स्पष्ट करते हैं–
१. लोच-अपने हाथ से अपने शिर, दाढ़ी और मूंछ के बाल उखाड़ना केशलोंच मूलगुण है। केश में जूं आदि जीव पड़ जाने से हिंसा होगी या उन्हें संस्कारित करने के लिए तेल, साबुन आदि की जरूरत होगी जो कि साधु पद के विरूद्ध होगा। अत: दीनता, याचना, परिग्रह, अपमान आदि दोषों से बचने के लिए यह क्रिया है। लोंच के दिन उपवास करना होता है और लोंच करते या कराते समय मौन रखना होता है। इसके उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं-दो महीने पूर्ण होने पर उत्तम, तीन महीने में मध्यम और चार महीने पूर्ण होने पर जघन्य केशलोंच कहलाता है। चार महीने के ऊपर हो जाने पर साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
२.अचेलकत्व-सूती, रेशमी आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेष धारण करना अचेलकत्व है। यह महापुरुषों द्वारा ही स्वीकार किया जाता है, तीनों जगत् में वंदनीय महान पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं अत: निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है।
३.अस्नानव्रत-स्नान, उबटन आदि से शरीर के संस्कारों का त्याग करना, अस्नान व्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को धो डालते हैं। चांडालादि अस्पृश्यजन, हड्डी, चर्म, विष्ठा आदि का स्पर्श हो जाने से वे मुनि दंडस्नान करके गुरू से प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं।
४ .भूमिशयन-निर्जंतुक भूमि में, घास या पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमिशयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से थककर स्वल्प निद्रा लेना होता है।
५. अदंतधावन-नीम की लकड़ी, ब्रुश आदि से दांतौन नहीं करना। दांतों को नहीं घिसने से इंद्रियसंयम होता है, शरीर से विरागता प्रगट होती है और सर्वज्ञदेव की आज्ञा का पालन होता है।
६. स्थिति भोजन-खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजुलि बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थिति-भोजन हैै।
७.एकभक्त-सूर्योदय के अनंतर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल के सिवाय कभी भी एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त है। आजकल प्राय: नौ बजे से ग्यारह बजे तक साधुजन आहार को जाते हैं। कदाचित् एक बजे से भी जा सकते हैं। दिन में एक बार ही आहार को निकलना चाहिए। कदाचित् लाभ न मिलने पर उस दिन पुन: आहारार्थ नहीं जाना चाहिए।
इस प्रकार जो साधु इन मूलगुणों का पालन करते हैं वे जगत् में पूज्य होते हुए क्रम से मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। आर्यिकाओं को भी इन्हीं मूलगुणों का पालन करना होता है।
समाचार विधि-सं-सम्यक् निरतिचार मूलगुणों का आचार-आचरण समाचार है अथवा सभी साधुओं के साथ समान आचार समाचार कहलाता है। इसके दो भेद हैं-औघिक और पदविभागिक। सामान्य आचार को औघिक समाचार कहते हैं। इसके दस भेद हैं तथा सूर्योदय से लेकर अहोरात्र तक मुनियों का जितना भी आचार है, वह पदविभागी है, उसके अनेक भेद हैं।
औघिक समाचार के दश भेद-
१. इच्छाकार-सम्यग्दर्शनादि इष्ट को हर्ष से स्वीकार करना।
२. मिथ्याकार-व्रतादि में अतिचारों के होने पर ‘मेरा दुष्कृत मिथ्या हो’ कहना और उनसे हटना।
३. तथाकार-गुरू से सूत्रार्थ सुनकर ‘यही ठीक है’ ऐसा अनुराग व्यक्त करना तथाकार है।
४. आसिका-जिनमंदिर, वसतिका आदि से निकलते समय ‘असही’ शब्द से वहां के व्यंतर आदि से पूछकर जाना।
५. निषेधिका-जिनमंदिर, वसतिका आदि में प्रवेश के समय ‘निसही’ शब्द से वहां के व्यंतरादि से पूछकर प्रवेश करना।
६. आपृच्छा-गुरू आदि से वंदनापूर्वक प्रश्न करना।
७. प्रतिपृच्छा-कोई बड़े कार्य के समय गुरू, आचार्य आदि को बार-बार पूछना।
८. छंदन-उपकरण आदि ग्रहण करने में या वंदना आदि क्रियाओं में गुरूओं के अनुकूल प्रवृत्ति करना।
९. निमंत्रणा-गुरूओं से विनयपूर्वक पुस्तकादिकों की याचना करना।
१०. उपसंपत्-गुरू के चरणमूल में अपने को समर्पण करना, गुरू के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना।
