पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने ईसवी सन् १९६४ में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की तथा सन् १९६९ में आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण करके जीवन धन्य किया। पुन: सन् १९७१ में बुंदेलखण्ड यात्रा की भावना से उन्होंने पृथक् विहार किया। उस बुंदेलखण्ड यात्रा के संस्मरणों को पूज्य अभयमती माताजी ने स्वयं अपनी लेखनी के द्वारा पद्य में लिखकर प्रदान किया है, जो कि यहाँ प्रस्तुत है-
-दोहा-
बुंदेलखण्ड यात्रा निमित्त, छोड़ा गुरु का संघ।
दर्शनीय अरु पूज्यनीय, मूर्ति दिखे सानंद।।१।।
सिद्धक्षेत्रों के दर्श कर, सिद्ध हुए सब काज।
अतिशय क्षेत्र के दर्श कर, मिली सफलता आज।।२।।
सफल हुई यात्रा सभी, हो प्रभावना ठाठ।
‘समयसार’ अरु ग्रंथ भी, रचा होय मन शांत।।३।।
अपने दीक्षागुरु की आज्ञानुसार हमने बुंदेलखण्ड की यात्रा करके जो आनंद प्राप्त किया एवं जो मुझे आत्म शांति मिली, वह जीवन में कभी नहीं मिली थी। जैसे अंधे को नेत्र खुलने पर, गरीब को निधि मिलने पर उनके हर्ष का पार नहीं रहता, इसी तरह मुझे इस यात्रा में मानोें आत्मनिधि ही मिल गई। साथ ही साथ मुझे अपूर्व आत्मिक बल भी मिला कि किस प्रकार से समाज में रहकर समाज का उद्धार एवं धर्मप्रचार करना इत्यादि। गुरुओं के आशीर्वाद से हर जगह धर्म प्रभावना हुई। जगह-जगह महिला मण्डल व स्कूल की स्थापना हुई। समाज संगठन व अनेकांत धर्म शिविर लगा। यहाँ तक छोटे-छोटे गाँव में इंद्रध्वज विधान, सिद्धचक्र विधान आदि बड़े-बड़े धार्मिक महोत्सव हुए तथा इसी यात्रा में जो गुरु के वियोग से अशांति थी सो आत्मशांति एवं उपयोग स्थिर करने के लिए महान-महान ग्र्रंथों की रचना हमने की। जैसे-समयसार अमृतकलश पद्यावली, पुरुषार्थसिद्धि उपाय, आत्मानुशासन, परमात्म प्रकाश, रयणसार, आत्मपथ की ओर इत्यादि। यह सब गुरु के आशीर्वाद से ही हमने किया। शारीरिक अस्वस्थता ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैंने इनसे पीछा छुड़ाने के लिए आत्मसाधना का अभ्यास किया। अंतिम सोनागिर सिद्धक्षेत्र के दर्शन से मुझे अपूर्व आत्म शांति मिली और इसी क्षेत्र पर हमने आत्मानुशासन, सरस काव्य पद्यावली आदि की रचना किया। यहाँ पर चंदाप्रभु भगवान का महान अतिशय है। इस क्षेत्र पर पर्वत के ऊपर ८८ जिनमंदिर हैं, नीचे १७ मंदिर हैं। ये सभी मंदिर बहुत ही मनोज्ञ, कलापूर्ण, प्राचीन अतिशयकारी हैं एवं यहाँ पर अनेक धर्मशालाएँ, जैन पाठशाला, आश्रम, मानस्तंभ तथा अन्य और भी सुंदर-सुंदर रचनाएँ हैं।
-दोहा-
देव-शास्त्र-गुरु नमन कर, आत्म शांति के काज।
तीन रत्न जग में सदा, राखें मेरी लाज।।१।।
तीन कम नव कोटि ऋषि, को वंदूँ निज काज।
शांति सिंधु नमूँ वीर सिंधु, शिवसागर ऋषिराज।।२।।
धर्म सिंधु आचार्य को, प्रणमूँ बारम्बार।
गणिनी माता ज्ञानमति, को मैं करूँ नमस्कार।।३।
पग से यात्रा जो करे, हो जीवन उद्धार।
‘अभयमती’ कहती सदा, करो समाज सुधार।।४।।
-मुक्तक छंद-
अपनी जीवन यात्रा मैंने, बड़ी कठिन से की अब तक।
पूर्वकर्म कृत संघर्षों में, यात्रा सफल हुई अब तक।।
कहीं मार्ग में काँटे मिलते, कहीं मिले कंकड़ पत्थर।
कहीं मकान मिला है सुख का, पर उसमें दु:ख का गट्ठर।।४।।
कभी रोग ने आकर घेरा, कभी दैव उपसर्ग किया।
कर्मों ने आ करके झट ही, अपना बदला चुका लिया।।
कभी मार्ग में कर्म चोर अरु डाकू ने बहु त्रास दिया।
रत्नत्रय निधि को लेने को, बारम्बार बहुयत्न किया।।५।।
पर हे चेतन! आत्मिक बल पर, तुमने हिम्मत तजा नहीं।
पूर्व कर्मकृत उदय समझकर, शांति धैर्य को रखा सही।।
इसी क्रोध में आकर तूने, पर को ही बहु दोष दिया।
अबला बन अज्ञानपने से, रोदन शोक विलाप किया।।६।।
धर्मी की रक्षा हो अरु, संतों कि परीक्षा होत सदा।
पर ध्येय तजे नहिं धैर्य तजे, चाहे दुख पर ही दु:ख लदा।।
जो चंदनबाला सम बनके, उपसर्ग परीषह सहन किया।
वह अबला से सबला बनकर, स्त्रीलिंग तज शिव धार लिया।।७।।
महावीर प्रभुवर ने भी, नारी को गौरव मान दिया।
सती चंदना को बेड़ी से, छुड़ा शीघ्र आहार लिया।।
ज्यों पुरुष धर्म का अधिकारी, नारी को भी अधिकार सभी।
तीर्थंकर को जन्मे नारी, पुरुषारथ कर शिव लहे जभी।।८।।
-दोहा-
बाराबंकी जिला कह, टिवैâतनगर है ग्राम।
है प्रदेश उत्तर जहाँ, धार्मिक संत महान।।९।।
अगहन शुक्ला सप्तमी, वीर संवत कहाय।
चौबीसो उन्हत्तर कहे, कन्या जन्म मनाय।।१०।।
जन्म हुआ मेरा जभी, मनोवती रख नाम।
जन्म पिता छोटे लाल जी, मात मोहिनी जान।।११।।
चार पुत्र नौ पुत्रि को, जन्म दिया शुभ मात।
धर्मध्यान करती सदा, जप तप व्रत कर ठाठ।।१२।।
बड़ी पुत्रि मैना सती, बनी आर्यिका जान।
ज्ञानमती शुभ नाम से, विदुषी रत्न महान।।१३।।
विचारधारा
इसी दृश्य को देखकर, मैं भी किया विचार।
मैं क्यों बंधन में बंधूँ, यह संसार असार।।१४।।
पराधीन नारी त्रिया, तीनों पन दु:ख रूप।
छेदूँ स्त्रीलिंग को, धरूँ आर्यिका रूप।।१५।।
भयंकर उपसर्गों का सामना
पूर्व कर्म कृत जन्म से, लगा शत्रु कोई देव।
किया घोर उपसर्ग जब, दु:ख दियो बहु मोय।।१६।।
उसी समय से पूर्वकृत, कर्म उदय कर शोर।
पेचिस आाfदक रोग ने, घेरा है बहु जोर।।१७।।
कर विचार मैंने जभी, हे आत्मन् कुछ सोच।
इसमें किंचित् भी नहीं, कभी किसी का दोष।।१८।।
