गौरवशाली प्रकाशपुंज आचार्य कुंदकुंद,स्वामी समंतभद्र, विद्यानंदी, जिनसेन इत्यादि आचार्यों की जन्मभूमि तथा उपदेश से पवित्र कर्नाटक प्रदेश में आचार्यश्री १०८ शांतिसागर महाराज का जन्म हुआ।
बेलगाँव जिले में भोज ग्राम के भीमगौंडा पाटील की धर्मपत्नी सत्यवती थीं। सन् १८७२ में आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन माता सत्यवती ने अपने पीहर येळगुळ में पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का नाम ‘सातगौंडा’ रखा गया। ये ही आगे प्रथमाचार्य शांतिसागर जी हुए हैं।
‘आचार्य शांतिसागर जी के माता-पिता भोजग्राम निवासी थे लेकिन आचार्य शांतिसागर जी का जन्म येळगुळ ग्राम में नाना के घर हुआ इसलिए दक्षिण में कुछ लोग येळगुळ को जन्मस्थान मान लेते हैं तथा कुछ लोग भोजग्राम को जन्मस्थान मान लेते हैं किन्तु आज भी देखा जाता है कि यदि किसी बालक का जन्म ननिहाल, अन्य शहर या हास्पीटल में हुआ होवे, तो भी जन्मभूमि पैतृक स्थान को ही माना जाता है। इस दृष्टि से भोजग्राम को ही आचार्य श्री का जन्मस्थान मानना ठीक है।’
बाल्यावस्था में भगवान की भक्तिपूजा करना, त्यागीगणों को आहारदान देना, उनकी वैयावृत्य करना, दीन-दुखियों को सहायता पहुँचाना आदि कार्यों में उनकी विशेष रुचि थी। छोटे-बड़े व्यसनों से दूर पिताजी ने सोलह वर्ष तक दिन में एक ही बार भोजन करने का व्रत लिया था। आचार्यश्री का बाल-जीवन इस प्रकार से सदाचार सम्पन्न माता-पिता की छत्र-छाया में व्यतीत हुआ। एक प्रकार से निसर्ग योजना में यह मणिकांचन संयोग ही था।
सातगौंडा की लौकिक शिक्षा बहुत कम हुई। वे पाठशाला में तीसरी कक्षा तक पढ़ पाये। शिक्षा के आदान-प्रदान की व्यवस्था भी आज की अपेक्षा देहातों में अपेक्षाकृत कम थी। संस्कारशील माता-पिता के द्वारा घर में जो कुछ धार्मिक संस्कार हुए, केवल वे ही जीवनाधार बन गये। पाठशाला में भी सातगौंडा ने एक बुद्धिमान विद्यार्थी के रूप में ही प्रसिद्धि पाई थी।
जब सातगौंडा जी ९ साल के हुए, ज्येष्ठ भाई देवगौंडा और आदगौंडा का विवाह सम्पन्न हो रहा था। सातगौंडा का भी विवाह जबरदस्ती कर दिया गया। ‘‘संसार विषये सद्य: स्वतो हि मनसो गति:’’। संसार के विषयों में संसारी जीवों की निसर्ग से प्रवृत्ति होती ही है। बच्चों के खेल जैसी प्रक्रिया हो गई। दैव को वह भी स्वीकार नहीं था। विवाह के पश्चात् छ: माह के भीतर ही विवाहिता की इहलोक यात्रा समाप्त हो गर्ई। सातगौंडा बाल्यावस्था में विवाहबद्ध होकर भी निसर्ग से बालब्रह्मचारी रहे। ‘‘लाभात् अलाभं बहुमन्यमान:।’’ लाभ से अलाभ को लाभप्रद मानने की बालक सातगौंंडा की निसर्ग प्रवृत्ति रही है। अनंतर किये गये आग्रह को उन्होंने स्वीकार नहीं किया अर्थात् पुन: विवाह नहीं किया।
आत्मानुशासन, समयसार इन दो ग्रंथों का वाचन सातगौंडा प्रारंभ से ही करते थे। विशेष रूप से तत्त्वचिंतन मनन में काल व्यतीत होता था। आयु के १७वें, १८वें वर्ष में भरी युवावस्था में ही मन में दिगम्बरी दीक्षा लेने के सहज भाव होने लगे परन्तु माता-पिता के दबाववश उस समय वे अपने विचारों को अमल में न ला सके, व्यक्त भी न कर सके। कुछ काल तक उन्हें घर में ही रहना पड़ा परन्तु प्रवृत्ति जल से भिन्न कमल की तरह बनी रही।
शास्त्र-स्वाध्याय की तरह तीर्थक्षेत्रों की भक्ति का भी आचार्यश्री के जीवन में विशेष स्थान रहा। मोक्षमार्ग के पथिक साधक के जीवन में तीर्थयात्रा-दर्शन का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता ही है। असंगभाव या वीतराग भावों की धारा प्रवाहित करने के लिए दृष्टिसम्पन्न साधु यात्रा को अच्छा निमित्त बना सकता है। सातगौंडा यह कर पाये इसी में परिमार्जित तत्त्वदृष्टि स्पष्ट होती है। विहार का उनका प्रत्येक कदम वीतरागता के लिए था अर्थात् वीतरागता की ओर था।
इसी अवस्था में पाँच-छ: साल और बीत गये। सातगौंडा के मन में निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के विचार तीव्रता से आने लगे। इस बार साहस के साथ माता-पिता के समक्ष उन्होंने अपनी भावना व्यक्त भी की परन्तु पिता जी ने कहा, ‘‘हमारे ये अंतिम दिन हैं, दीक्षा लेकर हमारी मानसिक यातनाएँ बढ़ेंगी सो ठीक नहीं होगा, अच्छा नहीं होगा।’’ पिता की आज्ञा तथा पुत्र-कर्तव्य का विकल्प होने से सातगौंडा का दीक्षा लेने का विचार कुछ समय के लिए स्थगित हुआ।
ईसवी सन् १९१२ में सातगौंडा की माताजी की इहलोक यात्रा समाप्त हुई। उसके कुछ साल पहले ही पिताजी का भी स्वर्गवास हुआ था। अब प्रकृतिसिद्ध त्यागमय जीवन और संयमशील बन गया। कोई लगाव भी न रहा। इसी काल में श्रवणबेलगोला-गोमटेश्वर इत्यादि पुण्यक्षेत्रों की दक्षिण यात्रा भी समाप्त कर सातगौंडा भोजग्राम में आये।
सातगौंडा ने जीवन के इकतालीस साल पूर्ण होने के उपरांत दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय किया। उस समय कर्नाटक में दिगम्बर स्वामी श्री देवेंद्रकीर्ति विहार कर रहे थे। ‘‘कापशी’’ ग्राम के निकट ‘‘उत्तूर’’ नामक देहात है। वहाँ उनका आगमन होने पर सातगौंडा मुनिश्री के समीप पहुँचे और दिगम्बर दीक्षा देने की प्रार्थना की परन्तु श्री देवेन्द्रकीर्ति स्वामी ने प्रारंभ में क्षुल्लक पद की ही दीक्षा लेने को कहा। ठीक ही है ‘‘क्रमारम्भो हि सिद्धिकृत्’’ गुरु आज्ञा को प्रमाण माना। ई. सन् १९१४ में ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी तिथि को ‘‘सातगौंडा’’ ने क्षुल्लक दीक्षा धारण की। इस प्रकार स्वतंत्र संयमी जीवन का शुभारंभ हो गया।
श्री गिरनार क्षेत्र का दर्शन करते समय महाराजजी का हृदय उठी हुई वैराग्य भावनाओं से गद्गद हो उठा। भगवान नेमिनाथ के चरणों के पुन:-पुन: दर्शन कर क्षुल्लकजी के वीतराग भावों में सहज वृद्धि हुई। सावधानी तो पूरी थी ही। उसी समय श्री नेमिनाथ भगवान के चरण साक्षी में स्वयं ऐलक पद को स्वीकार किया। एक कौपीन मात्र परिग्रह के बिना सब वस्त्रादि परिग्रहों को त्याग दिया। नूतन प्रतिमा की प्रतिष्ठा पूर्वप्रतिष्ठित प्रतिमा की साक्षी में होती है और नया व्रत विधान पूर्व में व्रती के साक्षी से ही होना चाहिए, ऐसी एक अच्छी प्राचीन परम्परा है। महाराजजी इस परम्परा को तोड़ना नहीं चाहते थे जैसा कि निर्ग्रन्थ दीक्षा के समय देखा गया। इस समय उनसे रहा नहीं गया। वैराग्य भावों की वेगवान गति को वे रोक नहीं सके। पूज्य स्वर्गीय अनुभवसमृद्ध वीरसागर जी महाराज ठीक कहते थे। ‘‘गुरु कहे सो करना गुरु करे सो नहीं करना।’’ अस्तु! इस समय वीतरागता का वैराग्यभाव से अपूर्व मिलन होना था, हो गया। श्री गिरनारजी से लौटते समय ऐलकजी ने श्री दक्षिण कुंडलक्षेत्र की वंदना की। श्री पार्श्वप्रभु भगवान की मूर्ति की साक्षी में ऐलकजी महाराज ने सब वाहनों का आजीवन के लिए परित्याग कर दिया। आगे के लिए विहार का रूप ‘‘पद-विहार’’ ही निश्चित हुआ। ‘‘याजं याजमटन्नवे तीर्थ-स्थानान्यपूजयत्।’’ शुद्ध निर्जंतुक रास्ते से चार हाथ आगे की जमीन को देखकर विहार करते हुए सूर्यप्रकाश में चलने की मुनि की प्रवृत्ति को ईर्यासमिति कहते हैं। गाड़ी, मोटर या रेल सवारी का त्याग त्यागी को इसीलिए होता है। श्री क्षेत्र कुण्डल से विहार करते-करते महाराज जिनमंदिर का दर्शन करते -करते नसलापुर, ऐनापुर, अथणी इस मार्ग से बीजापुर के पास अतिशय क्षेत्र ‘‘बाबानगर’’ को आये। पुण्यक्षेत्र के सहस्रफणी श्री पार्श्वनाथ भगवान का दर्शन करते हुए लौटकर पुन: ऐनापुर आये। वहाँ वे १५ दिन तक ठहरे। यहाँ योगायोग से निर्ग्रंथ मुनिराज श्री आदिसागर जी महाराज का सत्समागम मिला।
