आचार्य श्री वीरसागर महाराज का परिचय(श्री ज्ञानमती माताजी के आर्यिका दीक्षा गुरु)
लेखिका-गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती
जीवित रहने और मरने का बाहरी तरीका प्राय: सभी मनुष्यों का एक जैसा रहता है, किन्तु उद्देश्य में अन्तर आ जाने से जीवन बदल जाता है, दृष्टि बदल जाती है और दृष्टि बदलने से सृष्टि बदल जाती है। सारी क्रियायें एक होते हुए भी आंतरिक प्रणालियाँ विलक्षण हो जाती हैं। उनकी विचारधाराएं अलौकिक हो जाती हैं। निरुद्देश्य जीवन कूड़े-करकट के समान निरर्थक और भूमिका भारभूत रहती है।
जबकि उद्देश्य पूर्ण जीवन-यापन ऐतिहासिक बन जाता है और उससे मानव को धन्य, परम पवित्र एवं महान बनने का सुअवसर मिलता है। सभी मानव वस्त्र पहनते हैं, घर बनाते हैं, आजीविका के साधनों का अन्वेषण करते हैं। सभी की शारीरिक रचना एक सी होती है क्योंकि सभी माता के रज और पिता के वीर्य से उत्पन्न होते हैं।
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा भी सबके समान है। सभी का जन्म माता के उदर से होता है और धड़कन के रुक जाने से मरण होता है। इसमें कोई अन्तर नहीं है। सभी को बुढ़ापा, युवा एवं बालपन होता है। अन्तर मात्र इतना है कोई नर-पिशाच एवं पशु का जीवन जीते हैं और कोई नर व नारायण का जीवन जीते हैं। एक नारकीय एवं पशुता का जीवन यापन कर रहे हैं। कोई देव एवं महान बनने का प्रयत्न करते हैं।
स्वयं महान बनते हैं और दूसरों को भी महान बनाने का प्रयत्न करते हैं। स्वयं कीचड़ से अलिप्त रहकर निकलने का प्रयत्न करते हैं और दूसरों को भी रत्नत्रय की नौका पर बिठाकर संसार समुद्र से निकालने का प्रयत्न करते हैं। इस आकाश-पाताल के अन्तर को देखकर यह जानने की इच्छा होती है कि जब जीवन-यापन करने की पद्धति साधारणतया समान है, तो यह असाधारण अन्तर कैसे उत्पन्न होता है। मानव जाति में तीन अभिलाषा होती हैं-प्रथम अभिलाषा है शरीर को सक्रिय बनाने के लिए आहार (खाद्य पदार्थ) प्राप्त करने का प्रयत्न करना। इसका शास्त्रीय परिभाषा में दूसरा नाम है आहार संज्ञा।
दूसरी अभिलाषा है कामुकता। विषय वासनाओं की पूर्ति, इसे मन्मथ कहते हैं। इसका शास्त्रीय नाम मैथुन संज्ञा है। इन दोनों अभिलाषाओं की पूर्ति करने के लिए परिग्रह का अर्जन करने की इच्छा, इसका दूसरा नाम है परिग्रह संज्ञा। जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ भय होना स्वाभाविक है, वह भय संज्ञा है। इनमें शरीर को क्षुधा पूर्ति की और मन को काम तृप्ति की आकांक्षा प्राणियों में सहज रहती है।
इनके लिए किसी को कुछ चिंतन नहीं करना पड़ता है परन्तु इन अभिलाषाओं से प्रेरित होकर इनकी पूर्ति के लिए प्राणी घड़ी के पेन्डुलम की तरह इधर-उधर भागदौड़ करते हैं। सोचते हैं, विचारते हैं और अहर्निश इनकी पूर्ति में जीवन व्यतीत कर देते हैं। कीट पतंग आदि सारे पशु-पक्षी की प्रवृत्ति ऐसी होती है। मानव भी इसी प्रवाह में बहता रहता है।
धर्मो हि तेषामधिकोविशेषो धर्मेण हीना पशुभि: समान:।।
इन चार संज्ञाओं की अपेक्षा मानव और पशु में कोई अन्तर नहीं है। यदि इन दोनों में कोई अन्तर है, तो धर्माचरण का है। जिन्होंने मानव जैसी उत्तम पर्याय को प्राप्त कर इन संज्ञाओं की पूर्ति में नष्ट कर दिया, उसने मानों चिंतामणि रत्न को काक उड़ाने के लिए फैककर नष्ट कर दिया।