पदविभागी-कदाचित् अपने गुरू से शास्त्रज्ञान ग्रहणकर विशेष सूत्राध्ययन की इच्छा से बार-बार गुरू से पूछकर योग्य संघ में अध्ययन हेतु जाना। उस समय कम से कम दो साधु मिलकर ही जाना। एकाकी विहार नहीं करना।
अन्य संघ के आगंतुक साधुओं का अन्य संघ के साधुगण बहुत विनय वैयावृत्ति आदि करते हैं। परस्पर में तीन दिन तक परीक्षा वगैरह करके उनकी पूरी व्यवस्था करके आत्मीयता प्रदान करना आदि पदविभागी समाचार कहलाता है।
पाँच आधार-आचार्य-दीक्षादिदायक, उपाध्याय-अध्यापक मुनि, प्रवर्तक-सभी साधुओें को चर्यादि में प्रवृत्ति कराने वाले, स्थविर-बाल वृद्धादि मुनि को सर्वज्ञाज्ञानुकूल उपदेश देने वाले, गणधर-सर्व संघ का पालन करने वाले, ऐसे पांच आधार जिस संघ में रहते हैं, वही संघ रहने के लिए योग्य२ है। ऐसे ही आर्यिकाओं में भी व्यवस्था होती है।
आर्यिका की सभी चर्या मुनि के सदृश ही है-‘‘मूलगुणों३ के अनुरूप आचरण को समाचार कहते हैं। अर्थात् मुनि के समाचार का इससे पूर्व में जैसा वर्णन किया है, वैसा ही आर्यिका के समाचार का भी वर्णन समझना चाहिए अर्थात् दिवस और रात्रिसंबंधी सभी क्रियायें मुनियों के सदृश ही हैं। अंतर इतना ही है कि वृक्षमूल योग, आतापन योग, अभ्रावकाश योग ऐसे योगादिक४ आचरण का आर्यिकाओं के लिए निषेध है, क्योंकि वह उनकी आत्मशक्ति के बाहर है।’’आचारसार में भी कहा है-‘‘जिस५ प्रकार यह समाचार नीति मुनियों के लिए बतलाई गई है, उसी प्रकार लज्जादि गुणों से विभूषित आर्यिकाओं को भी इन्हीं समस्त समाचार नीतियों का पालन करना चाहिए।’’
तथा प्रायश्चित ग्रन्थ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायश्चित्त का विधान है तथा क्षुल्लकादि को उनसे आधा इत्यादिरूप से है। जैसे-
‘‘जैसा प्रायश्चित्त साधुओं६ के लिए कहा गया है वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है विशेष इतना है कि दिनप्रतिमा, त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा ग्रन्थांतरों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षाच्छेद) मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हंै।’’
आर्यिकाओं के लिए दीक्षा विधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं।
विशेष इनकी चर्या क्या है? वह भी स्पष्ट करते हैं-आर्यिकायें७ वसतिका में परस्पर में अनुकूल मत्सरभाव रहित, परस्पर में रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर, रोष, वैर, माया जैसे विकारों से रहित, लोकापवाद और निंदा से डरती हुई, उभय कुल के अनुरूप, लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से अपने चारित्र की रक्षा करती हुई एक साथ रहती हैं। अध्ययन, पुनरावृत्ति, श्रवण, कथन, अनुप्रेक्षाओं के चिंतन, तप, विनय, संयम तथा ज्ञानाभ्यास में सतत तत्पर रहती हुई मन, वचन, काय से शुभाचरण करती हैं।
निर्विकार वस्त्र तथा वेश धारण करती हुई, साज श्रृंगार से रहित, जल्ल और मल से युक्त रहती हैं। धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुरूप निर्मल आचरण करती हैं।
रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन कराना, रसोई बनाना, वस्त्र सीना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरम्भ आदि कार्य नहीं करती हैं। मुनियों के पैरों में तेल लगाना, धोना, गीत गाना, आदि कार्य भी वे नहीं करती हैं।
वसतिका स्थान-जो८ स्थान साधुओं के निवास स्थान से दूर हों, गृहस्थों के स्थान से न अति दूर हो न अति पास हो, जहां व्यसनी, चोर आदि का प्रवेश न हो, ऐसे स्थान में दो, तीन या तीस चालीस तक भी आर्यिकायें रहती हैं क्योंकि आर्यिकाओं को अकेली कभी नहीं रहना चाहिए। कम से कम दो अवश्य होना चाहिए। तीन, पाँच या सात मिलकर आपस में एक दूसरे की रक्षा करते हुए वृद्ध आर्यिकाओं के साथ-साथ निकलकर आहार के लिए श्रावक के यहां प्रवेश करती हैं। गृहस्थों के घर में कभी नहीं जाती हैं केवल आहार के समय ही जाती हैं। कभी कोई विशेष धर्मकार्य होने पर अथवा किसी को सल्लेखना आदि कराने के लिए साध्वी गृहस्थ के घर जा सकती हैं अन्यथा नहीं। उसमें भी गणिनी को पूछकर दो तीन आदि मिलकर ही जाना चाहिए।
आर्यिकाओं के अट्ठाईस मूलगुण वैâसे?