निपाणी संकेश्वर के समीप ‘‘यरनाळ’’ ग्राम में पंचकल्याणक महोत्सव के लिए मुनिराज श्री देवेन्द्रकीर्तिजी पधारे थे। ऐलक सातगौंडा महाराज भी वहाँ पहुँचे। उन्होंने गुरु श्रीदेवेन्द्रकीर्ति स्वामी को दिगम्बर दीक्षा देने के लिए पुन: प्रार्थना की। एकत्रित जैन समाज को महाराजजी की योग्यता का पूरा परिचय था। वे महाराजजी से प्रभावित भी थे। मुनि दीक्षा के लिए समाज भर ने एक स्वर से अनुमोदना की।
निर्ग्रंथ दीक्षा लेने का विचार निश्चित हुआ। दीक्षा कल्याणक के दिन तीर्थंकर भगवान् का वन विहार का जुलूस दीक्षा वन में आया। इसी पवित्र समय में ऐलकजी ने भी दीक्षागुरु श्री देवेन्द्रकीर्ति महाराज के पास दिगम्बरी जिनदीक्षा धारण की। ‘नैर्ग्रंथ्य हि तपोऽन्यत्तु संसारस्थैव साधनम्।’ यह दृढ़धारणा थी। भगवान् की दीक्षा विधि के साथ ऐलक महाराजजी की भी निर्गं्रथ दीक्षा विधि सम्पन्न हुई, केशलोंच समारम्भ भी हुआ। ऐलक सातगौंडा मुनि हो गये, यथाजातरूपधारी हुए। मुनि पद का नाम श्री ‘‘शांतिसागर’’ रखा गया। ईसवी सन् १९२० में फाल्गुन शुक्ला १४ उनकी दीक्षातिथि है। इस पवित्र दिन से महाराज श्री का जीवनरथ अब संयम के राजमार्ग द्वारा मोक्षमहल की ओर अपनी विशिष्ट गति से सदा गतिशील ही रहा। अंतरंग में परिग्रहों से अलिप्तता का भाव सदा के लिए बना रहना और बाह्य में परिग्रह मात्र से स्वयं को दूर रखना यह मुनि की अलौकिक चर्या है। शुद्ध आत्मस्वरूप मग्नता यह उसका अन्तःस्वरूप होता है। देह के प्रति भी ममत्व का लेश नहीं होता, वे विदेही भावों के राजा होते हैं इसीलिए लोग उन्हें महाराज कहते हैं।
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों के विषयों पर विजय, छह आवश्यक तथा सात शेष गुण इत्यादि २८ मूलगुणों के ये धारक होते हैं।
यरनाळ में दीक्षा समारंभ समाप्त होने के अनंतर महाराज ने अनेक नगरों में विहार करके धर्मप्रभावना की। महाराज जी के विहार काल में कोण्णूर का चातुर्मास बड़ा महत्वपूर्ण रहा। यहाँ महाराज की जीवनी में अतिशय महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। कोण्णूर ग्राम में प्राचीन गुफाएं बहुसंख्या में हैं। नित्य की तरह गुफा में आचार्य श्री ध्यानस्थ बैठ गये। उसी समय एक नागराज-बड़ा सर्प वहाँ आकर महाराज जी के शरीर पर चढ़कर घूमने लगा। महाराज जी अपने आत्मध्यान में निमग्न थे। ‘नागराज आया है और वह अपने शरीर पर घूम रहा है’ इसका तनिक विकल्प भी महाराज जी को नहीं था। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति की पालना किस प्रकार हो सकती है, इसका यह मूर्तिमान रूप दृष्टिगोचर हुआ। महाराज जी के दर्शनार्थ जो लोग वहाँ पहुँचे थे, उन्होंने यह घटना प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखी। वे साश्चर्य दिङ्मूढ़ हो बैठे रहे। वे सांप से डरते थे। सांप भी जनता से घबड़ाता था। महाराज का आश्रय इसीलिए उसने लिया था। महाराज जी का दिव्य आत्मबल देखकर वहाँ आये हुए यात्रियों में से प्रमुख श्रेष्ठी श्रीमान सेठ खुशालचंद जी पहाड़े और ब्र. हीरालाल जी बड़े प्रभावित हुए। दोनों सज्जन विचक्षण थे। दक्षिण यात्रा के लिए निकले हुए यात्री थे। मिरज पहुँचने के बाद पता चला कि निकट ही दिगम्बर साधु हैं। इसलिए परीक्षा के हेतु वे वहाँ पर पहुँचे थे। उनकी अपनी धारणा थी कि इस काल में साधक का होना असंभव है। भरी सभा में ‘क्या आपको अवधिज्ञान है? या आपको ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त है?’’ आदि वैयक्तिक आचार विषयक प्रश्न भी पूछने लगे। कुछ उलाहना का अंश भी जरूर था। सम्मिलित भक्तगणों में कुछ ऐसे जरूर थे, जो इन सवालों का जवाब मुट्ठियों से देने के लिए तैयार हो गये। मुनि महाराज ने भक्तों को रोका। एक-एक सवाल का जवाब यथानाम ‘‘शांतिसागर जी’’ ने शांति से ही दिया। समागत दोनों परीक्षक अत्यधिक प्रभावित हुए, उसी समय दीक्षा के लिए तैयार भी हो गये। महाराज जी ने ही उन्हें रोककर यात्रा पूरी करने का और कुटुम्ब परिवार की सम्मति लेने को कहा। जब महाराज बाहुबली (कुम्भोज) आये, तब वहाँ आकर उक्त दोनों सज्जनों ने महाराज जी के पास क्षुल्लक पद की दीक्षा धारण की। दीक्षा के बाद श्री सेठ खुशालचंद जी क्षुल्लक ‘चन्द्रसागर’ तथा श्री ब्र. हीरालाल जी का क्षुल्लक ‘‘वीरसागर’’ नामांकन हुआ। समडोली के चातुर्मास में आचार्यश्री के पास क्षुल्लक वीरसागर जी ने निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण की। यही महाराज के प्रथम निर्ग्रंथ शिष्य थे। आचार्यश्री ने आगे चलकर अपने समाधिकाल में श्री वीरसागर महाराज को ही उन्मुक्त भावों से आचार्यपद प्रदान किया। श्री वीरसागर जी की दीक्षा विधि हुई। कुछ ही समय बाद ऐलक नेमण्णा ने भी मुनिदीक्षा धारण की। नाम श्री ‘नेमिसागर’ रखा गया।
समडोली ग्राम में ही सर्वप्रथम आचार्यश्री का चतुःसंघ स्थापन हुआ। अब तक केवल अकेले महाराज ही निर्ग्रंथ साधु स्वरूप में विहार करते थे। अब संघ सहित विहार होने लगा। संघ ने उनको ‘आचार्य’ घोषित किया। आचार्य महाराज का संघ पर वीतराग शासन बराबर चलता था। संघ सहित विहार करते-करते महाराज कुम्भोज से श्री सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी आये। क्षेत्र पर श्री देशभूषण और कुलभूषण मुनिद्वय की चरण पादुकाओं का पावन दर्शन किया। विहारकाल का उपयोग महाराज श्री जाप्य तथा मंत्र स्मरण के लिए विशेष रूप से कर लेते थे।
ई. सन् १९२७ के मार्गशीर्ष वदी प्रतिपदा के दिन श्री सम्मेदशिखर जी क्षेत्र की वंदना और धर्मप्रभावना के उद्देश्य से आचार्यश्री १०८ शांतिसागर जी महाराज की विहार यात्रा संघ सहित बाहुबली (कुम्भोज) क्षेत्र से शुरू हुई।
नागपुर में संघ का अपूर्व स्वागत हुआ। जुलूस तीन मील लम्बा निकला था। शहर के बाहर इतवारी में स्वतंत्र ‘शांतिनगर’ की रचना की गयी थी। कांग्रेस के पंडाल से शांतिनगर का पंडाल कुछ छोटा नहीं था। जनता आज भी उस समय की अपूर्व घटनाओं की स्मृति से आनंद का अनुभव करती है और स्वयं को धन्य मानती है।