पशु प्रकृति प्रदत्त कच्चा आहार करते हैं, मानव इसे पकाकर स्वादिष्ट बनाकर खाता है। अन्य प्राणी निर्लज्ज काम सेवन करते हैं, मनुष्य उसे कलात्मक बनाकर कुछ अधिक रस लेता है। अन्य प्राणी उतना ही उपार्जन करता है, जितने से पेट भर जाता है परन्तु भविष्य के लिए भी संग्रह करता है। दूसरे प्राणी काम कौतुकवश घोसलें बनाते हैं और बच्चों के बड़े होने तक उनके पोषण और रक्षण का प्रबंध करते हैं। मानव विवाह करता है, परिवार बसाता है और उसके लिए सुविधा साधन जुटाता है।
इसको विवाह विस्तार कहते हैं। इन क्रियाओं में मानव और पशुओं में कोई अन्तर नहीं है। मानव को मानवता प्राप्त करने के लिए दृष्ट, श्रुत और अनुभूत भोगाकांक्षाओं का त्यागकर तृतीय अभिलाषा जागृत करना है, जिसमें जन्म-जन्मान्तर में उपार्जित कर्मों का विनाश होता है। वह है आत्म निरीक्षण, आत्म गुणों का विकास, आत्म सुधार। जिस प्राणी के हृदय में आत्म अस्तित्व के श्रद्धान का सूर्योदय होता है, उससे निकली ज्ञान रश्मियाँ आत्मावलोकन में तत्पर होती हैं और संयम की सौरभ आत्मा को सुवासित करती है, उसी मानव का जन्म सार्थक होता है।
जिन मानवों का चिंतन गहराई में उतरता है
जिन मानवों का चिंतन गहराई में उतरता है, उन्हें उदरपूर्ति और कामतृप्ति जैसे क्षुद्र लाभ अपर्याप्त लगते हैं। मानवी गरिमा का स्वरूप और लक्ष्य समझ में आ जाने से वे निरंतर उस महानता की ओर अग्रसर होते हैं। जिसे मनीषियों ने आध्यात्मिकता नाम दिया है। मानव-मानव के बीच पाई जाने वाली निकृष्टता और महानता की भिन्नता का यही आन्तरिक विवेचन एवं विश्लेषण है। एक मानव जैसी उत्तम पर्याय को प्राप्त कर भोगाकांक्षा में बिताकर निन्दनीय बनता है और दूसरा आत्म विकास के मार्ग को स्वीकार कर महान बनता है तथा जन-जन के द्वारा आदरणीय होता है। इस भूतल पर अनेक प्राणी मानव तन को धारण करते हैं और मृत्यु का ग्रास बनकर चले जाते हैं। कोई अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रहता है और कोई एक कोटिपूर्व तक।
अन्तर्मुहूर्त और एक कोटि के मध्य में अनेक प्रकार की आयु को धारण करके आते हैं और चले जाते हैं। उनमें से कुछ मानव ऐसे होते हैं, जो हिंसादि अशुभ परिणामों के द्वारा पापोपार्जन से स्वकीय आत्मा को मलिन कर दुर्गति में चले जाते हैं। इनमें कुछ प्राणी ऐसे होते हैं, जो शुभ तथा शुद्ध भावों के द्वारा शुभ कर्मों का उपार्जन कर स्वर्ग तथा शुद्ध भावों के द्वारा कर्म कालिमाओं का प्रक्षालन कर मुक्ति पद को प्राप्त करते हैं।
इनमें कुछ प्राणी ऐसे होते हैं, जिनका नाम जल की लहरों के समान उनके साथ ही विलीन हो जाता है। कुछ प्राणी ऐसे होते हैं जिनकी अमिट छाप अनन्त काल तक धारा प्रवाह रूप से बहती रहती है और निकट भव्यरूप, परमहंस उनके स्मरणरूप अगाध जल में अवगाहन करके कर्म कालिमा को धोते हैं और अपनी आत्मा को पवित्र बनाते हैं। आत्म विशुद्धि के द्वारा आत्मा को निर्मल कर स्वात्मोपलब्धि को प्रदान करने वाले महापुरुषों की अक्षुण्ण धारा अनादिकाल से चली आ रही है।