पूरब में जो मैं किया, तैसा ही फल सोय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय।।१९।।
किंतु जगत झूठा दिखा, हुआ है चंचल मन।
कहाँ जाऊँ मैं क्या करूँ, दिल धड़के हरदम।।२०।।
गति विचित्र है कर्म की, होनहार बलवान।
है संबंध अनादि का, जीव व पुद्गल जान।।२१।।
रोग अधिक बढ़ता गया, अरु उपसर्ग महान।
इधर विकट खाई दिखे, इधर कूप दुख दान।।२२।।
जैसे तैसे समय भी, क्षण क्षण बीता जाय।
आयू भी पल पल घटे, पर मम कछु न सुहाय।।२३।।
धर्म ध्यान नित ही धरूँ, करूँ नित्य स्वाध्याय।
इस प्रकार से उम्र भी, सोलह वर्ष लहाय।।२४।।
उत्कृष्ट विरागता
एकमात्र मम भावना, सदा रहे दिन रात।
वैâसे तजूँ जंजाल को, धर्मध्यान कर ठाठ।।२५।।
पर आज्ञा देवे नहीं, मात पिता परिवार।
झूठा सुत झूठी त्रिया, झूठे सब नर नार।।२६।।
हुई बीस की उम्र जब, तजा नहीं पुरुषार्थ।
गई लाडनू संघ में, जन्म मात के साथ।।२७।।
शिवसागर का संघ था, वीरमती थीं खास।
ज्ञानमती भी साथ थी, चालिस पीछी साथ।।२८।।
मुनी आर्यिका क्षुल्लिका, क्षुल्लक ऐलक जान।
त्यागी व्रती व श्राविका, संघ चतुर्विध शान।।२९।।
संघ देख मम हर्ष हो, मन में शांति लहाय।
मानों निधि ही मिल गई, ज्ञानमती को पाय।।३०।।
स्वास्थ्य अधिक कमजोर लख, गुरुवर व्रत नहिं देय।
शांति भाव के साथ हम, ब्रह्मचर्य व्रत लेय।।३१।।
गुरु के संघ सुजानगढ़, चातुर्मास ले ठान।
पुन: ज्ञानमति संघ ले, कर विहार शुभ जान।।३२।।
यात्रा हेतू शिखर जी, ज्ञानमती का संघ।
कर विहार शुभ दिवस में, मैं भी हो गई संग।।३३।।
चौका लेकर संघ में, करी व्यवस्था ढंग।
आरा में जब पहुँचकर, विमल सिंधु लह संघ।।३४।।
ज्ञानमती मातेश्वरी, विमल सिंधु को पाय।
इक्कीस वर्ष की उम्र में, व्रत मुझको दिलवाय।।३५।।
प्रथम संस्कार व्रतरूप में
पुन: वहाँ से गमन कर, ज्ञानमती का संघ।
सिद्धशिखर जी आयकर, दर्शन कर सुख संग।।३६।।
द्वितीय संस्कार व्रतरूप में
पार्श्वनाथ की टोंक पर, ज्ञानमती जी मोय।
इक्कीस वर्ष की उम्र में, सप्तम प्रतिमा देय।।३७।।
पुन: वहाँ से गमन कर, कलकत्ते में आन।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।।३८।।
फिर हम सब यात्रा निमित, बस में बैठो जाय।
शीघ्र करी यात्रा सभी, उर में हर्ष मनाय।।३९।।
पुन: ज्ञानमति साथ में, पहुँच हैदराबाद।
चातुर्मास कर साथ में, उर वैराग्य समात।।४०।।
दीक्षा की आज्ञा जभी, ज्ञानमती से लेय।
पर आज्ञा दीनी नहीं, तन रोगी लख मोय।।४१।।
दृढ़ प्रतिज्ञा
छहों रसों का त्याग कर, दृढ़ प्रतिज्ञ कर लीन।
जभी ज्ञानमति मात ने, सोच विचार करीन।।४२।।
शिवसागर आचार्य ढिग, आज्ञा ली भिजवाय।
दी आज्ञा गुरुवर जभी, मम उर हर्ष मनाय।।४३।।
तृतीय संस्कार दीक्षारूप में
सावन शुक्ला सप्तमी, पार्श्वनाथ गये मोक्ष।
उसी दिवस दीक्षा दर्ई, ज्ञानमती मम सोच।।४४।।
बाईस वर्ष की उम्र में, दीक्षा ली निज हेतु।
‘मनोवती’ से ‘अभयमती’, नाम पड़ा शिवकेतु।।४५।।
चारित्रबिन मुक्ति नहीं
व्रत तप संयम के बिना, मुक्ति लहे नहिं कोय।
त्रिया लिंग भी नहिं छिदे, दुख का अंत न होय।।४६।।
पुन: ज्ञानमती संघ में श्रवणबेलगुल आय।
बाहुबली की मूर्ति लख, उर में हर्ष मनाय।।४७।।
किया देव उपसर्ग बहु, अरु बहु रोग सताय।
पूर्व जन्म में जो किया, वैसा ही फल पाय।।४८।।
अपने अपने कर्म का, फल भोगे सब कोय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय।।४९।।
श्रवणबेलगुल में करूँ, चातुर्मास महान।
ज्ञानमती जी के संघ में, करूँ निजातम ध्यान।।५०।।
बाहुबली मूर्ती अहो, चमत्कार लख जान।
मानों कहती हैं सदा, तुम भी कर लो ध्यान।।५१।।
आत्म ध्यान के बिन कभी, नहीं होत कल्याण।
बिन चारित जीवन व्यथा, यह निश्चय उर आन।।५२।।
पुन: वहाँ से गमन कर, सोलापुर में आय।
धार्मिक संत जहाँ बसे, अरु आश्रम कहलाय।।५३।।
विदुषी सुमतीबाई अरु, विद्युल्लता कहाय।
आश्रम की अध्यापिका, ज्ञानवृद्धि लहराय।।५४।।
विमल सिंधु का संघ अरु, ज्ञानमती का संघ।
चतुर्मास जब दो हुए, कर प्रभावना अंग।।५५।।
फिर क्रम-क्रम से गमन कर, पहुँच औरंगाबाद।
महावीर कीर्तीऋषी, संघ मिलो जब ठाठ।।५६।।
पुन: शीघ्र इंदौर गमन कर, लहे सिद्धवरकूट।
दर्शन कर जीवन सफल, होय नशे भव कूप।।५७।।
जभी वहाँ से गमन कर, पहुँच सनावद शीघ्र।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास कर नीक।।५८।।
संघ में हम रहती सदा, धर्मध्यान कर ठाठ।
पर उपसर्ग टले नहीं, कर्म सतावें साथ।।५९।।
पुन: ज्ञानमति संघ मिलो, शिवसागर जी संघ।
मानों निधि ही मिल गई, देख गुरू का ढंग।।६०।।
जब प्रतापगढ़ ज्ञानमती जी, चातुर्मास कर संघ।
धार्मिक संत जहाँ बसे, कर प्रभावना अंग।।६१।।
पुन: गमन महावीर जी, अतिशय क्षेत्र कहाय।
शिवसागर संघ ज्ञानमती संघ, शीघ्र ही पहुँचो जाय।।६२।।
पंचकल्याणक की जभी, हो तैयारी शीघ्र।
कर्मगती टलती नहीं, होनहार बलवीर।।६३।।
धर्म सिंधु का संघ भी, उसी समय पर आन।
हुई समाधि शिव सिंधु की, हो भवितव्य महान।।६४।।
ज्यों राजा बिन प्रजा सब, शोक दु:ख कर जान।
गुरु बिन शिष्य व मात पितु, बिन त्यों रह संतान।।६५।।
करें शोक भारी सभी, है यमराज महंत।
जिसके आगे किसी का, वश चलता नहिं अंश।।६६।।
जो भी जग में जन्म ले, मरण उसी का होय।
कभी नहीं संसार में, अमर हुआ है कोय।।६७।।
हुई प्रतिष्ठा शान पर, गुरु बिन शोभे नाय।