संघ की विदाई हृदयद्रावक थी। साश्रुनयनों से श्रावक-श्राविकाओं को अनिवार्यरूप से विदाई देनी पड़ी। दिनाँक ९ जनवरी १९२८ को संघ का नागपुर छोड़कर भंडारा मार्ग से विहार शुरू हुआ। छत्तीसगढ़ के भयंकर जंगलमय विकट मार्ग से निर्बाध होते हुए संघ हजारीबाग आया। बाद में फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर जी सिद्धक्षेत्र को पहुँचा।
यहाँ पर श्री संघपति जी के द्वारा व्यापकरूप में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव द्वारा महती धर्मप्रभावना हुई। भीड़ की सीमा न थी। भारत के कोने-कोने से श्रावक-श्राविकाएँ अत्यधिक प्रमाण में पहुँचे।
पंडित आशाधरजी के शब्दों में कहना होगा, ‘दलित कलिलीला-विलसितम्’ यही पर्वतराज का सजीव मनोहारी दृश्य था। अनेक भाषा, अनेक वेशभूषा में व्यापक तत्त्व की एकता का होने वाला प्रत्यक्ष दर्शन अलौकिक ही था। निर्विकल्प वस्तु के अनुभव के समय विशेष का तिरोभाव और सामान्य का आविर्भाव होता ही है ठीक इसी तरह सांस्कृतिक एकता का यह सजीव स्वरूप प्रभावशाली बन गया।
श्री सम्मेदशिखर की वंदना करके वहां से मंदारगिरी, चम्पापुरी, पावापुरी, कुण्डलपुर, राजगृही, गुणावां आदि अनेक पवित्र तीर्थ क्षेत्रों की संघ ने यात्रा की।
स्वर्गीय १०८ पायसागर जी महाराज आचार्य श्री को पारसमणि की उपमा देते थे। अपनी जीवनी के आधार से ही समादर की भावनाओं से वे अपने प्रवचनों में आचार्यश्री के विषय में गौरवगाथा गाते थे। स्व. आचार्यश्री कुंथुसागर महाराज जी आचार्यश्री के शिष्यों में से उद्भट संस्कृतज्ञ प्रवक्ता रहे, जिनके द्वारा गुजरात में विशेष प्रभावना हुई। आचार्यश्री वीरसागर जी की शिष्य परम्परा से जो जागरण का कार्य हुआ, वह अविस्मरणीय एवं सातिशय ही है।
दिनाँक ६ जनवरी १९३० में संघ धौलपुर स्टेट के राजाखेड़ा शहर में पहुँचा। तीन-चार दिन तक महती धर्मप्रभावना हुई। यह धर्मप्रभावना भी एक अजैन भाई को सहन नहीं हुई। एक संगठन बन गया। लाठी, काठी, तलवार आदि शस्त्रास्त्रों के साथ करीब ५०० लोगों के आक्रमण की गुप्त योजना भी बन गई।
मृगमीनसज्जनानां, तृणजल-संतोष-विहितवृत्तीनाम् ।
लुब्धक-धीवर-पिशुन:, निष्कारण वैरिणो जगति।।
घासपत्ती पर अपना गुजारा करने वाले हिरन, जल में अपना ाfनर्वाह करने वाली मछलियाँ और सन्तोषामृत का पान करने वाले साधु पुरुषों से भी शिकारी, मछलीमार और दुर्जन व्यर्थ ही शत्रुता करते हैं। यह सनातन दुष्टता की परंपरा संसार में चली ही आ रही है। इसका प्रत्युत्तर राजाखेड़ा में आया। छिद्दीलाल ब्राह्मण के नेतृत्व में आक्रमण की तैयारी हो गई थी। संघ का हत्याकाण्ड होने को ही था कि महाराज की अंतरंग स्वच्छता से अंतर्ज्ञान द्वारा जो कुछ भी संकेत मिला हो, उन्होंने संघस्थ त्यागियों से प्रतिदिन की अपेक्षा शीघ्र आहार करके लौटने को कहा। तदनुसार समस्त त्यागी चर्या करके ९ बजे के भीतर ही मंदिर जी में वापिस लौट आये। आक्रामक लोग नारे लगाते हुए मंदिर जी की ओर बढ़े। जैनियों ने इस प्राणांतिक आक्रमण का प्रतिकार भी किया। स्टेट की ओर से पुलिस सहायता भी दौड़ी हुई आयी। पुलिस दल ने आक्रामकों को गिरफ्तार कर लिया लेकिन महाराज जी ने करुणाभाव प्रदर्शित कर उनको छोड़ देने के लिए पुलिस अधिकारी मंडल को बाध्य किया।
जातिलिंगविकल्पेन, येषां च समयाग्रह:।
तेऽपि न प्राप्नुवंति, परमं पदमात्मन:।।
अर्थात् जाति और वेष-परिवेष का विकल्प साधना में पूरा बाधक एवं हेय होता है। इसी प्रकार तेरहपंथ या बीसपंथ के विकल्पों से आत्म साधना अर्थात् परमार्थ-भूत धर्मसाधना अत्यन्त दूर होती है। धर्मदृष्टि के अभाव का ही परिणाम है। टंकोत्कीर्ण धर्म साधन लुप्त प्राय: होती जा रही है और तेरह-बीस पंथ के झगड़े दृढ़मूल बनाए जा रहे हैं और उन्हें धर्माचार का रूप दिया जा रहा है। समाज में आज भी जो भाई तेरह और बीस पंथ के नाम से समय-समय पर वितंडा उपस्थित करते हैं और समाज के स्वास्थ्य को ठेस पहुँचाते हैं, उनकी उस प्रवृत्ति को जो समाज के लिए महारोग के समान है, हम समझते हैं आचार्यश्री का सामंजस्यपूर्ण दूरदृष्टिता का व्यवहार एक अद्भुत कल्याणकारी अमृतोपम रसायन हो सकता है।
संघ विहार करता हुआ गजपंथा सिद्धक्षेत्र पर आया। यहाँ पर सम्मिलित सब जैन समाज ने आचार्यश्री को ‘‘चारित्र-चक्रवर्ती’’ पद से विभूषित किया। महाराजश्री की आत्मा निरंतर निरूपाधिक आत्मस्वरूप के अमृतोपम महास्वाद को सहज प्रवृत्ति से बराबर लेने में परमानंद का अनुभवन करती थी। उन्हें इस उपाधि से क्या? वे पूर्ववत् उपाधि-शून्य स्वभावमग्न ही थे। साधु परमेष्ठी या आचार्य परमेष्ठी के आंतरिक जीवन का यथार्थ दर्शन यह चक्षु का विषय नहीं होता। वह अपनी शान का अलौकिक ही होता है। जहाँ जीवनाधार श्वासोच्छ्वास की तरह इन परमेष्ठियों का श्वांस आत्मा को स्वात्मा में स्थिर बनाये रखने के लिए होता है, वहाँ उच्छ्वास विश्व में अपनी आदर्श प्रवृत्ति के द्वारा शांति स्थापना में और धर्मप्रभावना में उत्कृष्ट निमित्त के रूप में उपस्थित होने के लिए होता है। आचार्यश्री की लोकोत्तम, लोकोत्तर अलौकिकता और वैभवशाली विभूतिमत्ता इसी में थी। ‘‘चारित्र-चक्रवर्ती’’ उपाधि का महाराज को तो कोई हर्ष-विषाद ही नहीं था। ‘‘चारित्र के चक्रवर्ती तो भगवान् ही हो सकते हैं। हम तो लास्ट नम्बर के मुनि हैं। हमें उपाधि से क्या? स्वभाव से निरूपाधिक आत्मा ही हमारी शरण है।’’ समाज ने उनकी गुणग्राहकता और त्याग-संयम के प्रति निष्ठा का जो औचित्यपूर्ण दर्शन किया, वह योग्य ही हुआ।
कुंथलगिरी दक्षिण का सीमावर्ती सुन्दर सिद्धक्षेत्र है। ‘‘यहाँ पर एक विशालकाय बाहुबली भगवान की मूर्ति हो तो अच्छा होगा।’’ यह भव्य आशय कमेटी के सभी सदस्यों को एकदम पसंद आया। पूज्य आचार्यश्री के समक्ष कार्य पूरा होना असंभव था। महाराज जी ने यम सल्लेखना का नियम कर ही लिया था। इसी अवसर पर एक समाचार विदित हुआ कि दक्षिण में म्हैसूर स्टेट के अंतर्गत ‘‘बस्ती हल्ली’’ देहात में एक १५ फुट ऊँची मनोज्ञ मूर्ति है और वह एक अजैन भाई के खेत में करीब अज्ञात अवस्था में पड़ी हुई है, उसी को लाकर खड़ी करने का विचार किया गया। स्व. श्रीमान् सेठ राव जी देवचंद शहा आदि सज्जन स्वयं वहाँ पहुँचे। काफी प्रयास किया गया परन्तु सफलता नहीं मिल पायी। केवल फोटो मात्र मिल पाया। उसे ही सिर पर रखकर आचार्यश्री ने धन्यता के भाव प्रगट किये। वीतरागता की साधना में परम वीतराग मूर्ति के दर्शन से अद्भुत आनन्द की और धर्मोल्लास की लहर होना सहज था। आचार्यश्री की चर्या पर वह दृष्टिगोचर हुई। आचार्य महाराज के भव्य भावों की पूर्ति होनी ही चाहिए, इस प्रकार का भव्य भाव समीपवर्ती सेवाभावी सरल प्रकृति श्रेष्ठीवर्य श्रीमान् नेमचन्द जी मियाचंद जी गांधी, नातेपुते के चित्त में आया। ‘‘यदि महाराज जी की आज्ञा हो, तो इसी क्षेत्र के ऊपर १८-२० फुट ऊँची बाहुबली भगवान् की मूर्ति विराजमान करने का मेरा भाव है’’ इसके पश्चात् सन् १९७० में १८ फीट ऊँची बाहुबली भगवान् की मूर्ति पहाड़ी के ऊपर पूर्वाभिमुख विराजमान होकर प्रतिष्ठा भी सम्पन्न हो गई। इस प्रकार एक तरह से महाराज के सम्पूर्ण काम सिद्ध हुए।