वर्तमान में वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकर, उनके बाद अनुबद्ध तीन केवली, तदनन्तर पाँच श्रुत- केवली, ११ अंग के पाठी, एक अंग के पाठी तथा चार अनुयोग के ज्ञाता, भद्रबाहु, गोवद्र्धन, धरसेन, वीरसेन, जयसेन, गुणधर, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंक, जिनसेन, जटानन्दी, यतिवृषभ आदि अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने जिनधर्म का उद्योतन किया।
अज्ञानरूपी अंधकार को दूर भगाकर जिनधर्म की प्रभावना की और कितने ही भव्यात्माओं को रत्नत्रय निधि प्रदान कर पवित्र बनाया। इन्हीं शृंखलाओं में शक संवत् १७२४, विक्रम संवत् १९२९, सन् १८७२ आषाढ़ कृष्णा षष्ठी, बुधवार को महाशक्तिशाली भीमगौंडा श्रेष्ठी की सत्यवती भार्या की कुक्षि से एक महापुरुष ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा-सातगौंडा।
सातगौंडा यह उनका सार्थक नाम था
सातगौंडा यह उनका सार्थक नाम था अर्थात् जैसा नाम था वैसा ही उनका काम था क्योंकि वे सत्य-समीचीन चारित्र के पालक थे। समृद्धशाली घर के होते हुए भी वे पंचेन्द्रिय विषय वासना से शून्य हृदय वाले थे। ३६ वर्ष की उम्र में उन्होंने एक उपवास और एक दिन आहार का नियम लिया। विक्रम संवत् १९७२, शक संवत् १८३६, ज्येष्ठ सुदी त्रयोदशी के दिन उत्तूर ग्राम के जिनमंदिर में सातगौंडा ने स्वजन, परिजन, धन-धान्यादिक का परित्याग कर क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की, जिनका नाम शांतिसागर रखा गया।
नेमिनाथ की निर्वाणभूमि गिरनार पर्वत पर ऐलक दीक्षा ग्रहण की। विक्रम संवत् १९७८, फाल्गुन सुदि १२ के दिन यरनाल में मुनिपद धारण किया। आचार्य शांतिसागर महाराज ने क्षुल्लक अवस्था से लेकर समाधिमरण पर्यन्त ४३ वर्ष तक धर्मामृत की वर्षा कर जनता के हृदय में धर्मांकुर उत्पन्न किये और कितने ही भव्यों को दिगम्बर दीक्षा प्रदान कर संसारोच्छेद करने का मार्ग बतलाया।
भारत भूमि पर स्थित जीवों के महान पुण्य के उदय से उत्पन्न दिव्य ज्योति ने ८४ वर्ष तक इस भूतल को ज्ञान, ध्यान, तप से आलोकित किया तथा स्वयं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी त्रिवेणी में अवगाहन कर अपने आपको पवित्र बनाकर कुंथलगिरि पर्वत पर व्रतों के फलस्वरूप ३६ दिन की यमसल्लेखना धारण कर वि.सं. २०१२ भाद्रपद शुक्ला दूज के दिन दिनाँक १८-९-५५ को प्रभातकाल में ६ बजकर ५५ मिनट पर परलोक यात्रा की।
इसी महापुरुष के करकमलों से दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर स्वपर का कल्याण करने वाले धीर-वीर महापुरुष ने महाराष्ट्रस्थ ईर गाँव निवासी श्रीमान धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी श्री रामसुखलाल की धर्मपरायण धर्मपत्नी भागूबाई की कुक्षि से विक्रम सं. १९३३ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन पुत्ररूप में जन्म लिया। जन्म लेते ही सारे स्वजनों का हृदय हर्ष से ओत-प्रोत हो गया।
मानव जीवन को सुसंस्कृत करने वाले संस्कारों को जानने वाले माता-पिता ने जैनधर्म विहित गर्भ से लेकर जन्म तक के संस्कारों से बालक का संस्कार कर उनका नाम हीरालाल रखा। जब बालक आठ वर्ष का हुआ तो उनका यज्ञोपवीत संस्कार करके यज्ञोपवीत ग्रहण कराया।
तीव्र बुद्धिधारी बालक