धर्मसिंधु को पट्ट पद, दीनो सब मिल आय।।६८।।
धर्म सिंधु आचार्य पद, हुआ चतुर्विध संघ।
मुनी आर्यिका क्षुल्लिका, क्षुल्लक ऐलक अंग।।६९।।
इसी तीर्थ पर आर्यिका, दीक्षा ली जब मोय।
धर्मसिंधु आचार्य को, गुरू बनाया सोय।।७०।।
धर्म सिंधु आचार्य को, कर विहार जब संघ।
‘रत्न आर्यिका ज्ञानमति’ और सभी थे संग।।७१।।
क्रम क्रम से जब गमन कर, पहुंच खानिया संघ।
खूब तत्त्व चर्चा हुई, हो प्रभावना अंग।।७२।।
मुनि श्रेयांस के साथ में, पदमपुरी को जाय।
दर्शन कर आनंद लह, पुन: खानिया आय।।७३।।
कुछ दिन रहकर वहाँ से, पहुँचो जयपुर संघ।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास कर संग।।७४।।
कभी होय स्वाध्याय अरु, कभी होय उपदेश।
कभी धर्म चर्चा चले, धरे दिगम्बर भेष।।७५।।
चातुर्मास के बाद सब, कर विहार झट टोंक।
नसिया जी के दर्शन कर, मग्न होय तज शोक।।७६।।
हो समाज की प्रेरणा, चातुर्मास कर संघ।
पंचकल्याणक हो जभी, कर प्रभावना अंग।।७७।।
पुन: वहाँ से गमन कर, पहुँच किशनगढ़ संघ।
ज्ञानसिंधु आचार्य का, संघ मिला सानंद।।७८।।
मैं भी रहकर संघ में, चारित ज्ञान बढ़ाय।
लोहा से पारस बनूँ, यही सोच मन भाय।।७९।।
पुन: संघ अजमेर में, पहुँचो नसिया खास।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास कर ठाठ।।८०।।
जभी गुरू का संघ मैं, छोड़ किशनगढ़ खास।
ज्ञानसिंधु के संघ में, रही ज्ञान के काज।।८१।।
जब समाज कर प्रेरणा, चातुर्मास कर संघ।
रही किशनगढ़ मैं जभी, हो प्रभावना अंग।।८२।।
ज्ञानसिंधु से मैं जभी, ज्ञानवृद्धि के हेतु।
न्याय राजवार्तिक पढ़ो, मनन कियो निज केतु।।८३।।
चातुर्मास उपरांत भी, संघ टिका अजमेर।
धर्म सिंधु आचार्य जी, कर आतम से मेल।।८४।।
जन्म दातृ माँ मोहनी, उर वैराग्य समात।
धर्म सिंधु आचार्य से, दीक्षा की कर बात।।८५।।
चार पुत्र नौ पुत्रियाँ, तज कुटुंब परिवार।
सभी लोग व्याकुल भये, बहे अश्रु की धार।।८६।।
पर माता सब मोह तज, दृढ़ प्रतिज्ञ स्वाधीन।
सब संसार असार लख, हो निश्चल निज लीन।।८७।।
आखिर झट दीक्षा लई, धर्मसिंधु से खास।
‘रत्नमती’ शुभ नाम धर, हुई आर्यिका मात।।८८।।
चातुर्मास के बाद दीक्षा में पहुँचो अजमेर।
मात मोहनी से जभी, मिलन होय बहु देर।।८९।।
केशलोंच हम भी कियो, जन्म दातृ का खास।
पर निश्चल माता रहीं, नहीं हिले पग हाथ।।९०।।
धन्य धन्य माता अहो, तुम रत्नों की खान।
रत्न अलौकिक तुम जने, जिससे हो कल्याण।।९१।।
त्रिया लिंग है निंद्य जी, तप से छिंदन कीन।
तप व्रत संयम के बिना, त्रिया लिंग नहिं क्षीण।।९२।।
अगहन सुदि पूनम दिवस, हो विहार गुरु संघ।
तीस वर्ष की उम्र में, मम वियोग गुरु संघ।।९३।।
रहीं संग निर्वाणमति, दोय रही अजमेर।
पर वियोग गुरु संघ का, मम दु:ख देवे जोर।।९४।।
रत्नमती अरु ज्ञानमति, धर्म सिंधु गुरुराज।
और सभी गुरु संघ का, हो वियोग मम लाज।।९५।।
इसी दैव उपसर्ग ने, कर वियोग गुरु संघ।
विधि रेखा बलवान है, सबको कर नित दंग।।९६।।
पुन: धैर्य रखकर जभी, दोनों किया विहार।
पहुँच केकड़ी गाँव में, गुरु को उर में धार।।९७।।
सन्मतिसागर गुरु का, संघ मिलो है खास।
कुछ दिन रहकर संघ में, कर प्रभावना ठाठ।।९८।।
क्रम क्रम से जब गमन कर, पहुँच शाहपुर ग्राम।
श्रुतसागर जी गुरु का, संघ मिलो है शान।।९९।।
हो विहार जब संघ का, रही अकेली जान।
कर्मों की गति ना टले, होनहार बलवान।।१००।।
जिन प्रतिमा ढिग आय कर, लई प्रतिज्ञा साध।
यात्रा हो बुंदेलखण्ड, जब लग चावल त्याग।।१०१।।
पुन: वहाँ से गमन कर, चँवलेश्वर को आय।
अतिशय क्षेत्र कह्यो जहाँ, पारसनाथ सहाय।।१०२।।
श्वेताम्बर अरु जैन में, बढ़ो विवाद महान।
अरु मुझ पर उपसर्ग का, गुंडों ने ले ठान।।१०३।।
जभी प्रभू की भक्तिकर, उर में धर प्रभु ध्यान।
तत्क्षण ही उपसर्ग अरु, टले विवाद महान।।१०४।।
चँवलेश्वर प्रभु पार्श्व की, महिमा अगम अपार।
बारबार वंदन करूँ, सब संकट हो निवार।।१०५।।
दर्शन कर उर में जभी, आत्मशांति छा जाय।
प्रभु से मैं विनती करी, भव दुख रोग पलाय।।१०६।।
फिर पारोली आयकर, बागूदार लहात।
भरणी से रोपा पहुँच, केशलोंच कर ठाठ।।१०७।।
अरु पंडेर पधारकर, पहुँच ठिठोड़ी ग्राम।
अरु लसाढ़िया गोर्दा, तिसूंदनी मेरु नाम।।१०८।।
पुन: शीघ्र ही गमन कर, सावर ग्राम लहाय।
धार्मिक संत जहाँ बसे, चातुर्मास करवाय।।१०९।।
सिद्धचक्र का पाठ रच, कर प्रभावना ठाठ।
धर्मामृत उपदेश का, लाभ लियो सब साथ।।११०।।
फिर कालेरा पहुँच कर, झट वाषा में आय।
और बघेरा ग्राम लह, अतिशय क्षेत्र कहाय।।१११।।
दर्शन कर हो शांति फिर, टोडाराय लहाय।
जहाँ धार्मिक संत बहु, और व्रती कहलाय।।११२।।
सन्मतिसागर ऋषी की, जन्मभूमि कहलाय।
और आर्यिका शांतिमती, ले दीक्षा झट आय।।११३।।
राजमहल जब पहुँचकर, शांतिविधान रचाय।
श्रवण कियो उपदेश सब, उर में हर्ष मनाय।।११४।।
फिर बावड़ी कासीर लह, शीघ्र देवली आय।
और देवली छावनी, में आनंद मनाय।।११५।।
पुन: पेंच की बावड़ी, में जिन शिखर बनाय।
और कल्ाश चढ़वाय के, ग्राम टोंकड़ा आय।।११६।।
हिंडोली में गमन कर, नयागाँव पधराय।
शीघ्र अलोद सतूर से, बूंदी शहर लहाय।।११७।।
देहपुरा फिर गमनकर, तालेड़ा में आय।
जमीपुरा में पहुँचकर, शांतिविधान रचाय।।११८।।
फिर नौताड़ा गमनकर, शीघ्र सुवासा ग्राम।
अरु चित्तावा पहुँचकर, केशरिया में आन।।११९।।
दर्शन कर हो शांति उर, अतिशय क्षेत्र कहाय।
