भारतीय नारी जीवन विश्ववन्द्य, सर्वोच्च परमपावन अवस्था को प्राप्त है। जिनागम में इसे महती प्रतिष्ठा उपलब्ध है, इसे परम्परामोक्षमार्गस्य एवं धर्म की ध्वजा भी कहा है। आत्मशोधन का साधन महाव्रत धारण करने का उसे अधिकार दिया गया है। पुरुष श्रमण हो सकता है, उसी प्रकार वह भी श्रमणी होने की योग्यता रखती है, परन्तु निग्र्रंथ नहीं हो सकती अर्थात् दिगम्बर रूप धारण करने की योग्यता नहीं बतायी।
द्रव्य से भले ही एक वस्त्र धारण करे, किन्तु भाव से निग्र्रंथ मुनिवेषी कहलाने में अत्युक्ति भी नहीं है। अत: आर्ष परम्परा में उपचार महाव्रती कहा है। स्त्री पर्याय में सर्वश्रेष्ठ, सर्वज्येष्ठपद ‘आर्यिका’ है ! इस पद की गरिमा दिगम्बर मुनिराज सदृश ही कही गई है। यद्यपि तदुनसार कुछ क्रियाएँ—विशिष्ट तपोनुष्ठानादि पालन करने की अनुज्ञा उन्हें नहीं दी गई है तो सामान्यत: आर्यिकाओं की चर्या—आहार—विहारादि में बहुत कुछ समानता है। इसका कारण एक वस्त्र धारण करने पर भी वह मूर्छाभाव से रहित है पुरुष यदि लंगोटी मात्र भी धारण करे तो भी ‘श्रावक’ ही है, परन्तु आर्यिका उपचार महाव्रती कही है।
अर्थात् ग्यारहवीं प्रतिमाधारी को श्रावक लंगोटी मात्र में मूच्र्छा—ममता होने से परिग्रहवान कहा है, वह उपचार महाव्रती कहलाने के योग्य नहीं है। किन्तु आर्यिका साड़ी में आसक्त न होने से उपचरित महाव्रती है। इस प्रकार आर्यिका पद परम पूज्य मुनिराज के समक्ष उत्तम पद है। यद्यपि स्त्री पर्याय में सर्वथा वस्त्र त्याग की अनुज्ञा जिनशासन में नहीं दी है, किन्तु समाधिकाल में—मृत्युसमय में अत्यल्पपरिग्रह धारी आर्यिका को पुरुषवत् दिगम्बर मुद्राधारण करना इष्ट है। यथा—
यदौत्र्सिगक भन्यद्वालिङ्गमुक्तंजिनै: स्त्रिया:। पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले, स्वल्पीकृतोपधे:।।३८।। स. ध.
इन विवेचन से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं का अपना लिङ्ग है—जो ‘‘आपवादिक’’ शब्द से जिनागम में र्विणत है, विशेष महत्वपूर्ण है। यहाँ यह विवेचनीय है कि ‘‘आर्यिका की चर्या’ क्या है ? उसकी विधि किस प्रकार है ? वह किस तरह निरतिचार अपने व्रत, शील, संयम और तप का रक्षण वद्र्धन करते हुए समाधि सिद्ध करे।’’ जिस प्रकार मुनिराज २८ मूलगुणों और ३६ उत्तरगुणों को धारण पालन करते हैं और शील के १८००० भेदों एवं ८४ लाख उत्तरगुणों की प्राप्ति की भावना भाते हैं, उसी प्रकार आर्यिकाओं को भी उन व्रतों को धारण—पालन और भावना भाने का प्रयत्न करना चाहिये ; क्योंकि श्री कुन्दकुन्द आचार्यश्री ने अपने ग्रंथ मूलाचार में स्पष्ट करते हुए लिखा है—