जैनियों की दक्षिणकाशी फलटण नगरी धर्मकार्यों को उत्साह तथा उल्लास के साथ करती ही आ रही है। सन् १९५२ की घटना है। पूज्य श्री की जीवनी के ८० वर्ष पूरे हुए। इस प्रसंग से हीरक जयंती महोत्सव सम्पन्न करने का निर्णय एक स्वर से क्रिया गया। आचार्यश्री को उत्सवों से कोई हर्ष-विषाद नहीं था। एक तरह से त्याग तपस्या का ही यह गौरव था। जून की दिनाँक १२, १३, १४ ये तीन दिन विशेष आनन्दोत्सव के रहे। सर्वत्र चहल-पहल रही। भारत के कोने-कोने से हजारों भाई फलटण पहुँचे। ताम्रपत्रों के ऊपर उत्कीर्ण धवलादि ग्रंथों का हाथियों के ऊपर जुलूस निकालकर वे ग्रंथ भक्ति-भावपूर्वक पूज्य आचार्यश्री को समारोह के साथ समर्पण किये गये। छोटे-मोटे सभी कार्यों में विशेष सातिशय सजीवता दिखलायी देती थी। स्वयं फलटण स्टेट के अधिपति श्रीमान् मालोजीवराव निंबालकर फलटण नगरी का यह अहोभाग्य समझते रहे।
तिथिपर्वोत्सवा सर्वे, व्यक्ता येन महात्मना।
अतिथि तेऽवजानीयात् शेषमभ्यागतं विदु:।।
सब ही तिथियाँ, पर्व और उत्सव संबंधी विकल्पों से ये महर्षि सदा ही दूर होते हैंं इसीलिए इनका यथार्थ नाम ‘अतिथि’ होता है।
सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार करने पर आत्मा तो यही कहती है कि, महाराज वर्तमान युग के महान् सत्पात्र तो रहे ही हैं परन्तु उनके द्वारा जो ज्ञानदान और दृष्टिदान हुआ है, उससे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि महाराज श्रेष्ठ से श्रेष्ठ दानी भी रहे। पात्र समझकर जो चढ़ाया गया, वह थोड़ा था और दाता समझकर जो कुछ समाज के द्वारा लिया गया वह भी थोड़ा था, इस सत्य को स्वीकार करना होगा।
विचार और भावनाओं का समान संयोग आचार्यश्री के जीवन की एक विश्ोषता थी। भावनाओं में आकर शक्ति को व्यर्थ खोना या व्यर्थ खोने का विकल्प करना यह असंभव था। भविष्य की आशा में वर्तमान को गंवाना वे प्रकाश के बदले में अंधकार को खरीदना जैसा मानते थे। वर्षों से अखण्ड रूप से की गयी हजारों मीलों की पदयात्रा, यथासंभव अनुकूल-प्रतिकूल आहार का संयोग, उपवासों की धाराप्रवाहिता, वृद्धावस्था, अल्पनिद्रा आदि कारणों से दृष्टि में पूर्व की अपेक्षा अधिकाधिक मंदता का अनुभव होने लगा। वैद्य और डाक्टरों से समय-समय पर बराबर परामर्श होता था। शुद्ध उपचारों का विशुद्ध भावनाओं से अमल भी होता था। दृष्टि विनाश होने के बाद समितियों का पालन और प्राणस्वरूप मुनिचर्या असंभव है, इसलिए साधनों की सुरक्षा सावधानीपूर्वक अप्रमाद भाव से आचार्यश्री प्रारंभ से ही करते रहे। दिनाँक १४-८-१९५५ को महाराज जी द्वारा सल्लेखना का ज्यों ही निर्णय प्रगट हुआ, समाज भर को, देशभर को भूचाल जैसा धक्का लगा, जो स्वाभाविक ही था। अंततोगत्वा आचार्य महाराज की ३६ दिवसीय सल्लेखना के साथ १८ सितम्बर १९५५, भाद्र शुक्ला दूज, रविवार को प्रात:काल ६.५० पर ‘‘ॐ सिद्धाय नम:’’ के साथ समाधि पूर्ण हुई।
उपवासों की संख्या | कितनी बार | उपवास के कुल दिन |
(१) १६ दिन का | ३ बार | ४८ |
(२) १० दिन का | १ बार | १० |
(३) ९ दिन का | ६ बार | ५४ |
(४) ८ दिन का | ७ बार | ५६ |
(५) ७ दिन का | ६ बार | ४२ |
(६) ६ दिन का | ६ बार | ३६ |
(७) ५ दिन का | ६ बार | ३० |
(८) ४ दिन का | ६ बार | २४ |
(९) अंतिम ३६ दिन तक के उपवास में स्वर्गवास |
१ बार | ३६ |
योग-३३६ दिन
व्रत नाम | उपवासों की संख्या |
१. चारित्रशुद्धि व्रत | १२३४ |
२. तीस चौबीसी व्रत | ७२० |
३. कर्मदहन व्रत (तीन बार) | ४६८ |
४. सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत (तीन बार) | २७० |
५. सोलहकारण व्रत (१६/१६) | २५६ |
६. श्रुतपंचमी व्रत | ३६ |
७. विहरमान व्रत (२० तीर्थंकर व्रत) | २० |
८. दशलक्षण पर्व | १० |
९. सिद्धों के व्रत (८) | ८ |
१०. अष्टाह्निका व्रत | ८ |
११. गणधरों के व्रत | २०० |
गणधरों के १४५२ उपवास होते हैं। आचार्य श्री २०० ही कर पाये थे। |
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१२. अतिरिक्त व्रत | ६३७२ |
योग ९६०२
आचार्यश्री ने अपने जीवन में ३३६+९६०२·९९३८ उपवास किये हैं।
समाधिमरण-सल्लेखना क्या और क्यों ?
महाराज श्री के नेत्रों में काँच-बिन्दु का रोग हो जाने से नेत्रों की ज्योति मंद होती जा रही थी। तब उन्होंने विचार किया कि देखने की शक्ति नष्ट होने पर ईयासमिति नहीं बनेगी, भोजन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा, पूर्ण अहिंसा धर्म का रक्षण असंभव हो जायेगा। तब पूज्य श्री ने निर्णय ले लिया कि निर्वाणभ्ूामि में जाकर समाधिमरण करूँगा और वे कुंथलगिरि पहुँच गये। सांसारिक प्रपंचोें में फंसा मोही जीव समाधिमरण की महत्ता व शुद्धता की कल्पना भी नहीं कर सकता। वह तो समाधिमरण को आत्महत्या ही सोचता है। जबकि यह सोचना सर्वथा भ्रम है। आत्महत्या में कषाय होती है किन्तु समाधिमरण में महान निर्मलता, शक्ति एवं प्रसन्नता रहती है। उपसर्ग, बुढ़ापा या बीमारी के कारण जब मृत्यु का वरण अनिवार्य हो जाये, तब ज्ञानी व्यक्ति शरीर से समस्त मोह-ममता तोड़कर अपने धर्म की रक्षा करते हैं। जिस प्रकार घर में आग लग जाने पर लोग उसमें से अपने प्रिय जनों तथा कीमती वस्तुओं आदि को निकाल लेते हैं। उसी प्रकार ज्ञानी जन शरीर के नष्ट होने की संभावना होने पर अपने अनमोल धर्म की रक्षा करते हैं। जीवन भर पूजा पाठ करते रहे और अन्त समय में रोये दु:ख मनाया तो समझो कि धर्म का मर्म नहीं समझा। आत्मा में अपनत्व-बुद्धि होना और आत्मा के स्वरूप में स्थिर होना यही समाधि है। इसी को सल्लेखना अथवा पंडित मरण भी कहा है अर्थात् विवेकपूर्वक मरण।
अपने ३६ दिन के उपवास में पूज्य श्री ने केवल आठ बार जल लिया। उपवास के २६वें दिन ता. ८ सितम्बर १९५५ को सायंकाल के समय उन साधुराज ने २२ मिनट पर्यन्त लोककल्याण के लिए अपना अमर संदेश दिया, जिससे विश्व के प्रत्येक शांति प्रेमी को प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त होती है। ३२वें दिन भी वे इतने सजग थे कि लोगों के पूछने पर कि आप स्वस्थ हैं उन्होंने कहा कि मैं सिद्धों के समान अपनी आत्मा का ध्यान कर रहा हूँ और १८ सितम्बर भादों सुदी द्वितीया का दिन आया, वह दिन रविवार का था, अमृत सिद्धियोग था, नभोमण्डल में सूर्य का आगमन हुआ, घड़ी में ६ बजकर पचास मिनट हुए थे कि ८४ वर्ष की आयु में चारित्रचक्रवर्ती साधुराज स्वर्ग को प्रयाण कर गये। छत्तीस गुण वाले आचार्य परमेष्ठी की छत्तीस दिवसीय समाधि अलौकिकतापूर्ण थी।
(परमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने कुंथलगिरि तीर्थ पर आमरण अनशन के २६वें दिन ता. ८ सितम्बर को शाम के ५ बजे मराठी में मानव-कल्याण के लिए जो उपदेश दिया, वह रिकार्ड किया गया था। आचार्य श्री के उस अमर संदेश का हिन्दी में अनुवाद समाज की जानकारी के लिए यहाँ प्रकाशित किया जा रहा हैैै।)