केशरिया पाटन गयो, उर में हर्ष मनाय।।१२०।।
कोटा स्टेशन गयो, अरु कोटा सिटी में आय।
फिर कोटा की छावनी, अरु खेतून लहाय।।१२१।।
तथा खर्जुरा गमन कर, चाँदखेरी में आय।
अतिशय क्षेत्र कह्यो जहाँ, दर्शन कर सुख पाय।।१२२।।
फिर सारोला ग्राम लह, केशलुंच करवाय।
हो प्रभावना ठाठ से, धार्मिक संत कहाय।।१२३।।
छीपा बडोद में आयकर, फिर छबड़ा पधराय।
राजस्थान में घूमकर, मध्यप्रदेश में आय।।१२४।।
धरनावदा में पहुँचकर, रुठियाई में आय।
अतिशय क्षेत्र बजरंगगढ़, बुंदेलखण्ड कहाय।।१२५।।
अतिशय क्षेत्र के दर्श कर, हो उर शांति महान।
शीघ्र गुना में पहुँचकर, साडोरा लहं ग्राम।।१२६।।
फेर अशोक नगर लहे, अरु अमरोद कहाय।
तारई से थूवोन जी, अतिशय क्षेत्र लहाय।।१२७।।
अरु चंदेरी भी गयो, अतिशय क्षेत्र बखान।
चौबीसी के दर्श कर, हो उर हर्ष महान।।१२८।।
पुन: गमन कर शीघ्र ही, प्रानपुरा में आय।
अरु सिरसोद में आयकर, बारी गाँव लहाय।।१२९।।
बारी में पहुँचो जभी, यू.पी. प्रांत कहाय।
शीघ्र देवगढ़ पहुँचकर, अतिशय क्षेत्र लहाय।।१३०।।
दर्शनीय अरु पूज्यनिय, कलाकेंद्र सुखधाम।
असंख्यात मूर्त्ती जहाँ, दिखे अजब चित्राम।।१३१।।
यात्री गण नित दर्श कर, पावें सुक्ख महान।
योगी गण नित ध्यान धर, पहुँचो शिवपुर थान।।१३२।।
जाखलोन पहुँचो पुन:, ललितपुरी में आन।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।।१३३।।
धार्मिक संत जहाँ बसे, और बसे विद्वान।
केशलुंच कर ठाठ से, कर प्रभावना शान।।१३४।।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञान ज्योति जगाय।
दियो धर्म उपदेश जब, उर में हर्ष मनाय।।१३५।।
क्षेत्रपाल है जहाँ पर, अरु इंटर कालेज।
लाखों जनसंख्या दिखे, ललितपुरी है केन्द्र।।१३६।।
पुन: गमन सीरोन जी, अतिशय क्षेत्र बखान।
तीरथ के दर्शन कियो, हो उर हर्ष महान।।१३७।।
फेर ललितपुर से जभी, मृचवारा में आय।
शीघ्र सिलावन ग्राम से, महरौनी पधराय।।१३८।।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।
दियो धर्म उपदेश जब, सब ही हर्ष मनाय।।१३९।।
पुन: बानपुर आयकर, जो लहं मध्यप्रदेश।
फिर टीकमगढ़ आयकर, दियो धर्म उपदेश।।१४०।।
धर्मसिंधु आचार्य की, हुई जयंती खास।
केशलुंच कर जहाँ पर, हो प्रभावना ठाठ।।१४१।।
टीकमगढ़ से कोस इक, दिखे पपौरा क्षेत्र।
छटा निराली सौम्य मय, जो है अतिशय क्षेत्र।।१४२।।
शीघ्र पपौरा गमन कर, दर्शन कर सुखपाय।
सभी जिनालय मूर्त्तियाँ, को लख हर्ष मनाय।।१४३।।
हुआ पठा में गमन जब, नारायणपुर आन।
अरु अहार जी गमन जो, अतिशय क्षेत्र बखान।।१४४।।
सभी मूर्त्ति के दर्श कर, लहे आत्म में शांति।
शीघ्र प्रभू का ध्यान धर, मिटे सभी उर भ्रांति।।१४५।।
पुन: वहाँ से लार अरु, पहुँच दरगुवा ग्राम।
बड़ागाँव से नवागढ़, अतिशय क्षेत्र बखान।।१४६।।
दर्शन कर मन शांत हो, पुन: घुंवारा आय।
अरु द्रोणागिर गमन जो, सिद्धक्षेत्र कहलाय।।१४७।।
गुरुदत्तादिक मुनीश्वर, मुक्ति गये शिरनाय।
जो तीरथ पर ध्यान धर, जीवन सफल बनाय।।१४८।।
पुन: गमन कर शीघ्र ही, मल्हारा में आय।
सड़वा ग्राम व दरगुवा, हीरापुर पधराय।।१४९।।
अरु मरुदेवरा आयकर, पुन: शाहगढ़ जाय।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।।१५०।।
जब विहार कर वहाँ से, ग्राम बमोरी आय।
सुनुवाहा उपदेश कर, बक्सवाहा पधराय।।१५१।।
फेर पडरिया में गयो, पहुँच निमानी ग्राम।
पुन: गमन कर बाजना, में स्कूल खुलाय।।१५२।।
फिर विहार कर वहाँ से, रानीताल लहाय।
और विजावर पहुँचकर, सटई ग्राम कहाय।।१५३।।
तथा बमीठा में गयो, फिर खजुराहो आय।
दर्शनीय अरु पूज्यनीय, अतिशय क्षेत्र कहाय।।१५४।।
दर्शनकर मन शांत हो, कलाकेंद्र सुखधाम।
संत साधु नित ध्यान धर, पहुँचे शिवपुर थान।।१५५।।
खजुराहो से राजनगर, विक्रमपुर में आन।
पुन: छतरपुर में गमन, चातुर्मास कर शान।।१५६।।
फिर पीरा में आयकर, चंद्रनगर पधराय।
पुन: गमन कर शीघ्र ही, पन्ना ग्राम लहाय।।१५७।।
महिला मण्डल खोलकर, करियो शांति विधान।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना शान।।१५८।।
फिर देवेन्द्र नगर लहे, शांति विधान कराय।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।।१५९।।
झट ककरहटी पहुँचकर, दियो धर्म उपदेश।
बाल पाठशाला खुले, जगे ज्ञान की ज्योत।।१६०।।
विनय बिना विद्या नहीं, विद्या बिन नहिं ज्ञान।
ज्ञान बिना निंह सुख कभी, यह निश्चय कर जान।।१६१।।
कियो विहार गुनोर झट, महिला मण्डल खोल।
शांति विधान करायकर, अन्तर के पट खोल।।१६२।।
पुन: महेवा आयकर, खुलो शीघ्र स्कूल।
गुड्डा गुड्डी आयकर, पढ़े हर्ष बिन मूल।।१६३।।
पवई में झट गमन कर, कुंवरपुरा में आय।
शीघ्र हरदुवा पहुँचकर, कोटा ग्राम लहाय।।१६४।।
कोटा से झट पहुँचकर, लहं कुण्डलपुर क्षेत्र।
श्रीधर केवलि मोक्ष लहं, धरो नाम सिद्धक्षेत्र।।१६५।
पाप करे जो फल मिले, अतिशय क्षेत्र कहाय।
बासठ मंदिर हैं जहाँ, सब प्रतिमा शिर नाय।।१६६।।
पुन: शीघ्र ही गमन कर, कुलुवा ग्राम लहाय।
गंज तथा बड़गाँव अरु, रीठी ग्राम में आय।।१६७।।
महिला मण्डल खोलकर, अरु कर शांति विधान।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना शान।।१६८।।
कटनी शहर में आयकर, शांतिविधान कराय।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।।१६९।।
धार्मिक संत जहाँ बसे, और बसे विद्वान।