प्रश्न-जब आर्यिकाओं के सभी व्रत मुनियों के सदृश हैं पुन: वे वस्त्र वैâसे रखती हैं?
इस पर आचार्यों ने ऐसा कहा है कि – ‘‘आर्यिकाओं९ को अपने पहनने के लिए दो साड़ी रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के सिवाय तीसरा वस्त्र रखने पर उसके लिए प्रायश्चित होता है।’’
इन दो वस्त्रों का ऐसा मतलब है कि दो साड़ी लगभग १६-१६ हाथ१० की रखती हैं। एक बार में एक ही पहनना होता है, दूसरी को धोकर सुखा देती हैं जो कि द्वितीय दिवस बदली जाती है।
आचार्य वीरसागर जी महाराज११ कहते थे कि दो साड़ी रखने से आर्यिका का एक मूलगुण कम नहीं होता है किन्तु उनके लिए आगम की आज्ञा होने से यही मूलगुण है। हां! तृतीय साड़ी रखने से अवश्य ही मूलगुण में दोष आता है। मुनिराज खड़े होकर आहार ग्रहण करते हैं और आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना होता है। यह भी शास्त्र की आज्ञा होने से उनका मूलगुण ही है। इसलिए उनके भी अट्ठाईस मूलगुण मानने में कोई बाधा नहीं है। यही कारण है कि आर्यिकाओं के महाव्रतों को उपचार संज्ञा दी गई है। यथा-
‘‘गणधर१२ आदि देवों ने उन आर्यिकाओं की सज्जाति आदि को सूचित करने के लिए उनमें उपचार से महाव्रत का आरोपण करना बतलाया है अर्थात् साड़ी धारण करने से आर्यिकाओं में देशव्रत ही होते हैं परन्तु सज्जाति आदि कारणों से गणधर आदि देवों ने उनके देशव्रतों में उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया है।’’
ये उपचार से महाव्रती हैं अतएव एक साड़ी धारण करते हुए भी लंगोटीमात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक१३ के द्वारा पूज्य हैं। यथा-
‘‘१४अहो! आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्त्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकता है किन्तु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्त्व परिणाम रहित होने से उपचार से महाव्रतिनी कहलाती हंै।’’ अर्थात् ऐलक लंगोटी त्याग कर सकता है फिर भी ममत्त्व आदि कारणों से धारण किए है किन्तु आर्यिका तो साड़ी का त्याग करने में समर्थ नहीं है।
आर्यिकाओं की यह साड़ी बिना सिली हुई होनी चाहिए अर्थात् सिले हुए वस्त्र पहनने का उनके लिए निषेध है।निष्कर्ष यह निकला कि ये आर्यिकायें एक श्वेत साड़ी पहनती हैं, हाथ में मयूर पंख की पिच्छी रखती हैं तथा शौच के लिए काठ या नारियल का कमंडलु रहता है। ज्ञान साधना के लिए शास्त्र को रखती हैं। सोने या बैठने में बिछाने के लिए घास, पाटा या चटाई भी रख सकती हंै। बाकी कुछ भी परिग्रह उनके पास नहीं रहता है।पठन-पाठन में या ग्रन्थ के लिखने आदि के लिए कलम, स्याही, कागज आदि१५ भी रख सकती हैं। मुनियों की अपेक्षा मूलगुणों के पालन में दो ही बातों का अंतर है-एक तो एक साड़ी पहनना और दूसरा बैठकर आहार करना।जैसे मुनियों में आचार्यपद है ऐसे ही आर्यिकाओं में ‘‘गणिनी” पद है। इसकी दीक्षा विधि आचार्य दीक्षा विधि के समान है। ये गणिनी माताजी आर्यिकाओं को दीक्षा और प्रायश्चित्त देने की अधिकारिणी हैं। इनके ३६ मूलगुण आचार्यों के मूलगुण के समान हैं। इसका वर्णन चौथे अधिकार में आ चुका है।
दैनिक चर्या-मुनि-आर्यिकाओं के दैनिक अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं, जो कि पिछली रात्रि से पूर्वरात्रि तक किये जाते हैं। उनका स्पष्टीकरण-पूर्वान्ह, मध्यान्ह, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक। इन चार काल के स्वाध्याय के १२ कायोत्सर्ग होते हैं, दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण के ८, त्रैकालिक देववंदना के ६, रात्रियोग प्रतिष्ठापना और निष्ठापना में २, ऐसे २८ कायोत्सर्ग होते हैं।
