प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज की आज्ञा से उनकी परम्परा के सभी आचार्य तथा अन्य भी सभी आचार्य, उपाध्याय व साधुगण पूर्व में कही गई पूरी विधि से ही आर्यिकाओं को दीक्षा देते हैं। ‘‘वदसमिदिंदियरोधो………आदि पढ़कर व्रत देते समय आचार्यदेव या गणिनी आर्यिकाएँ जो आर्यिका दीक्षा दे रही हों, वे २८ मूलगुणों को प्रदान करें। उसमें यह स्पष्ट करें कि आर्यिका के लिए दो साड़ी नाम से किंचित् चेल-‘आचेलक्य व्रत’ है और ‘स्थितिभोजन’ में बैठकर आहार लेना है। शेष सभी व्रत मुनियों के समान हैं। जो पाँच महाव्रत हैं, इन्हें भी ‘उपचार महाव्रत’ संज्ञा है। आगे षोडश संस्कार के मंत्रों को इस प्रकार पढ़कर आरोपित करना चाहिए-
१. अयं सम्यग्दर्शनसंस्कार इह आर्यिकायां स्फुरतु।
२. अयं सम्यग्ज्ञानसंस्कार इह आर्यिकायां स्फुरतु।
३. अयं सम्यक्चारित्रसंस्कार इह आर्यिकायां स्फुरतु।
४. अयं बाह्याभ्यन्तरतप:संस्कार इह आर्यिकायां स्फुरतु।
मूलगुणों के अनुरूप आचरण को सामाचार कहते हैं अर्थात् मुनि के सामाचार का इससे पूर्व में जैसा वर्णन किया है, वैसा ही आर्यिका के सामाचार का भी वर्णन समझना चाहिए अर्थात् दिवस और रात्रि संबंधी सभी क्रियाएँ मुनियों के सदृश ही हैं। अंतर इतना ही है कि वृक्षमूल योग, आतापन योग, अभ्रावकाश योग ऐसे योगादिक आचरण का आर्यिकाओं के लिए निषेध है, क्योंकि वह उनकी आत्मशक्ति के बाहर है।
जिस प्रकार यह सामाचार नीति मुनियों के लिए बतलाई गई है, उसी लज्जादि गुणों से विभूषित आर्यिकाओें को भी इन्हीं समस्त समाचार नीतियों का पालन करना चाहिए तथा प्रायश्चित्त ग्रंथ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायश्चित्त का विधान है तथा क्षुल्लकादि को उनसे आधा इत्यादिरूप से है। जैसे- ‘‘जैसा प्रायश्चित्त साधुओं के लिए कहा गया है, वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है विशेष इतना है कि दिनप्रतिमा, त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा ग्रंथांतरों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षाच्छेद) मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हैं।’’ आर्यिकाओं के लिए दीक्षा विधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं। इन्हें ‘महाव्रतपवित्रांगा’ ‘संयतिका’ आदि भी कहा है। यथा-