दियो धर्म उपदेश जब, कर प्रभावना शान।।१७०।।
पुन: पहाड़ी ग्राम लहं, महिला मण्डल खोल।
शांति विधान कराय कर, हृदय का पट खोल।।१७१।।
अरु पिपरोद विहार कर, शीघ्र तेवरी आय।
खुलो पाठशाला जभी, ज्ञानज्योति जगाय।।१७२।।
अरु सलेमनाबाद में, महिला मंडल खोल।
दियो धर्म उपदेश जब, निज में ही मन मोड़।।१७३।।
गयो बहोरीबंद में, अतिशय क्षेत्र कहाय।
शांति प्रभू के दर्श कर, उर में शांति लहाय।।१७४।।
हुवो सिहोरा में गमन, शांति विधान कराय।
महिला मण्डल खोलकर, उर में हर्ष मनाय।।१७५।।
अरु गोसलपुर गमनकर, फेर पनागर आय।
शांतिप्रभु अतिशय अहो, दर्शनकर सुख पाय।।१७६।।
महिला मण्डल खोलकर, शांतिविधान कराय।
कर प्रभावना ठाठ से, उर में हर्ष मनाय।।१७७।।
पुन: गमन कर जबलपुर, धार्मिक संत महान।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।।१७८।।
कर प्रभावना ठाठ से, फिर मणिया में आय।
बेड़ाघाट विहार कर, फेर सहजपुर जाय।।१७९।।
महिला मण्डल खोलकर, केशलोंच कर खास।
शीघ्र विधान करायकर, हो प्रभावना ठाठ।।१८०।।
फिर पाटन कोनी गयो, अतिशय क्षेत्र कहाय।
दर्शन कर सब मूर्ति के, उर में हर्ष मनाय।।१८१।।
पुन: कटंगी ग्राम लह, महिला मण्डल खोल।
खुलो पाठशाला जभी, हो सब हर्ष विभोर।।१८२।।
सिंगरामपुर पहुँचकर, दियो धर्म उपदेश।
कर समाज में संगठन, मिटो सभी संक्लेश।।१८३।।
खुलो पाठशाला जभी, बालक पढ़ने जाय।
ज्ञान उपार्जन के लिए, उर में हर्ष मनाय।।१८४।।
मात पिता वे शत्रु हैं, बालक को न पढ़ाय।
सभी मध्य निंह शोभते, सब ही हँसी उड़ाय।।१८५।।
ज्ञानी ही नित पूज्य हैं, सभी जगह सुख पाय।
इहभव परभव में सुखी, अरु आतम को ध्याय।।१८६।।
कोटि जन्म तक तप कियो, फिर भी नित दु:ख पाय।
अज्ञानी की यह दशा, मुख से कह्यो न जाय।।१८७।।
पुन: हर्ष से गमन कर, शीघ्र जबेरा आय।
कर समाज में संगठन, उर में हर्ष मनाय।।१८८।।
कर विहार हरदुवा में, नोहटा ग्राम लहाय।
कर प्रभावना ठाठ से, फेर अभाना आय।।१८९।।
केशलोंच कर ठाठ से, हो प्रभावना शान।
दियो धर्म उपदेश जब, सुनो भव्य विद्वान।।१९०।।
पुन: दमोह विहार कर, कर प्रभावना शान।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।।१९१।।
केशलोंच कर ठाठ से, दियो धर्म उपदेश।
फिर कुण्डलपुर गमन कर, सिद्ध व अतिशय क्षेत्र।।१९२।।
बासठ हैं मंदिर जहाँ, बाबा बड़े कहाय।
क्रम-क्रम से सब मूर्ति के, दर्शन कर सुख पाय।।१९३।।
फिर दमोह में गमन कर, बांसा ग्राम लहाय।
और गड़ाकोटा कहे, आकर मन हर्षाय।।१९४।।
महिला मण्डल खोलकर, शांतिविधान कराय।
दियो धर्म उपदेश जब, ज्ञानज्योति जगाय।।१९५।।
रेहली सिटी में गमन कर, दियो धर्म उपदेश।
महिला मण्डल खोलकर, जगे ज्ञान की ज्योत।।१९६।।
पुन: चांदुपर आयकर, धर्मामृत वर्षाय।
खुलो पाठशाला जभी, सब जन उर हर्षाय।।१९७।।
अनंतपुरा में पहुँचकर, झट स्कूल खुलाय।
कर समाज में संगठन, सब जन हर्ष मनाय।।१९८।।
पहुँच सिंगपुर शीघ्र ही, दियो धर्म उपदेश।
खुलो पाठशाला जभी, मिटो राग अरु द्वेष।।१९९।।
हर्ष पूर्व जब गमन कर, बीनावारा आय।
दर्शन कर उर हर्ष हो, अतिशय क्षेत्र कहाय।।२००।।
शीघ्र गमन महाराजपुर, धर्मामृत वर्षाय।
खुलो पाठशाला जभी, सब आनंद मनाय।।२०१।।
पुन: देवरी गमन कर, महिला मंडल खोल।
शांति विधान कराय कर, कियो एक दिल खोल।।२०२।।
गोरझामर झट आयकर, शांतिविधान कराय।
महिला मण्डल खोलकर, धर्म में प्रीति बढ़ाय।।२०३।।
सुरखी में फिर आयकर, महिला मण्डल खोल।
दियो धर्म उपदेश जब, अंतर का पट खोल।।२०४।।
मोकलपुर में गमनकर, सागर में झट आय।
जहाँ व्रती विद्वान अरु, धार्मिक संत कहाय।।२०५।।
वर्णी विद्यालय जहाँ, अरु इंटर कालेज।
बाहुबली मूर्ती महा, दर्शन कर हर क्लेश।।२०६।।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना शान।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।।२०७।।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।
नर नारी पुरजन सभी, उर में हर्ष बढ़ाय।।२०८।।
पुन: गमन कर शीघ्र ही, जयसीनगर लहाय।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञान ज्योति जगाय।।२०९।।
बीच बीच में दैवकृत, हो उपसर्ग महान।
विधि रेखा टलती नहीं, होनहार बलवान।।२१०।।
बांसा में फिर गमन कर, मसुरयाई पधराय।
भक्तामर का पाठ कर, अरु विमान निकलाय।।२११।।
वीर जयंती के दिवस, कियो महोत्सव जान।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना शान।।२१२।।
फिर राहतगढ़ आयकर, दियो धर्म उपदेश।
महिला मण्डल खोलकर, जग्यो ज्ञान की ज्योत।।२१३।।
श्रीफल दियो समाज जब, चातुर्मास ले ठान।
कियो दैव उपसर्ग बहु, कर आतम का ध्यान।।२१४।।
फेर मसुरयाई गमन, शीघ सिहोरा आय।
भक्तामर का पाठ कर, धर्मामृत वर्षाय।।२१५।।
केशलोंच कर ठाठ से, हो प्रभावना शान।
फिर सागर में गमन कर, लियो लाभ सब जान।।२१६।।
नरयावली में आयकर, ईश्वरबारा आय।
अतिशय क्षेत्र कहे महा, दर्शन कर सुख पाय।।२१७।।
शिक्षण शिविर लगायकर, महिला मण्डल खोल।
दियो धर्म उपदेश जब, जगे ज्ञान की ज्योत।।२१८।।
फिर लोहारी गमन कर, दियो धर्म उपदेश।
कीर्तन मंडल खोलकर, कर समाज में एक।।२१९।।
पुन: बांधरी गमन कर, लहं पिठौरिया ग्राम।
अतिशय क्षेत्र कह्यो जहाँ, छटा निराली जान।।२२०।।
दर्शन कर मन शांत हो, दियो धर्म उपदेश।
सब नर नारी लाभ लें, मिटे राग अरु द्वेष।।२२१।।