पिछली रात्रि में अपररात्रिक स्वाध्याय होता है। निद्रा से उठकर हाथ-पैर आदि शुद्ध करके स्वाध्याय शुरू करना चाहिये। स्वाध्याय प्रारंभ करने से पहले श्रुतभक्ति और आचार्यभक्तिसंबंधी दो कायोत्सर्ग होते हैं। अनंतर स्वाध्याय के बाद श्रुतभक्तिसंबंधी एक कायोत्सर्ग होता है, ऐसे एक स्वाध्यायसम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग हुये। पुन: सूर्योदय के २ घड़ी आदि से पहले रात्रिसम्बन्धी दोष का शोधन करने के लिए प्रतिक्रमण करना होता है। उसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीर भक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकरभक्ति इन चार भक्तिसम्बन्धी चार कायोत्सर्ग होते हैं पुन: रात्रियोग- निष्ठापनसम्बन्धी एक कायोत्सर्ग होता है।
अनंतर पूर्वान्ह सामायिक (देववंदना) में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्तिसम्बन्धी दो कायोत्सर्ग होते हैं पुन: लघु सिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिपूर्वक आचार्य वंदना की जाती है। अनंतर सूर्योदय के दो घड़ी बाद पौर्वाण्हिक स्वाध्याय होता है उसमें भी पूर्वोक्त तीन कायोत्सर्ग हो जाते हैं।पुन:१६ यदि आचार्य के संघ में आर्यिकायें हैं तो शुद्ध वस्त्र बदलकर आचार्यश्री के समीप मंदिर में आ जाती हैं। आचार्य श्री के और क्रम से सभी मुनियों के आहारार्थ१७ निकलने के बाद गणिनी आर्यिका निकलती हैं। उनके पीछे-पीछे सभी आर्यिकायें क्रम से आहार के लिये निकल जाती हैं। आहार से आकर गुरू के पास प्रत्याख्यान ग्रहण करके अपने स्थान पर चली जाती हैं।पुन: मध्यान्ह१८ में सामायिक करती हैं। अनंतर मध्यान्ह की चार घड़ी बीत जाने पर अपरान्हिक स्वाध्याय किया जाता है। जो नवदीक्षित हैं, अल्पज्ञ हैं, वे विद्यार्थिनी के रूप में अपनी गुर्वानी से या उनकी आज्ञानुसार अन्य विद्वानों से गुर्वानी के पास बैठकर अध्ययन करती हैं। व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त, छंद, अलंकार आदि ग्रन्थों को पढ़ती हैं। विदुषी आर्यिकायें भी पढ़ाती हैं। अनंतर दिवस- सम्बन्धी दोषों का शोधन करने के लिये सभी साधु-साध्वी मिलकर प्रतिक्रमण करते हैं। बाद में आचार्य की वंदना करते हैं। अनंतर मुनि अपने स्थान पर तथा आर्यिकायें अपनी वसतिका में जाकर रात्रियोगप्रतिष्ठापन करने में योगभक्तिसम्बन्धी कायोत्सर्ग करती हैं। रात्रियोग का मतलब यह है कि ‘मैं आज रात्रि में इस वसतिका में ही निवास करूँगा’ क्योंकि साधुजन रात्रि में यत्र-तत्र विचरण नहीं कर सकते हैं। मलमूत्रादि विसर्जन के लिये भी दिन में जगह देख लेते हैं जो कि वसतिका से अति दूर नहीं है, वहीं पर जाते हैं।
अनंतर आर्यिकायें सूर्यास्त काल में अपरान्हिक सामायिक शुरू करती हैं। सामायिक के बाद पुन: पूर्वरात्रिक स्वाध्याय करना होता है। जो शिष्यायें अध्ययन करने वाली हैं, वे अपना पाठ याद करती हैं। बाद में णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुये चटाई-पाटा आदि पर सोती हैं। आर्यिका अकेली शयन नहीं कर सकती हंै चूंकि लोकापवाद का भय रहता है। दो-चार आदि आर्यिकायें एक कमरे में सोती हैं। दिन में भी मिलकर ही रहती हैं। संक्षिप्त में यह दिगम्बर जैन संप्रदाय वाली आर्यिकाओं की चर्या है।जो आर्यिकायें विदुषी होती हैं, वे प्रात: या मध्यान्ह में अपने स्वाध्याय से समय निकालकर श्रावक-श्राविकाओं की सभा में धर्मोपदेश भी देती हैं।