तीव्र बुद्धिधारी बालक ने यद्यपि स्कूल में विशेष पठन-पाठन नहीं किया था, परन्तु बालपन में ही स्वाध्याय करने की लगन होने से वे घर में गुरु थे। कचनेर पाठशाला में बालकों को अध्यापन कराने से वे अध्यापक थे, परन्तु घर, ग्राम और आसपास के ग्रामों के लोग उनको गुरुजी के नाम से पुकारते थे। आप पूर्वभव के संस्कारों से जन्म से ही वैरागी थे। जब वे १८ वर्ष की उम्र को प्राप्त हुए, तो माता-पिता ने उनके विवाह करने का विचार किया परन्तु संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हीरालाल ने विवाह हेतु इंकार करते हुए कहा कि मुझे संसार जाल में नहीं फसना है।
उन्होंने मन में यह दृढ़ संकल्प किया था कि मुझे ‘‘दिगम्बर साधु बनना है’’ वीतराग प्रभु की प्रतिमा के समक्ष आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। एक बार उनको ऐलक पन्नालाल जी के दर्शन हुए, तब उन्होंने अपने मित्र खुशालचन्द के साथ दूसरी प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। वे दोनों मित्र २४ घंटे में रात्रि के ३ घंटे सोते थे, शेष समय स्वाध्याय, ध्यान, पूजन और कचनेर विद्यालय के विद्यार्थियों के अध्यापन में व्यतीत करते थे।
यद्यपि हीरालाल जी के पूर्वज राजस्थान के खण्डेलवाल जातीय एवं गंगवाल गोत्र के थे परन्तु महाराष्ट्र में रहने के कारण उनकी भाषा मराठी थी। शास्त्राध्ययन से उनका संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी का ज्ञान विलक्षण था। वाणी मधुरता, मुख की प्रसन्नता, पदार्थों में समता कूट-कूट कर भरी थी। वे दोनों मित्र संसार से विरक्त थे, घर में भी दूध के सिवाय सर्व रसों के त्यागी थे। मंदिर व धर्मशाला में रहते थे। प्रतिदिन व्रत परिसंख्यान नियम लेते थे कि आज यह पुरुष, यह स्त्री, ये बालक बुलाने आयेंगे तो आहार करेंगे, अन्यथा नहीं।
दिन में एक बार ही भोजन करते थे। इन दोनों के मन में एक ऐसा दृढ़ विचार था कि इस काल में भावलिंगी मुनि नहींr होते। इसलिए वे आधुनिक मुनियों को नमस्कार भी नहीं करते थे और स्वयं मुनि बनने की भावना भी नहीं करते थे। एक दिन उनके मन में श्रवणबेलगोला के बाहुबली भगवान के दर्शन करने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। जब बाहुबली के दर्शन करने निकले। मार्ग में कोन्नूर ग्राम में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के दर्शन किये।
उनके दर्शन करते ही उनको अलौकिक आनन्द का अनुभव हुआ। तत्काल उनके हृदय की भ्रान्ति निकल गई कि इस काल में भावलिंगी मुनि नहीं होते। उन्होंने नतमस्तक होकर उनके चरणों में नमस्कार किया और आचार्यवर्य से सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर प्रतिज्ञा की कि मैं आप के चरणों में आकर दिगम्बर मुद्रा धारण करूँगा।
बाहुबली की यात्रा
बाहुबली की यात्रा कर हीरालाल जी और उनके मित्र खुशाल चन्द जी दोनों आचार्यश्री के चरणों में आये। उस समय आचार्य श्री वुंâभोज में थे वहीं आकर उन दोनों ने आचार्यश्री के श्रीचरणों में नतमस्तक होकर दीक्षा की याचना की। आचार्यश्री ने वि.सं. १९८० में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन दोनों को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। हीरालाल जी का नाम वीरसागर जी और खुशालचंद का नाम चन्द्रसागर रखा। क्षु. वीरसागर जी को वस्त्रों का आवरण अच्छा नहीं लगा।