ॐ नम: सिद्धेभ्य:-३, पंचभरत, पंचऐरावत के भूत भविष्यत्काल संबंधी भगवानों को नमस्कार हो। तीस चौबीसी भगवानों को, श्री सीमन्धर आदि बीस तीर्थंकर भगवानों को नमस्कार हो। भगवान ऋषभदेव से महावीर पर्यंत के १४५२ गणधर देवों को नमस्कार, चारण ऋद्धिधारी मुनियों को नमस्कार,चौंसठ ऋद्धिधारी मुनीश्वरों को नमस्कार। अन्तकृतकेवलियों को नमस्कार। प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में होने वाले १०-१० घोरोपसर्ग विजेता मुनीश्वरों को नमस्कार हो।
ग्यारह अंग चौदह पूर्व प्रमाण शास्त्र महासमुद्र है। उनका वर्णन करने वाले श्रुतकेवली नहीं हैं, उसके ज्ञाता केवली, श्रुतकेवली भी अब नहीं हैं। उसका वर्णन हमारे सदृश क्षुद्र मनुष्य क्या कर सकते हैं? जिनवाणी सरस्वती ‘श्रुतदेवी’ अनन्त समुद्र तुल्य है। उसमें कहे गये जिनधर्म को जो धारण करता है, उसका कल्याण होता है, उसको अनन्त सुख मिलता है, उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसा नियम है। एक अक्षर ॐ है। उस एक ॐ अक्षर को धारण करके जीवों का कल्याण हुआ है। दो बन्दर लड़ते-लड़ते सम्मेदशिखर से स्वर्ग गये। सेठ सुदर्शन तिर गया। सप्त व्यसनधारी अंजन चोर तिर गया। कुत्ता महानीच जाति का जीव जीवन्धरकुमार के णमोकार मंत्र के उपदेश से देव हुआ। इतनी महिमा जैनधर्म की है किन्तु (श्वांस लेते हुए) जैनियों को अपने धर्म में श्रद्धा नहीं है।
जीव और पुद्गल पृथक्-पृथक् हैं-
अनन्त काल से जीव पुद्गल से भिन्न है, यह सब लोग जानते हैं पर विश्वास नहीं करते। पुद्गल भिन्न है जीव अलग है। तुम जीव हो, पुद्गल जड़ है इसमें ज्ञान नहीं है, ज्ञान-दर्शन चैतन्य जीव में है। स्पर्श-रस-गंध-वर्ण पुद्गल में हैं, दोनों के गुण, धर्म अलग-अलग हैं। पुद्गल के पीछे पड़ने से जीव को हानि होती है। तुम जीव हो, मोहनीय कर्म जीव का घात करता है। जीव के पक्ष से पुद्गल का अहित है। पुद्गल से जीव का घात होता है। अनन्त सुख स्वरूप मोक्ष जीव को ही होता है पुद्गल को नहीं, सब जग इसको भूला है। जीव पंच पापों में पड़ा है। दर्शन मोहनीय के उदय ने सम्यक्त्व का घात किया है। क्या करना चाहिए? सुख प्राप्ति की इच्छा है, तो दर्शन मोहनीय का घात करो, चारित्र मोह का नाश करो, आत्मा का कल्याण करो, यह हमारा आदेश व उपदेश है। मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव संसार में फिरता है। मिथ्यात्व का नाश करो, सम्यक्त्व को प्राप्त करो। सम्यक्त्व क्या है? सम्यक्त्व का वर्णन समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड़, गोम्मटसार आदि बड़े-बड़े ग्रंथों में है, पर इन पर श्रद्धा कौन करता है? आत्म-कल्याण करने वाला ही श्रद्धा करता है। मिथ्यात्व को धारण मत करो, यह हमारा आदेश व उपदेश है। ॐ सिद्धाय नम:।
कर्म की निर्जरा का साधन आत्म-चिंतन-
तुम्हें क्या करना चाहिए ? दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करो, आत्मचिन्तन से दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय होता है, कर्मों की निर्जरा भी आत्मचिन्तन से होती है।
दान से, पूजा से, तीर्थ यात्रा से पुण्य-बंध होता है। हर धर्म कार्य से पुण्य का बंध होता है किन्तु कर्म की निर्जरा का साधन आत्म-चिंतन है। केवलज्ञान का साधन-आत्म-चिंतन है। अनन्त कर्मों की निर्जरा का साधन आत्म-चिन्तन है। आत्म-साधन के सिवा कर्म-निर्जरा नहीं होती है। कर्म निर्जरा बिना केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञान बिना मोक्ष नहीं होता। क्या करें? शास्त्रों में आत्मा का ध्यान उत्कृष्ट ६ घड़ी, मध्यम ४ घड़ी और जघन्य २ घड़ी कहा है। कम से कम १०-१५ मिनट ध्यान करना चाहिए। हमारा कहना यह है कि कम से कम ५ मिनट तो आत्म-चिन्तन करो। इसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्व के पश्चात् संयम धारण करो। सम्यक्त्व होने पर ६६ सागर यहाँ रहोगे। चारित्रमोहनीय का क्षय करने के लिए संयम धारण करना चाहिए, इसके बिना चारित्रमोहनीय का क्षय नहीं होता। संयम धारण किये बिना सातवाँ गुणस्थान नहीं होता और सातवें गुणस्थान के बिना उच्च आत्म-अनुभव नहीं होता। वस्त्रधारी को सातवाँ गुणस्थान नहीं होता है।
सम्यक्त्व और संयम धारण के बिना समाधि संभव नहीं-
ॐ सिद्धाय नम:। समाधि दो प्रकार की है-एक निर्विकल्प समाधि और दूसरी सविकल्प समाधि। गृहस्थ साविकल्प समाधि धारण करता है। मुनि हुए बिना निर्विकल्प समाधि नहीं होगी अतएव निर्विकल्प समाधि पाने के लिए पहले मुनि पद धारण करो। इसके बिना निर्विकल्प समाधि कभी नहीं होगी। निर्विकल्प समाधि हो तो सम्यक्त्व होता है, ऐसा कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है। आत्म-अनुभव के सिवाय नहीं है। व्यवहार सम्यक्त्व खरा (परमार्थ) नहीं है। फूल जैसे फल का कारण है, व्यवहार सम्यक्त्व आत्म-अनुभव का कारण है। आत्म-अनुभव होने पर खरा (परमार्थ) सम्यक्त्व होता है। निर्विकल्प समाधि मुनि पद धारण करने पर होती है। सातवें गुण-स्थान से बारहवें पर्यंत निर्विकल्प समाधि होती है। तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान होता है, ऐसा शास्त्र में कहा है। यह विचार कर डरो मत कि क्या करें? संयम धारण करो। सम्यक्त्व धारण करो। इसके सिवाय कल्याण नहीं है, संयम और सम्यक्त्व के बिना कल्याण नहीं है। पुद्गल और आत्मा भिन्न हैं, यह ठीक-ठीक समझो। तुम सामान्य रूप से जानते हो, भाई, बन्धु, माता, पिता पुद्गल से संबंधित हैं, उनका जीव से कोई संबंध नहीं है। जीव अकेला है। बाबा (भाइयों)! जीव का कोई नहीं है। जीव भव-भव में अकेला जावेगा। देवपूजन, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, दान और तप ये धर्म कार्य हैं। असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या, वाणिज्य ये ६ कर्म कहे गये हैं। इनसे होने वाले पापों का क्षय करने को उक्त धर्म क्रिया कही है, इससे मोक्ष नहीं है। मोक्ष किससे मिलेगा? केवल आत्म-चिंतन से मोक्ष मिलेगा और किसी क्रिया से मोक्ष नहीं होता।
जिनवाणी का अपूर्व माहात्म्य-
भगवान की वाणी पर पूर्ण विश्वास करो, इसके एक-एक शब्द से मोक्ष पा जाओगे। इस पर विश्वास करो। सत्य वाणी यही है कि एक आत्म-चिंतन से सब साध्य है और कुछ नहीं है। बाबा (भाई)! राज्य, सुख, सम्पत्ति, संतति सब मिलते हैं, मोक्ष नहीं मिलता है। मोक्ष का कारण एक आत्म-चिंतन है। इसके बिना सद्गति नहीं होती है।
सारांश-‘‘धर्मस्य मूलं दया’’ प्राणी का रक्षण दया है। जिन धर्म का मूल क्या है ? ‘‘सत्य और अहिंसा।’’ मुख से सब सत्य-अहिंसा बोलते हैं। मुख से भोजन कहने से क्या पेट भरता है ? भोजन किये बिना पेट नहीं भरता है, क्रिया करनी चाहिए। बाकी सब काम होंगे। सत्य अहिंसा पालो। सत्य से सम्यक्त्व है। अहिंसा से दया है। किसी को कष्ट नहीं दो। यह व्यवहार की बात है। सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो। इसके बिना कल्याण नहीं हो सकता।