आर्यिकाओं के लिये कर्तव्य-अकर्तव्य-आर्यिकायें गुरू की वंदना को अकेली नहीं जा सकती हंै। गणिनी के साथ अथवा दो-चार मिलकर ही जाती हैं। अकेले बैठकर दिगम्बर मुनियों से चर्चा, वार्तालाप आदि नहीं कर सकती हैं। मुनियों की सेवा, वैयावृत्ति आदि भी नहीं कर सकती हैं। गीत गाना, रोना, बुहारी देना, वस्त्र सीना आदि कोई भी कार्य नहीं कर सकती हंैं। गृहस्थों के बच्चों को लाड़-प्यार नहीं करती हैं। गृहस्थ महिलाओं से गृहस्थ्ा के विवाह, व्यापार, रसोई, खान-पान आदि सम्बन्धी चर्चा भी नहीं करती हैं। प्रत्युत् इन्हें धर्म की, वैराग्य की शिक्षा देती हैं। नाटक, उपन्यास, श्रृंगारसम्बन्धी पुस्तकें नहीं पढ़ती हैैं। राजनैतिक चर्चाओं में भाग नहीं लेती हैं। केवल परलोक सिद्धि के लिए धर्माराधन में तत्पर रहती हैं, लौकिक प्रपंच आदि में नहीं पड़ती हैं। आपस में ईर्ष्या, द्वेष, कलह से दूर रहती हैं। एक दूसरे की अनुकूलता रखते हुये पठन-पाठन में अपना समय व्यतीत करती हैं। आर्यिकाएं कुछ भी आरंभ नहीं करती हैं जैसे-पानी गरम करना, छानना, लाना, भरना आदि। गृहस्थसम्बन्धी कार्यों का त्याग रहता है। बीमारी में भी अपने हाथ से औषधि नहीं बनाती हैं। श्रावक-श्राविकायें शुद्ध काष्ठादि प्रासुक औषधि तैयार करके आहार के समय ही आहार में दे देते हैं अथवा लगाने के लिए शुद्ध तेल, घी आदि का प्रयोग कर लेती हैं।
श्रावक इनके कमंडलु में गरम जल भर देते हैं। वे अपनी साड़ी को एक कमंडलु के जल से धो सकती हैं। बिना गरम किया हुआ कच्चा जल हाथ से नहीं छूती हैं। या तो श्राविकायें छने जल से इनकी साड़ी धोकर सुखा देती हैं। आर्यिकाएं साबुन आदि वस्तुओं का भी प्रयोग नहीं कर सकती हैं। वे आहार के लिए मन-वचन-काय से कुछ भी नहीं कहती हैं। श्रावकों के यहाँ जैसा मिला, वैसा दोषों से रहित प्रासुक आहार होना चाहिए; नीरस हो या सरस, उन्हीं के द्वारा दिया गया आहार अपने हाथों की अंजुली में ग्रहण करती हैं। वे मुनि के समान दो, तीन या चार महीने में केशलोंच करती हैं। मुनियों की वसतिका में आर्यिकाओं का रहना, लेटना, बैठना, स्वाध्याय करना आदि वर्जित है।मासिक धर्म की अवस्था में आर्यिकायें तीन दिन तक मौन से रहती हैं। जिनमन्दिर से अलग वसतिका में रहती हैं। किसी को भी स्पर्श नहीं करती हैं, न कोई पुस्तक आदि ही छू सकती हैं। मौनपूर्वक केवल मन में णमोकार मंत्र और बारह भावनाओं का चिंतवन करती हैं। षट् आवश्यक क्रियायें, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि भी केवल मन में चिंतवनरूप से करती हैं। ओष्ठ, जिह्वा आदि न हिलने पाये, ऐसा मंत्र स्तोत्रादि का चिंतवन भी चलता है।
यदि उपवास करने की शक्ति है तो तीन दिन उपवास अन्यथा एक या दो उपवास कर लेती हैं। शक्ति न होने से तीनों दिन छहों रस१९ रहित नीरस आहार२० कर लेती हैं। जो श्राविकायें आहार कराती हैं वे इनका स्पर्श नहीं करती हैं। तीन दिन के बाद श्राविकायें इन्हें गरम जल से स्नान करा देती हैं तब आर्यिका गणिनी के पास आकर, यदि आचार्य संघ में हैं तो गणिनी के साथ आचार्य के पास जाती हैं, गणिनी आचार्य द्वारा इन्हें प्रायश्चित्त दिला देती हैं अथवा आचार्य के न होने पर गणिनी ही प्रायश्चित्त देती हैं।
चतुर्विध संघ-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनके समूह को चतुर्विध संघ कहते हैं। संघ के जो नायक होते हैं, जिन्हें गुरू ने विधिवत् आचार्यपद प्रदान किया है, ऐसे वे आचार्य कहलाते हैं। जिस संघ में आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें, ब्रह्मचारिणी, श्राविकायें आदि रहती हैं उस संघ के आचार्य चिरकाल२१ से दीक्षित, प्रौढ़, गम्भीर, दूरदर्शी, जितेन्द्रिय, सर्वशास्त्र में निपुण आदि गुणों से सहित होना चाहिये। इन गुणों से शून्य नवदीक्षित व छोटी उम्र वाले साधु यदि आर्यिकाओं का नेतृत्व करते हैं तो वे आगम के विरूद्ध है, क्योंकि वे निंदा के भाजन बन सकते हैं।