फिर जरुवाखेड़ा गयो, कर भक्तामर पाठ।
केशलोंच कर शीघ्र ही, हो प्रभावना ठाठ।।२२२।।
दियो धर्म उपदेश जब, महिला मण्डल खोल।
खुलो पाठशाला जभी, जगे ज्ञान की ज्योत।।२२३।।
जब खुरई में गमन कर, आग्रह कियो समाज।
दियो धर्म उपदेश जब, चातुर्मास कर ठाठ।।२२४।।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।
समयसार रचना कियो, उर में हर्ष मनाय।।२२५।।
और बहुत रचना कियो, आत्मशांति के काज।
पंडित जन आश्चर्य कर, देख देख हर्षात।।२२६।।
फिर खिमलासा गमन कर, दियो धर्म उपदेश।
भक्तामर का पाठ कर, मिटो सभी संक्लेश।।२२७।।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञान ज्योति जगाय।
हो प्रभावना ठाठ से, उर में हर्ष मनाय।।२२८।।
पुन: शीघ्र ही गमन कर, बालाबेट लहाय।
कर समाज में संगठन, अतिशय क्षेत्र कहाय।।२२९।।
मालथोन फिर गमन कर, अरु बटोदिया आय।
हो प्रभावना ठाठ से, सिद्धचक्र रचवाय।।२३०।।
फिर विहार कर मदनपुर, अतिशय क्षेत्र कहाय।
दर्शन कर मन शांत हो, उर में हर्ष बढ़ाय।।२३१।।
फिर बरोदिया गमन कर, अरु रजवास में आय।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।।२३२।।
फिर वरोदिया गमन कर, मालथोन में आय।
बालावेट में आयकर, इंद्रध्वज रचवाय।।२३३।।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना ठाठ।
सब जन मिल पूजन करें, उर में हर्ष मनात।।२३४।।
फेर महोली गमन कर, शांति विधान कराय।
दियो धर्म उपदेश जब, फिर पाली में आय।।२३५।।
महिला मण्डल खोलकर, सिद्धचक्र रचवाय।
हो प्रभावना ठाठ से, ज्ञानज्योति जगाय।।२३६।।
पुन: देवगढ़ आयकर, अतिशय क्षेत्र कहाय।
कर प्रभावना ठाठ से, खूब विधान कराय।।२३७।।
जाखलोन फिर आय के, सिद्धचक्र करवाय।
कर प्रभावना ठाठ से, धार्मिक संत कहाँय।।२३८।।
शीघ्र ललितपुर गमन कर, दियो धर्म उपदेश।
हो प्रभावना ठाठ से, उर में हर्ष विशेष।।२३९।।
महिला मण्डल खोलकर, इंद्रध्वज रचवाय।
सब जन मिल पूजन करें, उर में हर्ष मनाय।।२४०।।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।
‘‘पुरुषार्थ सिद्धिउपाय’’ रचो, अरु रचना कर शान।।२४१।।
फिर रोड़ा में गमन कर, वांसी ग्राम लहाय।
कियो विहार जमालपुर, तालबेट में आय।।२४२।।
कर समाज में संगठन, कर भक्तामर पाठ।
दियो धर्म उपदेश जब, सब जन हर्ष मनात।।२४३।।
फिर पावागिर आयकर, अतिशय क्षेत्र कहाय।
दर्शन कर मन शांत हो, उर में हर्ष बढ़ाय।।२४४।।
शीघ्र बबीना ग्राम लह, कर भक्तामर पाठ।
दियो धर्म उपदेश जब, कर प्रभावना ठाठ।।२४५।।
फिर झांसी में गमन कर, महिला मंडल खोल।
कर प्रभावना ठाठ से, हृदय का पट खोल।।२४६।।
प्रतिक्रमण रचना कियो, अरु रचना कर शान।
दियो धर्म उपदेश जब, अरु कर आतम ध्यान।।२४७।।
सिद्धक्षेत्र सोनागिरी, में झट कियो विहार।
छटा निराली मूर्ति लख, उर में हर्ष अपार।।२४८।।
ऊपर सत्तासी कहें, जिनमंदिर सुखकार।
नीचे में सतरह कहें, जिनमंदिर मनहार।।२४९।।
चन्द्रप्रभु भगवान का, अतिशय दिखे महान।
जो नर नारी दर्शकर, संकट कटें महान।।२५०।।
मानस्तंभ व समवसरण, रचना हुई अपार।
अरु सम्मेदशिखर कह्यों, दर्शन कर हो पार।।२५१।।
योगीगढ़ नित ध्यान धर, सहजिक सुख को पाय।
अरु नर नारी भजन कर, पुण्य बांध ले जाय।।२५२।।
सिद्धक्षेत्र अतिशय महा, कलाकेंद्र शिवधाम।
जो नर नारी दर्शकर, वे लहं मुक्ति निधान।।२५३।।
सोनागिर जी आयकर, तत्त्व चिंतवन कीन।
सभी मूर्ति के दर्श कर, निज आतम में लीन।।२५४।।
वे निश्चित जग से तिरें, हों संसार विलीन।
भव समुद्र से पार हों, निज रस में लवलीन।।२५५।।
नंगानंग कुमार ऋषि, साढ़े पंच करोड़।
सोनागिर से मुक्ति लहे, नमूँ सभी कर जोड़।।२५६।।
सभी मूर्ति के दर्श कर, उर में हर्ष महान।
‘आत्मानुशासन’ ग्रंथ की, रचना की है शान।।२५७।।
और बहुत रचना कियो, सोनागिरि में आन।
तीर्थ वंदना नित कियो, जो अतिशय सुखखान।।२५८।।
बुंदेल खण्ड यात्रा निमित्त, छोड़ा गुरु का संघ।
दर्शनीय अरु पूज्यनीय, मूर्ति दिखे सानंद।।२५९।।
सिद्धक्षेत्र के दर्शकर, सिद्ध हुए सब काज।
अतिशय क्षेत्र के दर्श कर, हुई सफलता आज।।२६०।।
अंतिम बुंदेलखण्ड का, सोनागिर है क्षेत्र।
सब यात्रा हो सफल मम, दर्शन कर हर क्लेश।।२६१।
सोनागिर के दर्श कर, चावल जब मम लेय।
उर में शांति अपार हो, धर्मामृत को देय।।२६२।।
गुरुओं के आशीष से, रचना हुई महान।
भूल चूक यदि हो कहीं, क्षमा करें विद्वान।।२६३।।
फिर डबरा में आयकर, चौरासी पधराय।
फिर विहार लश्कर कियो, चंपाबाग कहाय।।२६४।।
मंदिर चंपाबाग में, श्रीफल दियो समाज।
चातुर्मास जभी कियो, हो प्रभावना ठाठ।।२६५।।
इंद्रध्वज का पाठ कर, दियो धर्म उपदेश।
धार्मिक संत जहाँ बसे, भक्ति करें विशेष।।२६६।।
लश्कर के ही बीच में, ग्वालियर कियो विहार।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञान ज्योति अपार।।२६७।।
खुलो पाठशाला जभी, शिक्षण शिविर लगाय।
लियो लाभ नर नारियाँ, मन ही मन हर्षाय।।२६८।।
अरु मुरार में गमन कर, इंद्रध्वज करा पाठ।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना ठाठ।।२६९।।
माधोगंज में शीघ्र ही, महिला मण्डल खोल।
कर प्रभावना ठाठ से, हृदय का पट खोल।।२७०।।
नया बाजार कहे जहाँ, जिन मंदिर में आय।
महिला मण्डल खोलकर, ज्ञानज्योति जगाय।।२७१।।
छतरी के बाजार में, जिनमंदिर में आय।
भक्तामर का पाठ कर, दर्शन कर हर्षाय।।२७२।।