उनका मन तो दैगम्बरी दीक्षा के लिए अत्यन्त उत्सुक था। वे गृहस्थ से सीधे दिगम्बर मुनि बनना चाहते थे परन्तु गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर उन्होंने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। क्षुल्लक दीक्षा के सात महीने ही निकले थे। गुरु से अनुनय विनय कर वि.सं. १९८१, आश्विन शुक्ला दशमी के दिन समडोली नगर में मुनि दीक्षा ग्रहण की। उनका वीरसागर नाम सार्थक था। वि-विशेषण, ई-लक्ष्मी रत्नत्रयरूप निधि, राति-देता है। उसको वीर कहते हैंं। उन्होंने भव्य जीवों को रत्नत्रयरूपी लक्ष्मी प्रदान कर सुखी बनाया।
उन्होंने अनेकों भव्यों को दिगम्बर मुद्रा प्रदान किया जिसमें आदिसागर जी, शिवसागर जी, धर्मसागर जी, सुमतिसागर जी, पद्मसागर जी, जयसागर जी, श्रुतसागर जी, सन्मतिसागर जी आदि अनेक भव्यों को दिगम्बर मुनि बनाया। वीरमती, सुमतिमती, पार्श्वमती, विमलमती, इन्दुमती, शांतिमती, सिद्धमती, वासमती, ज्ञानमती, सुपाश्र्वमती आदि को आर्यिका दीक्षा प्रदान कर पूज्यनीय बनाकर संसार समुद्र से पार करने का प्रयत्न किया। सिद्धसागर आदि अनेक क्षुल्लक, जिनमती आदि अनेक क्षुल्लिका बनार्इं। सूरजमल जी, राजमल जी आदि अनेक ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों से जिनका संघ सुशोभित था।
श्री वीरसागर जी महाराज आचार्य नहीं थे और न वे आचार्यपद के लोलुपी थे। यदि उनको कोई आचार्य कहते तो नाराजगी प्रकट करते थे। परन्तु बहुत बड़े संघ के संचालक थे। सामान्य रूप से नहीं अपितु शास्त्रोक्त दृष्टि से संघ पर अनुशासन करते थे। इतना ही नहीं वे स्वयं अपने मन पर कठोर अनुशासक थे।
उनका चारित्र अति निर्मल था। ख्याति, पूजा, लाभ से वे कोसों दूर थे। कभी उन्होंने शास्त्र विरुद्ध कार्य नहीं किया। कभी आर्यिकाओं की वसतिका में जाकर स्वाध्याय प्रतिक्रमण नहीं करते थे। आर्यिकाओं का वास उनसे बहुत दूर रहता था। कभी उन्होंने अपना जन्मदिवस, दीक्षादिवस नहीं मनवाया। कभी चातुर्मास के समय कलश स्थापना आदि कार्य नहीं किये। वे हमेशा किसी स्थान के निर्माण कार्य के व्यामोह में नहीं आये।
अदीठ का फोड़ा
वे हमेशा कहते थे कि शास्त्र के अनुसार अपनी बुद्धि को बनाने का प्रयत्न करो, अपनी बुद्धि के अनुसार शास्त्र का अर्थ मत करो। पाप से हटो, ख्याति पूजा लाभ के चक्र में मत फसो। दीक्षा लेने वालों को पूछते थे कि तुम दीक्षा किसलिए ग्रहण करते हो,
‘‘भुक्ति के लिए कि मुक्ति के लिए’’
भुक्ति के लिए घर छोड़कर साधु मत बनना, क्योंकि भुक्ति तो घर में बहुत है। जिस दीक्षा (संयम) से मुक्ति मिलती है, तो भुक्ति जैसी तुच्छ बुद्धि तुम्हारे चरणों की दासी बनकर आगे-आगे दौड़ेगी। वे शरीर से इतने निस्पृही थे कि कितनी भी पीड़ा होने पर भी उनके मुख पर सिकन नहीं थी। वि.सं. २००६ में वीरसागर महाराज का नागौर में ससंघ चातुर्मास था। तब उनकी पीठ में एक अदीठ नाम का फोड़ा हो गया था, जिससे शरीर में असह्य पीड़ा होती थी परन्तु वीरसागर महाराज की चर्या में कोई शिथिलता नहीं थी, अशुद्ध औषधियों का प्रयोग नहीं किया।