आर्यिका संघ-आर्यिकाओं का संघ अलग भी होता है। इसमें प्रमुख गणिनी आर्यिका के अनुशासन में सभी आर्यिकायें रहती हैं। क्षुल्लिकायें, श्राविकायें, अध्ययनशील बालिकायें आदि भी रहती हैं।
आर्यिकायें और क्षुल्लिकायें पैदल ही विहार करती हैं। दिन में सामायिक के समय को छोड़कर प्रासुक मार्ग से चार हाथ आगे जमीन देखते हुए चलती हैं। आर्यिका हरी घास पर नहीं चलती हैं। यदि कदाचित् पानी में चलना पड़े तो घुटने तक पानी में से चलकर पुन: प्रासुक जल से पैर धोकर कायोत्सर्ग करती हैं। इससे अधिक जल में चलने से गुरू से प्रायश्चित्त लेना होता है। अस्वस्थ अवस्था में कदाचित् डोली में बैठने से भी प्रायश्चित्त लेना होता है।संघ के विहार की व्यवस्था भी श्रावक करते हैं। आर्यिकायें विहार में अपने हाथ में पिच्छी, कमंडलु मात्र ही रखती हैं। कदाचित् कमंडलु को कोई श्रावक या श्राविकायें भी लेकर इनके साथ चलते हैं। बाकी शास्त्र, चटाई आदि सामान श्रावक अपने वाहन आदि व्यवस्था से अगले स्थान तक पहुँचाते हैं। उन्हें वे साथ में या हाथ में लेकर नहीं चलती हैं। जहाँ श्रावकों के घर होते हैं, वहां वे विधिवत् आहार देते हैं अन्यथा मार्ग में अन्य नगरों के श्रावक आकर आहार की व्यवस्था बनाकर आहार देते हैं। ये भिक्षा से माँगकर या लाकर आहार नहीं करती हैं।
आहार विधि-श्रावक-श्राविकाएँ अपनी दान की सद्भावनापूर्वक अपने लिए भोजन बनाते हैं। उसमें हाथ का पिसा हुआ आटा, मसाला आदि रहता है। शुद्ध कुएँ, बावड़ी आदि का जल रहता है। शुद्ध, दूध, घी आदि मर्यादित वस्तुएँ रहती हैं। भोजन तैयार करने के बाद दम्पत्ति या कोई भी दातार अपने दरवाजे पर श्रीफल आदि लेकर खड़े हो जाते हैं। जब ये आर्यिकाएँ जिनमंदिर से दर्शन करके आहारार्थ निकलती हैं, उस समय वे श्रावकजन पड़गाहन करते हैं-हे माताजी! वंदामि अत्र तिष्ठ तिष्ठ! जब वे एक-दो आदि आर्यिकाएँ वहाँ खड़ी हो जाती हैं, तब वे दातार उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर घर में ले जाते हैं। चौके में स्वच्छ पाटे पर उन्हें बैठने के लिए प्रार्थना करते हैं। गरम जल से उनके चरण धोकर गंधोदक मस्तक पर चढ़ाते हैं। अष्टद्रव्य से पूजा करके नमस्कार करते हैं पुन: महिलाएँ थाली में सभी भोजन परोसकर सामने लाकर दिखलाती हैं। आर्यिकाश्री का जो भी त्याग होता है, उसे वे निकलवा देती हैं। तब दातार मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहार जल शुद्ध है, भोजन ग्रहण कीजिए, ऐसा कहते हैं।इस प्रकार नवधा२२ भक्ति होने के बाद वे दातार उनके हाथ धुलाते हैं। हाथ धोने के बाद वे सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान निष्ठापन क्रिया करके अपने हाथों की अंजुली बनाकर आहार शुरू करती हैं। जल, दूध, रोटी, भात आदि जो कुछ भी लेना है अथवा किसी रोग के निमित्त से औषधि आदि लेना है, वे सब कुछ उसी समय में ले सकती हैं पुन: हाथ प्रक्षालन कर सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेती हैं और कमंडलु में गरम जल भराकर वहाँ से आ जाती हैं। साथ में कोई श्रावक-श्राविका आदि उनके स्थान तक पहुँचाने के लिये उनके साथ आते हैं। वे आर्यिका गुरू के पास पुन: प्रत्याख्यान-अगले दिन आहार ग्रहण तक चतुराहार का त्याग कर देती हैं और पुन: अपनी वसतिका में पहुँच जाती हैं। यदि अगले दिन उपवास करना हुआ तो गणिनी की आज्ञा लेकर गुरू से उपवास ग्रहण कर लेती हैं अथवा आचार्य के न रहने पर गणिनी से ही उपवास या प्रत्याख्यान आदि लेती हैं।