अर्थात् मुनि के समाचार—चर्या का जैसा विधान किया है, वैसा ही वर्णन आर्यिका का भी समझना चाहिये। रात्रि—दिवस की जो—जो क्रियाएँ मुनिराज करें, वे सभी आर्यिका को भी करना आवश्यक है। हाँ, कुछ क्रियाएँ इस प्रकार की हैं जो आर्यिकाओं के लिये आवश्यक नहीं है यथा वृक्षमूलयोग, आतापनयोग, अभ्रावकाशयोग आदि। कारण कि ये कार्य उनकी आत्मशक्ति के बाहर हैं। स्त्री पर्याय की रक्षा के लिये तथा अपने मूलगुणों और शील — संयम को निरतिचार रखने के हेतु आर्यिकाओं को समूह में रहना परमावश्यक है।
यद्यपि इस काल में तो मुनिराज को भी एकल—विहारी होने का आगम में पूर्ण निषेध है। आर्यिकाओं को एकाकी रहने की अनुज्ञा जिनागम में किसी काल में नहीं है। अत: उभय संयम का घातक मात्सर्य—ईष्र्याभाव का सर्वथा त्याग कर आर्यिकाओं को एक दूसरे की रक्षा का अभिप्राय रखते हुए शान्तिचित्त, पवित्र भावना से प्रीतिवात्सल्य युक्त रहना चाहिये। कोप, बैर, कपट आदि विकारों का उद्रेक मोहनीय कर्म से हाता है, आर्यिकाएँ मोहनीय कर्म विशेष को नष्ट करती हैं, शमन करती हैं। अतएव इन कटु विकारों से उन्हें सतत दूर रहना चाहिये।
सम्यक्त्वी को भय नहीं होता। आर्यिका सम्यक्त्वगुणालंकृत होती है—निर्भय होती है, परन्तु लोकापवाद के भय का वह त्याग नहीं करती। जिससे लोक में निन्दा की सम्भावना हो, उस प्रकार का आचरण कभी नहीं करना चाहिये। अतएव वे लज्जारूपी आवरण करती हैं। राग — द्वेषोत्पादक कथा वार्तालाप चर्या से सतत् दूर रहती हैं। अर्थात् लज्जा—मर्यादा और क्रियाओं से वे अपने चारित्र को समुज्ज्वल बनाती हैं, संयम का रक्षण करती हैं, असंयमियों के सम्पर्क से अपना बचाव करने में सावधान रहती हैं। संयमियों के साथ भी हित—मित एवं आवश्यकीय संक्षिप्त सम्पर्क, वार्तालापादि करती हैं।
उन्हें निरन्तर ध्यानाध्ययन
उन्हें निरन्तर ध्यानाध्ययन में संलग्न रहना चाहिये। अस्तु वे शास्त्राध्ययन करती हैं, अधीन शास्त्रों का चिन्तन एवं मनन करती हैं। पठित ग्रंथों को कण्ठस्थ करती हैं, श्रुतागम का पारायण, पाचन, पठन—पाठन करती हैं और धर्मोपदेश देकर भव्यप्राणियों को सन्मार्ग पर आरूढ़ करती हैं।
द्वादशानुप्रेक्षाओं के चिन्तन में दत्तावधान रहना उनका परमावश्यक है। कारण, संसार—शरीर, भोगों का प्राचुर्य एवं प्रचार—प्रसार, चारित्ररूपी वृक्ष की मूल में प्रविष्ट होकर कहीं उसे खोखला न कर दे, इसके लिए संवेग, वैराग्य भावना का सुदृढ़ रहना अत्यावश्यक है। इस दृष्टि से उन्हें ख्याति, पूजा, लाभ के प्रलोभन का परिहार करना चाहिये। उन्हें अनशनादिबाह्यतप और प्रायश्चित्तादि अन्तरङ्गतपों का मन, वचन, काय से दृढ़तापूर्वक पालन करने में संलग्न रहना चाहिये। प्राणिसंयम के साथ इन्द्रियसंयम का सम्यक् पालन करने में प्रयत्नशील होना चाहिये।