एक दिन कोई भक्त श्रावक पुराना घृत लेकर आया और कहने लगा इसके प्रयोग से आपको शान्ति मिलेगी। दु:सह फोड़ा फूट जायेगा। मुनिराज ने पूछा यह क्या है? उसने कहा हमारे किले से निकला हुआ १०० वर्ष से अधिक पुराना घृत। महाराज ने कहा मूर्ख! यह असंख्यात त्रस जीवों का पिण्ड है। इसका संयमी लोग स्पर्श नहीं करते।
उन परम साहसी धैर्यवान पुरुष ने किसी अशुद्ध औषधि का प्रयोग नहीं किया। जब फोड़ा फूटा नहीं और उसका मवाद निकालना आवश्यक था, तब चीरा देने के लिए एक वैद्यराज जी आये, तो कुछ भी औषधि लगाने नहीं दी। पीठ उनकी तरफ कर दी और कहा तुम बिना औषधि लगाये फोड़े को चीर काटकर पीव निकाल दो।
उसने शस्त्र से चार अंगुल का घाव किया। परन्तु महाराज के मुख से किसी प्रकार का उफ शब्द नहीं निकला, हंसते रहें। यह सुनी हुई बातें नहीं, अपितु आँखों देखी हैं। इसको कहते हैं आत्मा और शरीर का भेदज्ञान। ८० वर्ष की उम्र में जयपुर से सम्मेदशिखर की यात्रा करने संघ सहित गये।
पद यात्रा की, पैदल पहाड़ की वंदना की। प्रतिदिन १२ मील चलते, कभी २० मील चलते परन्तु थकावट होने पर भी अपनी दैनिक चर्या में आलस्य नहीं था। उन्होंने ३३ वर्ष दिगम्बर मुद्रा में रहकर अनेक नगरों, ग्रामों में विहार कर धर्मोपदेश कर धर्म की प्रभावना की। सारे तीर्थों की पैदल यात्रा की। दोबारा सम्मेदशिखर की मुनि बनकर पैदल यात्रा की।
निर्दोष चारित्र के धनी
एक दिन सम्मेदशिखर की यात्रा में जाते समय उनको एक सौ चार डिगरी बुखार आ गया। बहुत जोर से ठंड लग रही थी, शरीर कांप रहा था। संघ के लोगों ने डोली में बिठाकर ले जाने का प्रयास किया परन्तु महाराज ने डोली का स्पर्श तक नहीं किया। इतने अधिक बुखार में भी पैदल १२ मील (१८ किलोमीटर) जाकर रुके। बनारस-आरा के बीच में चलते हुए।
मार्ग में किन्हीं ताडी पिये हुए पुरुषों ने महाराज पर पत्थर फैके परन्तु महाराज अपने ध्यान में मग्न रहे, आगे न बढ़कर वहीं बैठ गये। वीरसागर महाराज को निर्दोष चारित्र के धनी देखकर ही आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने कुंथलगिरि से आचार्यपद प्रमाणपत्र भेजकर वि.सं. २०१२, भादो वदी सप्तमी के दिन जयपुर (खानियां) में उनको आचार्यपद से सुशोभित किया था। आचार्य पदवी प्राप्त कर उन्होंने आनन्द की अनुभूति नहीं की, वे कहते थे कि यह बाह्य उपाधि है।
इसे त्याग किये बिना समाधिमरण नहीं होता। शिष्यों का विशेष शुभकर्म का उदय नहीं होने से वे अधिक दिन तक आचार्य पद पर स्थित नहींr रहे। दो वर्ष के उपरान्त वि.सं. २०१४ आश्विन कृष्णा अमावस्या को दिन में ११ बजे णमोकार मंत्र का ध्यान करते हुए प्राणों का विसर्जन किया। जयपुर नगर स्थित खानिया में उनकी समाधि के समय आचार्य महावीरकीर्ति आदि २७ पिच्छीधारी मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका थे। सबका मन खेद-खिन्न था परन्तु काल के सामने किसी का बस नहीं चलता।
उन्होंने समाधि के कितने दिन पूर्व ही पानी, छाछ और गेहूँ के सिवाय सब वस्तुओं का त्याग कर दिया था परन्तु मरण पर्यन्त अपनी चर्या में सावधान थे। इसी के फलस्वरूप उन्होंने मरण के पूर्व चतुर्दशी के दिन २ घण्टे तक प्रतिक्रमण किया। सब को प्रायश्चित दिया, चल फिर रहे थे, किसी ने यह नहींr सोचा कि कल इस समय यह हमारे समीप नहीं रहेंगे।