आहार के छ्यालीस दोष-उद्गम दोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष, संयोजनादोष, प्रमाणदोष, इंगालदोष, धूमदोष और कारणदोष इन आठ दोषों से रहित आहारशुद्धि होती है। दातार के निमित्त से हुये दोष उद्गमदोष हैं। साधु के द्वारा आहार में हुये दोष उत्पादन संज्ञक हैं। आहारसम्बन्धी दोष एषणादोष हैं। संयोग से होने वाला दोष संयोजनादोष है। प्रमाण से अधिक आहार लेना प्रमाणदोष है। लंपटता से आहार लेना इंगालदोष है। निंदा करके आहार लेना धूमदोष है और विरुद्ध कारणों से बना हुआ आहार लेना कारण दोष है।
इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४६ दोष होते हैं।
इन सबसे अतिरिक्त एक अध:कर्म दोष है जो महादोष कहलाता है। इसमें कूटना, पीसना, रसोई करना, पानी भरना और बुहारी देना ऐसे पंचसूना नाम के आरम्भ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसको करने वाले साधु या साध्वी उस साधुपद में नहीं माने जाते हैं।
आर्यिकायें आपस में बड़े प्रेम से धर्माराधना करते हुए रहती हैं। एक दूसरे की अनुकूलता रखते हुये आगम और लोक की मर्यादा को निभाती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, झूठ, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दुर्भावों से अपने संयम को और मन को मलिन नहीं करती हैं। किसी आर्यिका के अस्वस्थ होने पर अन्य आर्यिका उसे धर्मरूपी अमृत को पिलाती रहती हैं और श्राविकाओं द्वारा अनुकूल प्रासुक औषधि की व्यवस्था कराकर आहार काल में पहुँचवाती हैं। नवदीक्षिताओं को संयम में, धर्म में स्थिर करती हैं। जिनके निमित्त से मोक्ष मार्ग प्राप्त हुआ है या जिनसे वैराग्य अथवा सम्यग्ज्ञान मिला है अथवा जिनसे धर्म ग्रन्थों का अध्ययन किया है उनके उपकार को सर्वोपरि मानकर सतत मन, वचन, काय से उनकी सेवा, आराधना, अर्चना, भक्ति और उपासना करती हैं। अपने पद के विरुद्ध श्रावकोचित ऐसे कार्यों को नहीं करती हैं। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में लीन होकर स्तोत्र पाठ, भक्ति पाठ, जाप्य आदि करती हैं। पिंडस्थ, पदस्थ आदि ध्यान का भी अभ्यास करती हैं। आज भी ऐसे हीन दु:षम काल में एक-एक महीने तक भी उपवास करने वाली आर्यिकायें हो चुकी हैं। अभी भी आठ, दस, सोलह उपवास, एकांतर उपवास आदि से शरीर को क्षीण करने वाली तथा वैराग्य मार्ग को प्रशस्त बनाने वाली आर्यिकायें विद्यमान हैंं। ये सम्यक्त्व सहित निर्दोषतया व्रतों का पालन करते हुये निश्चित ही स्त्री पर्याय से छूटकर स्वर्ग के सुखों का अनुभव करेंगी। वहाँ पर सम्यक्त्व के प्रभाव से जिनेंद्रदेव के पंचकल्याणकों में जाकर व अकृत्रिम जिन चैत्यालय की वंदना करते हुए तथा समवसरण में जिनेन्द्र देव का साक्षात् दिव्य उपदेश सुनते हुए कालयापन करके वहाँ से आकर मनुष्य भव को प्राप्त कर निर्ग्रंथ दीक्षा लेकर कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त करेंगी।पंचमकाल के अंत में वीरांगज मुनि और सर्वश्री आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका होंगे। वे कल्की राजा द्वारा टैक्स में हाथ के प्रथम ग्रास के मांगे जाने पर सल्लेखना विधि से मरण करके सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। इसलिये भगवान महावीर के शासन में आज तक २५३४ वर्ष तक अक्षुण्ण जैन शासन और मुनि तथा आर्यिकाओं की परम्परा चली आ रही है और आगे पंचमकाल के अंत तक यह अक्षुण्ण परम्परा चलती रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।
टिप्पणी-
१. आठ वर्ष की उम्र के बाद अणुव्रत अथवा दीक्षा ले सकती हैं ऐसी आगम की आज्ञा है।
२. तत्थ ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पंच आधारा।
आइरिय उवज्झाया पव्वत्तथेरा गणधरा य’’।।३४।। (मू. कुंद.)