जेसवाल मंदिर कह्यो, हुई प्रतिष्ठा शान।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना जान।।२७३।।
पत्थर की है बावड़ी, गोपाचल कहलाय।
अतिशय क्षेत्र कहो महा, दर्शन कर हर्षाय।।२७४।
महिला मण्डल खोलकर, दियो धर्म उपदेश।
कर विधान सब ठाठ से, तजो राग अरु द्वेष।।२७५।।
पार्श्वप्रभू अतिशय महा, बाबा बड़े कहाय।
दर्शनीय अरु पूज्यनीय, क्षेत्र महा सुखदाय।।२७६।।
मेला लगे वँâुवार में, सब नर नारी आय।
पूजन भजन करें सभी, दर्शन कर हर्षाय।।२७७।।
इस प्रकार लश्कर महा, कलाकेंद्र स्थान।
नसिया मंदिर है जहाँ, धार्मिक संत महान।।२७८।।
यती बगीचे में अहो, केशलोंच कर ठाठ।
फिर चंपाबाग मंदिर गमन, कर भक्तामर पाठ।।२७९।।
मंदिर चंपाबाग में, कर इंद्रध्वज पाठ।
दियो धर्म उपदेश जब, हो प्रभावना ठाठ।।२८०।।
लश्कर चातुर्मास में, रचना कियो महान।
झट ‘परमात्मप्रकाश’ की, रचना करी है शान।।२८१।।
अरु ‘दसधर्म’ रचो जभी, कविता स्तुति कीन।
पार्श्वनाथ बाबा निकट, रचना हुई नवीन।।२८२।।
गुरुओं के आशीष से, रचना हुई महान।
सुधी सुधार पढ़ें सदा, दोष न लीजे आन।।२८३।।
‘पार्श्वप्रभू’ परसाद से, रचना हुई है शान।
‘अभयमती’ नित ध्यान धर, अरु कर आतमध्यान।।२८४।।
ग्वालियर किले के दर्श कर, दियो धर्म उपदेश।
होय विमोचन पुस्तिका, उर में हर्ष विशेष।।२८५।।
फालक मंदिर में गयो, दियो धर्म उपदेश।
भक्तामर का पाठ कर, उर में हर्ष विशेष।।२८६।।
फिर गोपाचल पर कियो, भक्तामर का पाठ।
होय विमोचन पुस्तिका, हो प्रभावना ठाठ।।२८७।।
इस प्रकार सब ही जगह, धर्मामृत वर्षाय।
सब जन को आशीष दूँ, मन ही मन हर्षाय।।२८८।।
तीस जिनालय हैं जहाँ, लश्कर सिटी कहाय।
सभी मूर्ति के दर्श कर, जीवन सफल बनाय।।२८९।।
फेर वहाँ से गमन कर, झट बामोर लहाय।
और मुरैना पहुँचकर, दर्शनकर सुख पाय।।२९०।।
धार्मिक संत जहाँ बसे, और बसे विद्वान।
संस्कृत विद्यालय जहाँ, पाँच जिनालय भाय।।२९१।।
महिला मण्डल खोलकर, सिद्धचक्र रचवाय।
हो प्रभावना ठाठ से, ज्ञानज्योति जगाय।।२९२।।
फिर सिहोनिया दर्श कर, अतिशय क्षेत्र लहाय।
दर्शन कर मन हर्ष हो, आत्म शांति छा जाय।।२९३।।
मानो भगवन कह रहे, तुम भी बनो भगवान।
हर आतम में शक्ति है, बन सकता है परमात्म।।२९४।।
फेर धौलपुर से गये, महावीर जी दर्श।
अतिशय क्षेत्र महा कहे, दर्शन कर हो हर्ष।।२९५।।
महावीर मूर्त्ती प्रगट, अतिशय उच्च महान।
जो भी ध्यान धारें वहाँ, पहुँचे शिवपुर थान।।२९६।।
कृष्णा कमला बाई का, लहं आश्रम सुखदान।
जिसमें मंदिर भी बनो, पढ़े बालिका आन।।२९७।।
और व्रती त्यागी जहाँ, ले अहार जल शुद्ध।
धार्मिक संत जहाँ बसे, कर भक्ती प्रतिबुद्ध।।२९८।।
शांतिनगर आचार्य श्री, शिवसागर बसवाय।
ब्रह्मचारी सूरज मल वहाँ, शीघ्र पहुँच बनवाय।।२९९।।
सुंदर चौबीसी बनी, शांतिनाथ भगवान।
अरु पारस के दर्शकर, महावीर धर ध्यान।।३००।।
शांतिसागर आचार्य की, छतरी बनी महान।
गुरुकुल विद्यालय जहाँ, पढ़ें छात्र नित जान।।३०१।।
सुंदर सौम्य सुहावना, वातावरण महान।
साधु संत नित ध्यान धर, कर चिंतन उर आन।।३०२।।
महावीर मंदिर जहाँ, है अति उच्च विशाल।
और बने मंदिर जहाँ, दर्शन कर नर-नार।।३०३।।
जैन धर्मशाला बनी, कमरे बने महान।
बाग बगीचों से सजे, अतिशय क्षेत्र बखान।।३०४।।
क्रम-क्रम से फिर गमन कर, पद्मपुरी को आय।
बाड़ा के श्री पद्मप्रभु, अतिशय क्षेत्र कहाय।।३०५।।
जहाँ मूर्ति प्रगटी सहज, चमत्कार दिखलाय।
जो यात्री दर्शन करे, भूत प्रेत भग जाय।।३०६।।
जो प्रभु की भक्ती करे, दर्शन कर सुख पाय।
शीघ्र सभी संकट कटें, सर्व पाप नश जाय।।३०७।।
बड़ी धर्मशाला बनी, कमरे बने महान।
बाग बगीचों से सजे, क्षेत्र महा सुख दान।।३०८।।
मैं प्रभु से विनती करी, काटो संकट नाथ।
भूत प्रेत बाधा हरो, रहूँ तुम्हारे पास।।३०९।।
जब प्रभु जी उत्तर दियो, ध्यान करो तुम नित्य।
सब उपसर्ग भगे जभी, यह संसार अनित्य।।३१०।।
प्रभु की वाणी सुन जभी, अमल कियो दिन रैन।
यथाशक्ति निज ध्यान कर, कर्मन को नहिं चैन।।३११।।
पूर्व कर्म जैसे किये, भोग रहे सब कोय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय।।३१२।।
ध्यान व तप बल पर सभी, कर्म किये चकचूर।
संयम चारित्रबिन कभी, मुक्ति लहे निंह शूर।।३१३।।
तपबिन स्त्रीलिंग भी, छिदे न उर में धार।
तप ही जग में सार है, झूठा सब संसार।।३१४।।
पराधीन नारीत्रिया, तीनों पन दुख पाय।
भेष आर्यिका जो धरें, वो क्रम से शिव जाय।।३१५।।
रत्नत्रय ही सार है, और सभी परपंच।
हे आत्मन्! निज को भजो, जब ही हो भव अंत।।३१६।।
फेर गमन कर शीघ्र ही, जयपुर केन्द्र लहाय।
धार्मिक संत जहाँ बसे, और व्रती कहलाय।।३१७।।
बड़ी बड़ी नसिया जहाँ, मंदिर खूब लहाय।
चैत्यालय भी खूब हैं, चूलगिरी बस जाय।।३१८।।
अरु प्रसिद्ध है खानियां, दर्शन कर सुखपाय।
साधु संत जहं ध्यान धर, आतमज्योति जगाय।।३१९।।
चौबीसों भगवान की, अतिशय मूर्ति लहाय।
अरु हीरा मूंगािद सब, लाखों मूर्ति कहाय।।३२०।।
पार्श्व भवन में आयकर, धर्मध्यान कर शान।
जब समाज नारियल दियो, चातुर्मास ले ठान।।३२१।।
तीन लोक का पाठ कर, हो प्रभावना ठाठ।
मृत्युंजय णमोकार अरु, कर भक्तामर पाठ।।३२२।।
रत्नत्रय नवग्रह रचो, अरु कर शांतिविधान।
‘रयणसार’ पद्यावली, रचना करी महान।।३२३।।
और खूब रचना कियो, सरस काव्य मय शान।