गुरुदेव के समीप बैठने पर ऐसा लगता था
गुरुदेव के समीप बैठने पर ऐसा लगता था कि हम साक्षात् जीवित समयसार के पास बैठे हैं। विषय भोगी प्राणी आत्मा का कथन तो करते हैं परन्तु आचरण में नहीं उतारते परन्तु गुरुदेव ने केवल कथन ही नहीं किया था अपितु आत्मा में उतारकर तदनुकूल आचरण किया था। वे निरंतर कहते थे कि-ये अज्ञानी प्राणी संसार में कार्यों के लिए जितने कष्ट उठाते हैं।
असंयमरूपी असिधारा शय्या पर शयन कर विषयभोग रूप विषफल को खाकर दु:खी होते हैं, उन पर करुणा आती है कि वे सद्ज्ञान को प्राप्त कर संयमरूपी पुष्प शय्या पर शयन कर आत्मानुभवरूपी अमृत फल को चख कर सुख का अनुभव क्यों नहीं करते। अपने सद्गुणों के कारण गुरुदेव सबके प्रिय थे।
वे धैर्य, नीति, मिथ्यात्व निराकरण तथा अहिंसा के प्रचार के सिवाय लौकिक व्यवहार तथा राजनीति के पंक में लिप्त नहीं थे। गुरुदेव कहते थे कि वास्तव में शांति और उन्नति का मार्ग आत्मा के गुणों को विकसित करना तथा विलासिता से विमुख होना है। जो मानव भोग विलास से विमुख न होकर संयम की तरफ कदम बढ़ाता है, वह संयम की साधना कर नहीं सकता है, वह संयम से विमुख हो जाता है।
जिनका हृदय भोग विलास की चोट से जर्जरित नहीं है, सांसारिक प्रलोभन व आपत्तियाँ उसके हृदय को विचलित नहीं कर सकतीं। आगम परम्परा के दृढ़ संरक्षक निर्दोष चारित्र के धनी गुरुदेव शिष्यों से कहते थे कि जो भोग और मोह के मार्ग से विमुख होकर श्रेष्ठ मार्ग को स्वीकार करता है, वही सत्पुरुष एवं वास्तविक त्यागी है। तुम्हें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। जिससे तुम्हें वे दण्डित न कर सके।
उनका उज्ज्वल जीवन ही सबको प्रकाश प्रदान करता था। अपने शिष्यों के प्रति शासन कार्य में कभी पक्षपात, अन्याय अथवा अनीति का लवलेश मात्र भी नहीं था। इतने बड़े संघ का अनुशासन एवं अनग्रह करते हुए भी वे आत्मध्यान, शास्त्र-अध्ययन आदि स्वकीय आवश्यक कार्यों में सतत सजग रहते थे। उनका मुख्य लक्ष्य था-रागद्वेष मोह माया आदि कलंकों को दूर कर स्वकीय आत्मा को परमात्मा बनाना।
गुरुदेव किसी के द्वारा किये गये प्रश्नों का संक्षेप में उत्तर देते थे, जिनको सुनकर सामने वाला चुप हो जाता था। मैंने साक्षात् कुछ उत्तर देखे हैं। उदाहरणार्थ-ईसरी चातुर्मास में एक बहुत बड़े विद्वान आये उन्होंने कहा कि यह पंचामृताभिषेक हिंसा का कारण है। आप निषेध क्यों नहीं करते। उन्होंने कहा-हरिवंशपुराण का २१वें सर्ग के २२-२३ आदि श्लोक, पद्मपुराण, वरांगचरित्र, भावसंग्रह, श्रीपाल पुराण आदि। फल, पुष्प चढ़ाने के लिए देखो तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथ। शास्त्र के अनुसार बुद्धि करो, बुद्धि के अनुसार शास्त्र का अर्थ मत करो।
मंदारगिरि की घटना
एक गेरुआ वस्त्र पहना हुआ व्यक्ति आया। बोला-महाराज! आप नग्न क्यों रहते हो। गुरुदेव ने कहा-आप गेरुआ कपड़ा क्यों पहने हो। उसने कहा हमारे भगवान का आदेश है। साधुओं को गेरुआ कपड़ा पहनना चाहिए। आचार्य देव ने कहा-हमारे वीतराग प्रभु का आदेश है अपने मन को वश में करने वाले काम विजेता साधुओं को नग्न रहना।