३. एसो अज्जाण पि य समाचारो जहाक्खिओ पुव्वं।
सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्वो जहाजोग्गं।।६७।। (मूलाचार-श्री कुंदकुंदकृत)
४. वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान में खड़े हो जाना वृक्षमूल है। गर्मी में पर्वत की चोटी पर ध्यान करना आतापन है और ठंडी में खुले मैदान में ध्यान करना अभ्रावकाश है तथा दिन में सूर्य की तरफ मुख कर खड़े होकर ध्यान करना आदि।
५. लज्जाविनय-वैराग्य-सदाचार-विभूषिते।
आर्याव्रते समाचार: संयतेष्विव किन्त्विह।।८१।। (आचारसार पृ. ४२)
६. साधूनां यद् वदुद्दिष्टोवमार्यागणस्य च।
दिनस्थानत्रिकालोनं प्रायाश्चित्तं समुच्यते।।११४।। (प्राय.)
७. ‘‘अण्णोण्णणुकूलाओ अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ।
गयरोसवेरमाया सलज्जमज्जाद-किरियाओ।।६८।।
अज्झयणे परियट्टे सवणे कहणे तहाणुपेहाय।
तव-विणय-संजमेसु य अविरहिदुवजोगजुत्ताओ।।६९।।
अविकार-वत्थ-वेसा जल्लमलविलितचत्तदेहाओ।
धम्मकुल-कित्तिदिक्खापडिरूव विसुद्ध चरियाओ।।७०।।
रोदणण्हावण-भोयण-पयणं सुत्तं च छब्बिहारंभे।
विरदाण पादमक्खण-धोवण-गोयं च ण वि कुज्जा।।७३।। (मूलाचार-श्री कुंदकुंदकृत)
८. वस्त्रयुग्मं सुवीभत्स-लिंग-पृच्छादनाय च।
आर्याणां संकल्पेन तृतीय मूलमिष्यते।।११९।। (प्राय.)
९. अग्निहत्थमिस्सणिलये असण्णिवाए विसुद्ध संचारे।
दो तिण्णि वा अज्जाओ वहुगीओ वा सहत्थिंति।।७१।।
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ।
थेरेहिं संहतरिता भिक्खाय समोदरंति सदा।।७४।।
ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्स गमणिज्जे।
गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज।।७२।। (मूला. कुंद.)
१०. सोलह हाथ की साड़ी के विषय में आगम में कहीं नहीं मिला है। मात्र गुरु-परम्परा से यह व्यवस्था चली आ रही है। आगम में केवल दो साड़ी मात्र का उपदेश है।
११. चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के पट्टशिष्य।
१२. देशव्रतान्वितैस्तासामारोप्यंते बुधैस्तत:।
महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारत:।।८९।। (आचारसार)
१३. श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में से अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक। क्षुल्लक के पास लंगोटी और चद्दर ये दो वस्त्र रहते हैं किन्तु ऐलक के पास लंगोटी मात्र रहती है।
१४. कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतं।
अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्यार्यिकार्हति।।३६।। (सागार. पृ. ५१८)
१५. नेत्रज्योति कमजोर हो जाने से पढ़ने के लिए, ईर्यापथ शुद्धि से चने के लिए और आहार को देखने शोधने के लिए कदाचित् चश्मा भी ले सकती है। (यह व्यवस्था गुरु परम्परागत है)
१६. दश बजे के लगभग………।
१७. आहारचर्या आगे है।
१८. शास्त्रों में मध्यान्ह की सामायिक के बाद साधु-साध्वियों को आहार के लिए जाने का विधान है किन्तु वर्तमान में सामायिक के पहले ९ बजे से ११ बजे तक के काल में ही आहार के लिए साधु निकलते हैं। चूँकि श्रावक के भोजन का यही समय उपयुक्त है और पौने ग्यारह बजे के पूर्व मध्यान्ह सामायिक का समय नहीं बन पाता है।
१९. घी, मीठा, नमक, दूध, दही और तेल ये छह रस माने गये हैं।
२०. ऋतौ स्नात्वा तु तुर्येन्हि शुद्धं त्यरस भुक्त्य:।
कृत्वा त्रिरात्रमेकांतंरं वा सज्जपसंयुता:।।९०।। (आचारण)
२१. गंभीरो दुद्धरिसो मिदवासी अप्प को दुहल्लो य।
चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।।६८।।
एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं।
चत्तारि कालगा से गच्छादि विराहणा होज्ज।।६४।। (मूल. कुंदकुंदकृत)
२२. पड़गाहन करना, उच्च स्थान देना, चरण धोना, पूजन करना, नमस्कार करना, मन, वचन, काय और आहार इन चारों की शुद्धि करना यह नवधाभक्ति है।