हाथी का स्नान-
मुनि श्री नेमिसागर जी जब गृहस्थ थे और व्यापार करते थे, तभी से आचार्यश्री के संपर्क में आ गये थे। गृहस्थी चलाते हुए ही उन्होंने कई कठोर नियम पाल रखे थे और विरक्ति मार्ग पर चलने के लिए अपने को तैयार कर रहे थे। उन्हें विश्वास था कि हमारा यह भक्ति-वैराग्य हमें सद्गति अवश्य प्रदान करेगा।
परन्तु आचार्य महाराज ने एक ही उपमा से उनकी सारी चित्तवृत्ति को नयी ही दिशा में मोड़ दिया। महाराज ने एक बार नेमिसागर जी से कहा, ‘तुम्हारा यह भक्ति-वैराग्य हाथी के स्नान जैसा है’।
बस, इस एक वाक्य का प्रभाव इतना गहरा एवं इतना व्यापक हुआ कि नेमिसागर जी ने गृहस्थी को त्यागकर त्यागमार्ग अपना लिया।
पात्र जैसा हो, उपदेशक की बातों का स्वरूप और उनका लहजा भी वैसा ही होता है। नेमिसागर जी परिपक्व आत्मा थे, इस कारण आचार्यश्री ने उन्हें बहुत विस्तृत रूप से समझाना आवश्यक नहीं समझा।
महाराज के उपदेश का विस्तृत अर्थ यह था-‘‘हाथी को जब नहलाया जाता है, तो उसके शरीर पर का मैल आसानी से छूटता नहीं। महावत ईंट से रगड़-रगड़ कर उसके मोटे चमड़े को धोता है, तब कहीं जाकर उसका मैल उतरता है। परन्तु इतनी कठिनाई एवं परिश्रम से हाथी को नहलाने का लाभ ही क्या ? क्योंकि किनारे पर चढ़ते ही वह मिट्टी उठा-उठा अपने मस्तक पर तथा सारे शरीर पर डाल लेता है और फिर थोड़ी ही देर में मैले का मैला हो जाता है।
‘‘इसी प्रकार तुम भक्ति-वैराग्य करने के लिए मेरे पास आते हो और बड़े परिश्रम के साथ अपने मन का मैल धोते हो। फिर भी उससे लाभ क्या ? थोड़ी ही देर में तुम घर लौट जाते हो और फिर संसार भर के कर्ममलों से अपनी आत्मा को गंदा कर लेते हो। इस कारण तुम्हारा यह भक्ति-वैराग्य करना हाथी के स्नान जैसा है।’’
आचार्यश्री की उपमा का यह सारा तात्पर्य गृहस्थी नेमण्णा (नेमिसागर) के मन में समा गया और आचार्यश्री की यह उक्ति सुनते ही उनके मन की विरक्त भावना और प्रबल हो उठी तथा उनका संकेत समझकर उन्होंने त्यागी जीवन अपना लिया।’’
फूल व फल की उपमा-
आचार्यश्री ने तर्क करने वालों को समझाने के लिए एक सुन्दर उपमा से काम लिया। उन्होंने कहा कि देव की पूजा पुष्प के समान है और आत्मदर्शन फल के समान। मनुष्य देव-आराधना के बिना आत्म दर्शन का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार, जैसे फूलों के बिना फल नहीं हो सकता। देव-आराधना मुक्ति मार्ग की प्रथम सीढ़ी है। जब वह पूर्ण रूप से विकसित हो जाये, तभी सत्संग एवं गुरु कृपा के प्रभाव से सम्यक् दर्शन सिद्ध होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे फूल के पूर्ण विकसित होकर पंखुड़ियाँ झड़ जाने के बाद ही फल होता है।
जब आचार्यश्री ने यह उपमा दी तो किसी ने पूछा, ‘तो महाराज, आप अब तक देव-आराधना करते हैं। यह क्यों ?
आचार्य श्री ने कहा, ‘‘मनुष्य ऊपर की मंजिल पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों का सहारा लेता है। ऊपर पहुँचने के बाद उसे सीढ़ियों की आवश्यकता भले ही न हो, फिर भी वह यह तो नहीं भूल सकता कि इन्हीं सीढ़ियों के सहारे मैं ऊपर पहुँचा हूँ? अगर कोई मंजिल पर पहुँचते ही सीढ़ियों को लात मारकर गिरा दे, तो उसका वह व्यवहार क्या उचित कहा जा सकता है ?
‘
‘और फिर हमारा काम केवल ऊपरी मंजिल पर स्वयं पहुँचना ही नहीं, बल्कि औरों को भी पहुँचाना है। यदि हम पूजा-विधि से विमुख हो जायें, तो और लोग वैâसे समझ सकते हैं कि मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी क्या है ? इसीलिए मैंने देव आराधना को नहीं छोड़ा है। सर्वव्यापी भगवान की जिस रूप में जहाँ भी आराधना की जाये, वह अनुचित या अनावश्यक नहीं हो सकती।’’
इन सुन्दर उपमायुक्त उक्तियों ने अधपढ़े तर्क-शिरोमणियों को अवाक् कर दिया और उन्होंने अपने विचार सुधार लिये।
नंगी तलवार की उपमा-
एक बार वकील साहब ने या किसी और सज्जन ने महाराज से पूछा-‘‘महाराज! कई तीर्थंकर ऐसे हुए हैं जो भोगमार्ग में रहते हुए अचानक ही विरक्ति मार्ग अपना कर मुक्त हुए हैं और लोग भी ऐसा नहीं कर सकते क्या ?’’
महाराज ने जवाब दिया, ‘कल्पना कर लो दुधारू नंगी तलवारें मूठ के बल पर खड़ी की गई हैं, इन तलवारों की नोंक पर फल रखे हैं। एक तोता पास में है और लाखों चीटिंया भी हैं। तोता उड़ता हुआ आता है और झट एक फल को चोंच में लेकर खा जाता है। क्या, चीटिंयाँ भी ऐसा कर सकती है ?’’
प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है ?’’
आचार्यश्री ने पूछा, ‘मान लो चूहा जैसा कोई भारी जानवर है। वह चिउंटियों की तरह तलवार की धार पर चलकर उस फल का रसास्वादन कर सकता है ?’’
प्रश्नकर्ता ने जरा सोचकर कहा, ‘नहीं। क्योंकि अपने ही भार के कारण चूहा कटकर मर जायेगा, तलवार की धार पर चलकर ऊपर चढ़ना चिउंटी जैसे हल्के जीवों के लिए संभव हो सकता है।’’
आचार्यश्री ने कहा, ‘बस तुम्हारे प्रश्न का यही उत्तर है। तीर्थंकर सम्राट लोग अवधिज्ञान-प्राप्त दिव्य जीव थे। भूत भविष्य एवं वर्तमान का विपुल ज्ञान उन्हें प्राप्त था। वे अतुल्यवीर्य युक्त भी थे। ऐसे असाधारण जीव अंतिम घड़ी तक भोग में बिताने के बाद अचानक मुनिव्रत धारण करके मुक्त हो गये, तो उसका अर्थ यह थोड़े ही हो सकता है कि सब ऐसा कर सकते हैं ?
‘साधारण भोगी मनुष्य चूहे आदि भारी जानवरों के समान है। वह इस दुधारू तलवार की धार पर चलने की कल्पना तक नहीं कर सकता है। उसके लिए उसे त्यागमार्ग अपनाकर अपने कर्मों के बोझ को कठोर व्रत-नियमादि से अधिक से अधिक घटा लेना चाहिए। इस चींटी के समान हल्का हो जाने के बाद ही साधारण मनुष्य मुक्ति-पथ को तलवार की धार पर कदम रख सकता है, अन्यथा नहीं।
‘‘तीर्थंकर लोग तोतों के समान हैं। साधारण गृहस्थ चूहों के समान हैं और साधु लोग चिउंटियों के समान हैं। समझ गये न ?’’
प्रश्नकर्ता ने और अन्य सबने कहा, ‘‘हाँ महाराज! अच्छी तरह समझ गये।’’
महाराज ने पूछा, ‘‘कोई बात कहने की रह तो नहीं गई है ?’’
लोगों ने कहा, ‘‘नहीं तो महाराज!’’
प्रश्न का एक नया पहलू-
महाराज ने कहा, तीर्थंकरों के विषय में एक बात रह गई है। भरत जैसे सार्वभौम सम्राट आये, अतुल्य सुख भोगे, अन्तिम घड़ी में विरक्त जीवन अपनाया और तत्काल मुक्त हो गये। परन्तु क्या, उनके साथ जो कुछ हुआ, वह इतना ही था ? उपरोक्त वर्णन तो उनके असंख्यात काल के जीवन का आखिरी पर्व मात्र था। उससे पहले कितने असंख्य जन्मों के सतत प्रयत्न के फलस्वरूप कर्मक्षय होकर वे सार्वभौम सम्राट् बनकर अवतरित हुए, यह भी तो हमें सोचना चािहए। अंत में उनको जो भाग्योदय हुआ, उसी को उनका सारा जीवन समझने ही से यह भूल होती है कि वे कुछ ही घड़ी विरक्त रहकर मुक्त हो गये। वास्तव में ऐसी बात नहीं है। ठीक है न ?’’
