इसी शृँखला में आगे चलकर माँ मोहिनी की १२वीं संतान के रूप में १८ मई १९५८, ज्येष्ठ कृ. अमावस को जन्म लेकर पूर्व जन्मों के पुण्य, माँ से जन्मघूंटी के रूप में प्राप्त धार्मिक संस्कार एवं सन् १९६९ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के मिले सानिध्य ने मुझे भी इस कठोर त्याग पथ पर चलने हेतु प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप सन् १९७१ में अजमेर (राज.) में भादों शु. दशमी (सुगंध दशमी) के दिन मैंने पूज्य माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर गुरुमुख से धार्मिक अध्ययन प्रारंभ कर दिया। मेरा बचपन का नाम था- कु. माधुरी जैन। १३ वर्ष की लघु उम्र में मुझे अधिक तो कुछ ज्ञात नहीं था, किन्तु विवाह बंधन में न बंधकर गुरुचरणों में जीवन समर्पित कर देना ही मैंने ब्रह्मचर्य व्रत का अभिप्राय समझा था, उसी के फलस्वरूप धीरे-धीरे दो प्रतिमा, सात प्रतिमा आदि व्रतों को लेकर मेरे १८ वर्ष पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं अपनी जन्मदात्री माँ पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की छत्रछाया में ज्ञानार्जन, वैयावृत्ति, संघ व्यवस्था, धर्मप्रभावना एवं त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकलापों में व्यतीत हुए।
पुन: १३ अगस्त १९८९, श्रावण शु. एकादशी के दिन हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने मुझे आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ‘‘चंदनामती’’ बनाया। नारी जीवन के उत्कृष्ट त्याग को धारण करने के पश्चात् मानो नया जीवन ही प्राप्त हुआ हो, इसीलिए लगभग १६ हजार किमी. की पदयात्रा करके अनेक तीर्थों के दर्शन एवं उनके जीर्णोद्धार विकास में अपने समय का सदुपयोग करके परम प्रसन्नता का अनुभव होता है।सन् १९७४ से प्रारंभ हुए जम्बूद्वीप रचना निर्माण आदि को मैंने स्वयं अपने चर्मचक्षुओं से प्रतिपल देखा है और संस्थान के द्वारा संपादित होने वाले सभी कार्यों में अपने पद के योग्य यथाशक्ति योगदान करके अपने जीवन को धन्य माना है। भविष्य में भी इसी प्रकार रत्नत्रय की साधना करते हुए दीक्षित जीवन के चरमलक्ष्यरूप बोधि-समािध की प्राप्ति हो, यही भगवान शांतिनाथ के श्रीचरणों में प्रार्थना है।