वह साधु चुप हो गया है। यह घटना मंदारगिरि की है। एक दिन महाराज को बहुत जोर से ज्वर आया, भक्तों ने कहा महाराज थोड़ी देर विश्रान्ति लो? महाराज ने उत्तर दिया-भोगियों के लिए रोग, रोने के लिए और प्रमाद के लिए आता है और साधुओं को रोग, वैराग्य और सचेत कर प्रमाद हटाने के लिए आता है। वे कहते थे कि जिसने जिस दिन दीक्षा ली उस दिन को मत भूलो।
मेरा सो खरा नहीं खरा है सो मेरा है।
एक क्षण भी संयम के बिना मत बिताओ।
उनका एक-एक शब्द अर्जन किया जाय, तो शास्त्र बन सकता है। उनका आचरण स्वयं शास्त्र था। वे वचन के द्वारा नहीं बोलते थे अपितु उनका शरीर मोक्षमार्ग का कथन करता था। जब उनका स्मरण होता है, तो नेत्र सजल हो जाते हैं। स्मरण होता है उन पंक्तियों का-
ते गुरु मेरे उर बसों, जे भव जलधि जिहाज।
आप तिरें पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिराज।
उनका कहना था
उनका कहना था- जो व्यक्ति नकली नहीं असली आनंद चाहता है उसे अपने आप को समुद्र के समान गंभीर, मेरु के समान अचल बनाना चाहिए। वास्तव में सारे समुद्र के पानी की स्याही बनावे एवं धरती को कागज बनाये, सारी वनस्पति की कलम बनावे एवं और सरस्वती स्वयं लिखे, तो गुरुओं के गुण लिखे नहीं जा सकते।
गुरुभक्ति संसार के सारे अभ्युदयों को प्रदान कर क्रम से मुक्ति पद को देती है। गुरुदेव आचार्य श्री वीरसागर जी की स्थिरता, साहस, निर्भीकता और आत्म निमग्नता आदि श्रेष्ठ गुणों को देखकर ऐसा लगता था कि वास्तव में ये चतुर्थकाल के ही साधु हैं। सम्मेदशिखर की यात्रा के समय आचार्यदेव जब कभी बैठते थे। मार्ग में सारा संघ उनको घेरकर बैठ जाता। तब वे संघ को संक्षेप में शिक्षा देते थे। सर्व साधुजनों को सदा साथ रहना चाहिए।
इस काल में एकल बिहारी नहीं होना चाहिए। चतुर्थकाल में भी जो १ माह, २ माह, ६ माह आदि का उपवास कर सकता है, वही जिनकल्पी मुनि एकल विहारी हो सकता है अन्य नहीं। संघस्थ साधु सुरक्षित रहता है और उसे अपनी धार्मिक मर्यादा में रहने की बहुत प्रेरणा मिलती है। देखना है तो अपने आपको देखो, अपने दुर्गुणों को देखो दूसरों के नहीं, सुई का काम करो, वैची का नहीं। मुनीम बनो मालिक नहीं, ज्ञाता, दृष्टा बनो कत्र्ता नहीं। मारने की इच्छा हो तो कामनाओं को मारो प्राणियों को नहीं। कम खाओ, गम खाओ और नम जाओ। श्रेष्ठ बनने की चेष्टा करो, ज्येष्ठ बनने की नहीं।
उनके एक-एक शब्द शास्त्र के समान आत्महितकारी थे। गुरुदेव का जीवन उज्ज्वल दर्पण था, जिसमें भव्यजीव अपना स्वरूप देख सकते थे। उनको किसकी उपमा दी जाये, सागर कहें तो सागर का पानी खारा होता है। परन्तु उनका वचनामृत तो मधुर शीतल और विषयों की प्यास बुझाने वाला था। उनको चन्द्रमा की उपमा भी नहीं दे सकते, क्योंकि चन्द्रमा कालिमा सहित है। परन्तु आचार्य श्री का चरित्र निर्मल एवं उज्ज्वल था।
गुलाब का फूल कांटे सहित है परन्तु आचार्य के जीवन में व्रतों के अतिचार रूप कांटे नहीं हैं। ऐसे महान चारित्र के धनी आचार्य गुरुदेव श्री वीरसागर जी के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करती हुई मन-वचन-काय से उनके चरणों में नमन, वंदन, अर्चन करती हूँ। हे गुरुदेव! तुम्हारे आशीर्वाद से अन्त में समाधिमरण हो, णमोकार मंत्र का जाप करते-करते प्राणों का विसर्जन हो यही कामना करती हूँ, भावना करती हूँ।