जिनवाणी संग्रह रचो, मृत्युंजय पद जान।।३२४।।
कालोनी भी खूब हैं, जयपुर में गुरु भक्त।
सभी जगह दर्शन कियो, कर प्रभावना हर्ष।।३२५।।
जयपुर में भी देवकृत, हो उपसर्ग महान।
पर चारित में दृढ़ रही, कर पारस प्रभु ध्यान।।३२६।।
पार्श्व प्रभू परसाद से, रचना हुई महान।
भूलचूक यदि हो कहीं, क्षमा करें विद्वान।।३२७।।
अरु गुरु के आशीष से, रचो निरालो काव्य।
सुधी सुधार पढ़ें सदा, दोष न लीजे आद्य।।३२८।।
गुरु वियोग चौदह वर्ष, दर्शन की लग आस।
जयपुर से झट गमन कर, पहुँच मोजमाबाद।।३२९।।
भाकरोट बगरू मिले, अरु बिच में मिल झाग।
दियो धर्म उपदेश जब, ज्ञान ज्योति उर जाग।।३३०।।
जब समाज आग्रह कियो, चातुर्मास ले ठान।
धार्मिक संत जहाँ बसे, कर प्रभावना शान।।३३१।।
मूर्ति सभी प्राचीन लहँ, अतिशय क्षेत्र महान।
सिद्धचक्र आदिक सभी, कर विधान बहु शान।।३३२।।
चमत्कारि श्री ऋषभ ढिग, कर भक्तामर काव्य।
भूलचूक यदि हो कहीं, क्षमा करें बुध आर्य।।३३३।।
जो भक्तामर पाठ कर, संकट सभी पलाय।
आदिनाथ परसाद से, कार्य सफल हो जाय।।३३४।।
दूदू कियो विहार फिर, कर प्रभावना ठाठ।
द्वीप अढाई आदि का, कर विधान बहु पाठ।।३३५।।
दूदू से दातृ अरु पाटन, पुन: किशनगढ़ आय।
धर्म प्रभावना कर यहाँ, मन में हर्ष बढ़ाय।।३३६।।
फिर साखून नरैना आकर, लूनवाँ अतिशय क्षेत्र।
कर विधान बहु ठाठ से, मन में हर्ष विशेष।।३३७।।
लूनवा में गुरु धर्म सिंधु, संघ चातुर्मास कर ठाठ।
चौदह वर्ष के बाद में मिलो गुरु आशीर्वाद।।३३८।।
बुंदेलखण्ड में घूम-घूम कर, चौदह वर्ष बिताय।
कर प्रभावना खूब मैं, शिक्षण शिविर लगाय।।३३९।।
गुरुकुल विद्यालय सभी, महिला मण्डल खोल।
पुन: गुरू के संघ में, आय हृदय पट खोल।।३४०।।
लूनवा से मारोठ आदि, रनवाल नारनोल में आय।
पाली रेवाड़ी पधारकर, खूब विधान रचाय।।३४१।।
पाटोदी फर्रुखनगर, गुड़गाँव से पालम आय।
दिल्ली केंट की सभी, कालोनी में आकर हर्षाय।।३४२।।
सभी जगह बहु घूम कर, महिला मण्डल खोल।
गुरुकुल अरु स्कूल खोलकर, शिक्षणशिविर अमोल।।३४३।।
पुन: गाजियाबाद से, मोदीनगर में आय।
फेर वहाँ से ब्रह्मपुरी अरु, मेरठ शहर में जाय।।३४४।।
मेरठ शहर से पहुँच मवाना, हस्तिनागपुर आय।
जगह-जगह कर बहुप्रभावना, जन-जन मन हर्षाय।।३४५।।
हस्तिनापुर तीर्थ के, दर्शन कर पुण्य कमाय।
ज्ञानमती जी के दर्श कर, हृदय कमल खिल जाये।।३४६।।
माँ के आशीर्वाद से जंबूद्वीप, बसाय।
नये नये मंदिर बने, महिमा कही न जाये।।३४७।।
हुई पे्रेरणा मात की, रचना बनी महान।
अद्भुत रचना देखकर, श्रावक करें गुणगान।।३४८।।
चौदह वर्ष बितायकर, मैं जंबूद्वीप में आय।
सुंदर रचना देखकर, मन ही मन हर्षाय।।३४९।।
जंबूद्वीप सेसरधना, अरु बरनावा में आय।
चातुर्मास कर ठाठ से, ज्ञानज्योति जगाय।।३५०।।
इंद्रध्वज अरु धर्मचक्र का, फौरन पाठ कराय।
ज्ञान दान देकर घर-घर में, शिक्षण शिविर लगाय।।३५१।।
कर प्रभावना खूब ही, क्षेत्र विकास कराय।
खूब क्षेत्र की उन्नति, औषधालय खुलवाय।।३५२।।
बरनावा से गमन कर, बड़े गाँव में आय।
पार्श्वप्रभू महिमा अगम, अतिशय क्षेत्र कहाय।।३५३।।
चातुर्मास कर ठाठ से, क्षेत्र पे रथ दिलवाय।
सिद्धचक्र का पाठ रचो, सुंदर अर्थ समझाय।।३५५।।
फिर क्रम-क्रम से गमन कर, क्षेत्र वहलना आय।
चातुर्मास कर ठाठ से, खूब विधान रचाय।।३५६।।
मंसूरपुर मुजफ्फरनगर महलका, बहसूमा में जाय।
पुन: खतौली नसिया जाकर, धर्मचक्र कराय।।३५७।।
इस प्रकार छोटे-छोटे, गाँवों में कियो विहार।
हुई प्रभावना खूब ही, कर समाज उद्धार।।३५८।।
बच्चों का स्कूल और महिला मंडल को खोल।
ज्ञानदान धर्मोपदेश दे अंतर में रस घोल।।३५९।।
चातुर्मास कर नसिया में, फिर खूब विधान कराय।
धार्मिक संत जहाँ बसें, मन ही मन हर्षाय।।३६०।।
पुन: गमन कर शाहपुर, चातुर्मास कर शान।
धर्मचक्र का पाठ कर, धर्मामृत कर पान।।३६१।।
देव शास्त्र गुरु भक्तिकर, ऐसे संत महान।
कर प्रभावना ठाठ से, सेवा व्रत कर दान।।३६२।।
फेर बुढ़ाना और मुल्हैड़ा, जाकर दे उपदेश।
वैय्यावृत्य कियो श्रावक ने, बांधे पुण्य विशेष।।३६३।।
पुन: महलका गमन कर, शीघ्र मवाना आय।
हस्तिनागपुर पहुुँचकर, दर्शन कर मन भाय।।३६४।।
पहुँचे जंबूद्वीप में, खूब कियो विश्राम।
अस्वस्थ होकर भी दर्शन कर, व्रत तप जप कर ध्यान।।३६५।।
इंद्रध्वज अरु धर्मचक्र का, मैंने पाठ कराय।
पाँच करोड़ महामंत्र कर, आतम शक्ति बढ़ाय।।३६६।।
इस प्रकार सन् १९७१ से लेकर पूज्य माताजी के दर्शन हेतु वापस आने तक का संक्षिप्त वर्णन पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने अपनी बुन्देलखण्ड यात्रा में स्वयं लिखकर प्रदान किया है। उसके पश्चात् भी पूज्य माताजी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई नगरों में चातुर्मास करके धर्मप्रभावना की तथा मवाना, खतौली आदि नगरों में चातुर्मास करके धर्मप्रभावना की तथा जम्बूद्वीप स्थल हस्तिनापुर में उन्होंने ९ चातुर्मास सम्पन्न किये हैं, आगे भी वे इसी प्रकार धर्मकार्यों में हमेशा अपना उपयोग स्थिर करती रहें, यही कामना है।
पूज्य आर्यिका अभयमति, को वन्दन शतबार।
रत्नत्रय की साधना, है जिनमें साकार।।
पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने सन् १९६४ से लेकर सन्
२००७ तक के इन वर्षों में कहाँ-कहाँ पर चातुर्मास स्थापित किए, उनसे आपको परिचित कराया जा रहा है-