ज्ञानाभ्यास तत्वावलोकन के लिये, अक्षीक्ष्णज्ञानोपयोगी होना चाहिये। उन्हें मन—वचन—काय की सरलता से सदैव शुभोपयोग में स्थिर एवं तत्पर होना चाहिये। जिस प्रकार सिर पर दूध, दही या पानी की मटकी लेकर चलने वाली ग्वालिन या पनिहारी, वार्तालापादि क्रियाएँ करती हुई भी उपयोग को मटकी पर टिकाए रहती हैं और अपने गन्तव्य स्थान पर सुरक्षित पहुँच जाती हैं, उसी प्रकार आर्यिकाओं को पठन—पाठन, ध्यानाध्ययन, आहार—विहारादि क्रियाओं का सम्पादन करते हुए, एक दूसरे की सेवा—सुश्रुषा, वैयावृत्ति, रक्षणादि करते हुए अपने संयमरत्न की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अर्थात् अपने शील—संयम मर्यादा की रक्षा में उपयुक्त रहना चाहिये।
आहार और वस्त्र का जीवन
आहार और वस्त्र का जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। अतएव आर्यिकाओं को ३२ अन्तराय रहित, उद्गम, उत्पादन, एषणा, महामलदोष आदि ४६ दोषों से रहित शुद्ध, र्नििवकार आहार लोलुपता रहित, संयम वद्र्धक लेना चाहिए। आगमानुकूल शुद्ध कुलों के श्रावकों के घर ही आहारार्थ जाना चाहिए।
यथासंभव दो, चार, छ: मिलकर जाना श्रेष्ठ है। ठंडा—गरम, स्वादादि की अपेक्षा न रख उच्च—शुद्ध कुलीन घरों में एक बार सीमित, शुद्ध, सुपाच्य औषधि समान आहार ग्रहण करना चाहिए। क्षुधा रोग है, जो ध्यानाध्ययन, जप, तपादि में बाधक हो सकता है अत: उसके शमनार्थ आगमोक्त विधिवत् अल्प, योग्य आहार ग्रहण करना चाहिए। पिण्डशुद्धि का ध्यान विशेष रूप से रखना आवश्यक है। अर्थात् जिन घरानों में कुल (पितापक्ष) जाति (मातृ पक्ष) शुद्ध है वह शुद्ध—कुल—वंश परम्परा है। अतएव जिनके यहाँ विधवा विवाह, विजाति व अन्तर्जातीय विवाह नहीं हुआ हो, जो अत्याचार, अनाचार से भीत हैं उन्हीं के यहाँ आहार लेना चाहिए। आर्यिकाएँ पिण्डशुद्धिपूर्वक ही चर्या करती हैं।
एषणा समिति का रक्षण परमावश्यक है। जिस प्रकार र्नििवकृत शुद्ध—प्राशुक आहार गवेषणा आवश्यक है उसी प्रकार आर्यिकाओं का वस्त्र भी लज्जा एवं शील रक्षक शुद्ध नाति—सूक्ष्म होता है। यह तड़क—भड़क विकारजन्य नहीं होता अपितु सादा, शुद्ध और साधारण होता है। इनके स्वभाव में विकारभाव तनिक भी नहीं होता। अर्थात् रंगीले तथा चित्र—विचित्र वस्त्र कदापि धारण नहीं करना चाहिए। उनका गमनागमन, विलास—विम्रम रहित, ममता, शान्ति और जीवदया रक्षण का द्योतक होता है। उनकी दृष्टि निर्विकार, सौम्य होती है।