प्रश्न के इस नये पहलू पर महाराज के प्रकाश डालने के बाद दूसरों का ध्यान गया। इस वार्तालाप के गहन एवं व्यापक अर्थ पर विचार करते हुए सब लोग लौट गये।
दिगम्बर जैन साधु दिगम्बर क्यों ?-
आजकल कुछ बुद्धिवादी लोग कहते हैं, ‘‘हम सब बातों को मानते हैं। पर साधु का दिगम्बर रहना हमें अनुचित एवं अनावश्यक प्रतीक होता है। दिगम्बरत्व तो केवल प्रतीकात्मक पारिभाषित शब्द है। उसका भावार्थ केवल इतना है कि पाँच महापापोंरूपी वस्त्रों के आवेष्टन से मुक्त हो जाना। इच्छा, द्वेष, लोभ, असत्यादि पापों को मन से दूर कर देना। वस्त्र पहनकर भी विरक्त लोग इन पापों से दूर रह सकते हैं। दिगम्बरत्व का वास्तविक अर्थ नग्नत्व नहीं है,’’ इत्यादि।
परन्तु जरा व्यावहारिक दृष्टि से सोचा जाये, तो भी ऐसे तर्क का खोखलापन स्पष्ट हो जायेगा।
दिगम्बर जैन मुनि को हर प्रकार की आवश्यकताओं-अपेक्षाओं से मुक्त एवं रहित होना चाहिए अन्यथा वह सम्पूर्ण रूप से निस्पृह नहीं हो सकता। अपने खाने के लिए एक दाना भी वह रख नहीं सकता, न पीने के लिए जल। वह किसी भी प्रकार की याचना नहीं कर सकता, वह अयाचक होता है। जब वह आचारचर्या के लिए निकलता है तब मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालता। सभी अन्तरायों से बचकर जब वह आहार ग्रहण नहीं करता है, तब भी वह स्वयं कह नहीं सकता कि अमुक वस्तु चाहिए, अमुक वस्तु नहीं। वह हर जगह पैदल ही चलता है। वाहनों का उपयोग उसके लिए निषिद्ध है।
सत्य-निष्ठा के लिए दिगम्बरत्व आवश्यक-
ऐसी स्थिति में यदि वस्त्र धारण की छूट दी जाये तो साधु की विशुद्ध तपश्चर्या में ऐसी बाधाएँ उत्पन्न हो जायेंगी, जिनकी कि कल्पना नहीं की जा सकती। उसका त्यागी जीवन संग्रह जीवन में परिवर्तित ही जायेगा।
कल्पना करें, दिगम्बर जैन साधु को वस्त्र पहनने की आजादी दी जाती है। उसका अर्थ यह होगा कि गर्मियों में सूती कपड़ों और सर्दियों में गरम कपड़ों की प्राप्ति के लिए साधु तरह-तरह की चिन्ताएँ करने लगेगा। या तो उसे उसके लिए याचना करनी पड़ेगी या और तरह से संग्रह करना पड़ेगा। इससे जहाँ उसकी अयाचक वृत्ति नष्ट हो जायेगी, वहाँ उसमें अपरिग्रह भी नहीं रहेगा। साथ ही परीषह-सहन के कठोर नियम से भी वह मुक्त हो जायेगा।
जहाँ ये तीनों प्रतिबंध-अयाचन, अपरिग्रह एवं परीषह-सहन हट गये, वहीं पाखण्डों-ढोंगियों के लिए खुली छूट मिल जायेगी। ऐसे लोग भी बेहिचक साधु बनने लगेंगे, जिन्होंने इन्द्रियदमन नहीं किया हो और लोभ का परित्याग नहीं किया हो।
दिगम्बर जैन समाज की सबसे बड़ी महानता यही है कि धर्महानि के इस युग में भी उसमें ऐसे साधु हुए हैं और हो रहे हैं, जो कठोर तपस्या की अग्नि में स्वर्ण की भांति तपकर कुन्दन की तरह शुभ्रयश पैâलाते हुए निकले और निकलते हैं। इसका एक मात्र कारण वही है जिसका मैं उत्तर विशद उल्लेख कर चुका हूँ अर्थात् दिगम्बर जैन साधु को ऐसे कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है और ऐसे दारूण परीषहों को सहन करना पड़ता है कि जिसने वासनाओं पर सम्पूर्ण विजय नहीं पायी हो और जो मन-वचन-कर्म से सम्पूर्ण विरक्त नहीं हो, वह दिगम्बर जैन साधु बनने का साहस ही नहीं कर सकता। यदि दिगम्बरत्व का एक नियम हट गया, तो दिगम्बर जैन साधुओं का यह निर्मल चरित तत्काल भ्रष्ट हो जायेगा।
जितने भी विचारकोें से मैंने इस विषय पर गंभीर चर्चा की, उन सबका यही मत है कि दिगम्बरत्व ही वह बाँध है, जिसको लांघने का साहस पाखण्डियों में नहीं हो सकता। ज्यों ही यह बाँध टूटा, धर्म का वास्तविक निर्मल स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा।
ब्रह्मचर्य की आवश्यकता-
प्रश्न-मुक्तिमार्ग में ब्रह्मचर्य क्यों आवश्यक समझा गया है ? साधारण मनुष्य सीमित रूप में भी ब्रह्मचर्य के कठिन व्रत का पालन करना चाहें, तो उन्हें क्या करना चाहिए ?
उत्तर-स्त्री एवं धन धर्म के मार्ग में बाधक माने गये हैं। माता-पिता, भ्राता, पुत्र ये सब मुक्तिमार्ग में उस तरह बाधा नहीं डाल सकते, जिस तरह स्त्री बाधा डाल सकती है। इसी कारण जैनधर्म में मुक्तिमार्ग के लिए स्त्री का त्याग आवश्यक माना गया है। भोग का परित्याग एवं त्याग का अनुसरण मुक्तिमार्ग के लिए अनिवार्य है।
परन्तु गृहस्थ के लिए स्त्री का सम्पूर्ण त्याग न संभव है, न उचित ही। धर्मकार्य को निरन्तर चालू रखने के लिए सन्तान की आवश्यकता तो होती ही है। सभी ब्रह्मचारी रह जायें, तो धर्म का कार्य चले वैâसे ? इस कारण गृहस्थ को सन्तान-प्राप्ति की इच्छा से अपनी विवाहिता पत्नी के साथ संभोग करना चाहिए। आवश्यक संतानों के जन्म के बाद स्वस्त्री गमन भी छोड़ देना चाहिए। परस्त्री गमन तो गृहस्थ को किसी हालत में नहीं करना चाहिए। जो इस तरह नियम-निष्ठा का पालन करे, वह गृहस्थ भी ब्रह्मचारी के ही समान होता है।
नैतिक पतन के कारण-
प्रश्न-बहुत से लोगोें का विश्वास है, संसार-विशेषकर भारत के लोगों का नैतिक स्तर इस समय इतना गिर गया है कि जितना पहले कभी नहीं था। क्या, आपका भी यही विश्वास है ? आपकी राय में इस पतन के क्या कारण हैं ?
उत्तर-मेरा भी विश्वास है कि लोगों का नैतिक स्तर अब बहुत गिर गया है। मेरे बचपन में लोगों में जितना चरित्रबल एवं सच्चाई पाई जाती थी, इसका लेशमात्र भी अब नहीं पाया जाता है।
इस नैतिक पतन का कारण यह है कि लोग सन्मार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलने लग गये। सन्मार्ग क्या है ? पंच-महापापों का त्याग। पंच-महापाप ये हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अतिलोभ। इन पाँचों पापों को न त्यागने से हो लोग गिर गये।
प्रश्न-इस स्थिति को कैसे सुधारा जा सकता है ?
उत्तर-सन्मार्ग को पुन: अपनाने से। यह इने-गिने व्यक्तियों से नहीं हो सकता। स्वयं सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यथा राजा तथा प्रजा। यदि सरकार कानूनन पंच-महापापों का त्याग अनिवार्य कर दे और स्वयं शासकगण सन्मार्ग ग्रहण करें, तो साधारण जनता भी कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग में प्रवृत्त हो जायेगी। यदि सरकार ऐसा करे, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि देश के सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बरसात का न होना, अन्न की कमी, प्राकृतिक उत्पात आदि कोई भी संकट नहीं रहेगा और समस्त प्रजा का कल्याण होगा।
स्त्री-शिक्षा का समर्थन-
प्रश्न-स्त्री शिक्षा आवश्यक है कि नहीं ? स्त्रियां भी जीविकोपार्जन के कार्यों एवं राजकीय कार्यों में भाग ले सकती है ?
उत्तर-स्त्री को विद्याग्रहण करने का अधिकार है। स्त्री-शिक्षा आवश्यक है। पर वह शिक्षा मुक्तिमार्ग में आगे बढ़ने में सहायक हो, इस उद्देश्य से स्त्री को विद्याध्ययन करना चाहिए।
अपने निर्वाह के लिए स्त्री, डाक्टरी, अध्यापिका जैसे कार्य कर सकती है। पर उस अवस्था में भी उसे अपने पति के आश्रय में रहना चाहिए।
युद्ध का खतरा, कुविद्या का फल-
प्रश्न-आधुनिक विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप ऐसे शस्त्रास्त्र बन गये हैं, जिनके प्रयोग से सारी मानव जाति को नष्ट किया जा सकता है। साथ ही हिंसावृत्ति भी लोगों में बढ़ती जा रही है। ऐसी दशा में मानव जाति की रक्षा एवं सुधार वैâसे किया जा सकता है ?