इनका शरीर जल्ल—(सर्वाङ्ग में पसीना आने पर धूल जम जाती है) मल्ल से युक्त—(एक अवयव में उत्पन्न हुयी मलीनता से युक्त होता है) सजावट से रहित शरीर—वैराग्य प्रदर्शक होता है। ये धर्म, कुल, र्कीित और दीक्षा के अनुरूप निर्मल आचरणों को धारण करती हैं। अर्थात् वे उत्तम क्षमादिक धर्म, आगम परम्परा, आर्षमार्ग—संरक्षक, व्रतशील संवद्र्धक वेश—भूषा धारण करती हैं। पीछी, कमण्डलु आदि की सज्जा—धज्जा की ओर भी इनका लक्ष्य नहीं होता। बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के सर्वथा त्याग की उत्कृष्ट भावना से सम्पन्न होती हैं।
इनका निवास स्थान निरुपद्रव
इनका निवास स्थान निरुपद्रव, शान्त एवं वैराग्यवद्र्धक होना चाहिए। जहाँ स्त्री, धन, धान्यादि परिग्रह युक्त गृहस्थ नहीं रहते, कारखाने, व्यापारादि का जमघट नहीं होता उस स्थान में इनका निवास होना चाहिये, तथा जहाँ पर स्त्री लम्पट, चोर, चुगलखोर, दुष्ट पशु—पक्षी न हों ऐसा स्थान आर्यिकाओं का निवास स्थान होता है। यतियों के निवास स्थान से भी उनका निवास दूर होना चाहिए। बाधा, संक्लेश रहित और गुप्त संचार शुद्धि, वस्त्र परिवर्तन आदि कार्यों के योग्य होना चाहिए।
जहाँ रोगी, बाल—वृद्ध जन आ जा सकते हैं तथा जो शास्त्राध्ययन, ध्यान, चिन्तन आदि में बाधा न हो इस प्रकार के शुभ निरापद स्थान में आर्यिकाओं को निवास करना चाहिए। आर्यिकाओं को २ से ले १००—५० आदि मिलकर ही निवास, आहार—विहारादि करना चाहिए। एकाकी कभी भी नहीं रहना चाहिए। मुनियों को वसतिकाएँ और गृहस्थों के घर मकान कहलाते हैं, निष्प्रयोजन इन घरों में भी नहीं जाना चाहिए। प्रयोजनवश जाना भी पड़े तो गणिनी को पूछकर दो—चार मिलकर जायें, एकाकी कभी न जायें। आर्यिकाओं को सदा प्रसन्न रहना चाहिए, संक्लेश रहित होना चाहिए।
दुखात्र्त होना, अश्रु—विमोचन, बालकों को स्नान कराना, भोजन—पान कराना, खिलाना, रमाना, रसोई बनाना, कपड़ा सीना, कातना, बुनना, लीपना—पोतना, झाड़ना—बुहारना, गोबर—कूड़ा, समेटना, पानी भरना, कूटना—पीसना, सीना आदि कार्यों को कदाऽपि नहीं करती हैं। ग्रामीण, सावद्य, कटु, कर्कश, अभद्र शब्द कभी नहीं बोलना चाहिए।
आगमोक्त, धर्मानुकूल, शुभ, प्रिय और हितकर वचन बोलना चाहिए। कृत—कारित, अनुमोदना से सावद्य कार्यों की प्रेरणा नहीं देना चाहिए। साधु—साध्वी, त्यागी व्रतियों की यथायोग्य, मर्यादापूर्वक, शिष्टाचार युक्त, संयम रक्षण करते हुए वैयावृत्ति करना चाहिए। साधुओं को सात हाथ, उपाध्यायों को छ: हाथ और आचार्यश्री को पाँच हाथ दूर से गवासन से शान्तचित्त बैठकर नमस्कार करना चाहिए। आर्यिकाएँ परस्पर वन्दामि करें, क्षुल्लक क्षुल्लिकाओं को ‘समाधिरस्तु’ बोलकर आशीर्वाद करना चाहिए। श्रावक—श्राविकाओं को यथा योग्य ‘समाधिरस्तु’, ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’, कहकर आशीर्वाद करना चाहिए।