उत्तर-यह सब कुविद्या है-चोर बुद्धि है। एक बम से अचानक हजारों लोगों के प्राण लेना कोई वीरता तो नहीं है, यह तो कायरता है। पहले भी हमारे राजा लोग युद्ध करते थे। पर उनमें कुछ नियमों का पालन किया जाता था। निश्चित समय पर, समान शक्ति के विपक्षियों के साथ आमने-सामने का युद्ध होता था। वह वीरों का ढंग था। आजकल की प्रणाली कायरों की प्रणाली है।
पंच-महापाप ही इस कुविद्या के मूल हैं अत: इन पांचों पापों का त्याग ही मानव जाति की रक्षा का एकमात्र मार्ग है। यदि कोई एक राष्ट्र इन पंच महापापों का त्याग कर दे, तो वह स्वयं इस कुविद्या के प्रपंच से बच जायेगा। इसके अलावा, संसार भर के बम भी उस पापहीन राष्ट्र को हानि नहीं पहुँचा सकते हैं।
कर्म सिद्धान्त-
प्रश्न-आपके मतानुसार कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या क्या है ? क्या, जीव स्वयत्न से कर्म से उन्मुक्त हो सकता है ?
उत्तर-हाँ, जीव स्वयत्न से कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है।
कर्म मन-वचन-काय योग से आते हैं। कषाय से कर्म बंध पड़ता है। कषाय २५ प्रकार की होती हैं। कर्मबंध होने पर, आत्मध्यान से कर्म-निर्जरा होती है।
विश्वधर्म-
प्रश्न-इस समय संसार में कई धर्म प्रचलित हैं। प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने ही धर्म को सर्वोच्च मानता है और विशुद्ध सत्य भी। इससे पारस्परिक भेद-भाव बढ़ता है, जो कलह का कारण बनता है। ऐसी दशा में एक ऐसे धर्म का प्रचार उचित नहीं होगा, जिसमें सभी धर्मों का सारतत्व विद्यमान हो और जो सर्वमान्य हो सके ?
उत्तर-संसार में छ: प्रधान धर्म और ३६३ उपधर्म प्रचलित हैं। यह बात सही है कि प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने ही धर्म को सर्वोच्च मानता है। ऐसी दशा में सर्व-मान्य धर्म का प्रचार करने का यही उपाय है कि प्रत्येक धर्म को सच्चाई की कसौटी पर रखकर उसी तरह परखा जाये, जैसे सुनार चोखे सोने व नकली सोने को परखता है। प्रश्न यह है कि इस तरह परखने की कसौटी क्या हो सकती है ?
वीतराग, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी, ये तीनों गुण जिसमें हो, वही भगवान है और उसी की वाणी सत्यवाणी है। ये तीनों गुण जिसमें हों, उसे चाहे अर्हन्त कहो चाहे शंकर, बुद्ध कहो चाहे विष्णु, वह पूज्य है, वन्दनीय है, वह भगवान है। इन गुणों की कसौटी पर जो भी धर्म खरा उतरे, वही सर्वमान्य विश्वधर्म हो सकता है। हमारे मतानुसार जैनधर्म ऐसा ही धर्म है।
क्या समाज में यतियों का प्रवास उचित है ?-
प्रश्न-क्या, यति को समाज से एकदम अलग हो जाना चाहिए ? यह संभव है और उचित है ?
उत्तर-यह आवश्यक नहीं कि यति बाह्य समाज को छोड़कर एकदम अलग हो जाये, समाज में श्रावकों के साथ रहना उसके लिए निषिद्ध नहीं। पर वह कहीं पर भी रहे, एकाकी नहीं रह सकता। कुछ अन्य साधुओं के साथ ही उसे रहना चाहिए। अन्यथा उसके ब्रह्मचर्य के नष्ट होने का खतरा रहता है।
इसी प्रकार साध्वियाँ (आर्यिकाएं) भी अकेली नहीं रह सकतीं। उनको दो-तीन या अधिक का दल बनाकर साथ-साथ रहना चाहिए। समाज से अलग रहने की साधु या साध्वी को कोई आवश्यकता नहीं है। श्रावकों में धर्म की प्रभावना बढ़ाना साधु का कर्तव्य होता है।
पापी पर उपदेश का प्रभाव-
प्रश्न-उपदेशों से किसी पापी या पतित को सुधारना संभव हो सकता है ?
उत्तर-उसका भाग्योदय हो तो सुधारा जा सकता है, अन्यथा नहीं। यह बात उपदेशक की कुशलता या वाक्चातुरी पर निर्भर नहीं, बल्कि सुनने वाले के भाग्योदय पर निर्भर है। पानी तो समान रूप से बरसता है, पर सीप में पड़कर जहाँ वह मोती बन जाता है, साँप के मुँह में जाकर वही विष बन जाता है। यह जल का दोष तो नहीं।
दूध निर्दोष है-
एक बार एक अन्य सम्प्रदाय के विद्वान् ने महाराज से पूछा था-‘‘आप चमड़े के पात्र का पानी नहीं लेते ? चमड़े के बर्तन का घी नहीं लेते, तब दूध को क्यों लेते हैं ? उसमें भी तो माँस का दूषण है।’’
महाराज ने कहा था-‘‘आप लोग अनेक नदियों के जल को अत्यन्त पवित्र मानते हैं, किन्तु यह तो सोचिये कि वह जल कहाँ तक शुद्ध है, जिसमें कि जलचर जीव मल-मूत्र त्यागते हैं और जिसमें उनकी मृत्यु भी होती है ? अनेक दोषों के होते हुए भी यदि जल शुद्ध है तो, दूध क्यों नहीं ? एक बात और है, दूध की थैली गाय के शरीर में अलग होती है। जब गाय घास खाती है, तब पहिले उसका रस भाग बनता है। इसके बाद खून बनता है, इसलिए दूध में कोई दोष नहीं है।’’
व्न्रत करो, अवश्य पलेगा!-
महाराज गृहस्थों से कहते थे-तुम्हारी भक्ति, पूजा, अर्चा आदि कार्य गज के स्नानतुल्य हैं। पूजा आदि सत्कार्यों के द्वारा तुमने निर्मलता प्राप्त की, यह तो स्नान हुआ। इसके पश्चात् तुमने अपने ऊपर फिर से मिट्टी डाल दी। ऐसा गृहस्थ का जीवन होता है। भविष्य का क्या भरोसा। यह जीव आगे दु:खी न हो, इससे प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा-थोड़ा व्रत-उपवास करना ही चाहिए। व्रत करने से शक्ति बढ़ती है, प्रमाद कम होता है। व्रतिक बनकर देव पर्याय नियम से मिलेगी और तब तुम विदेह क्षेत्र में जाकर भगवान सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि सुन सकोगे तथा नन्दीश्वर द्वीप में बावन चैत्यालयों के अकृत्रिम जिनबिम्बों के दर्शन कर पाओगे। नरकों में सागरों पर्यन्त जीव को अन्न-जल कुछ भी सुलभ नहीं होता है, तब थोड़े से उपवास व्रत करने से भय क्यों ? व्रत करो, अवश्य पलेगा। व्रत में त्रुटि आवे तो प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए। महाराज ने ३२ वर्ष की गृहस्थ अवस्था में ही श्री सम्मेदशिखर जी वंदना के प्रसादस्वरूप घी व तेल का जीवन पर्यन्त त्याग कर दिया था। बाद में उन्होंने नमक, शक्कर, छाछ, फलों का रस भी छोड़ दिया।
चिन्तामुक्त शांत मन-
एक बार पं. सुमेरचंद जी दिवाकर ने महाराज से पूछा, ‘‘महाराज! आप निरंतर शास्त्र स्वाध्याय आदि कार्य करते हैं। क्या इसका लक्ष्य मनरूपी बंदर को बांधकर रखना है ? जिससे वह चंचलता न दिखावें ?’’
महाराज बोले, ‘‘हमारा मन चंचल नहीं है।
लेकिन पूछा गया, ‘‘महाराज! मन की स्थिति वैâसे स्थिर रह सकती है ? वह तो चंचलता उत्पन्न करती है ? महाराज ने कहा, ‘‘हमारे पास चंचलता के कारण नहीं है। जिसके पास परिग्रह की उपाधि रहती है, उनको चिंता होती है। उनके मन में चंचलता होती है। हमारे मन में चंचलता नहीं है। हमारा मन चंचल होकर कहाँ जाएगा ? एक तोता जहाज के ध्वज के भाले पर बैठ गया, जहाज मध्य समुद्र में चला गया। उस समय वह उड़कर तोता बाहर जाना चाहे तो कहाँ जायेगा ? उसके पास ठहरने का स्थल भी तो चाहिए। इसीलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है। इसी प्रकार घर-परिवार का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर कहाँ जायेगा। अन्यत्र आश्रय न होने से अपने आप आत्मा की ओर आकर टिकता है। हम तो कहीं भी आत्मा का ध्यान कर सकते हैं क्योंकि बाहर विश्राम करने का स्थान ही नहीं है।
ईसवी सन् १९३३ का चातुर्मास आचार्य संघ का ब्यावर (राज.) में था।
महाराज जी का अपना दृष्टिकोण हर समस्या को सुलझाने के लिए मूल में व्यापक ही रहता था। योगायोग की घटना है इसी चौमासे में कारंजा गुरुकुल आदि संस्थाओं के संस्थापक और अधिकारी पूज्य ब्र. देवचंद जी दर्शनार्थ ब्यावर पहुँचे। पूज्य आचार्यश्री ने क्षुल्लक दीक्षा के लिए पुन: प्रेरणा की। ब्रह्मचारी जी का स्वयं विकल्प था ही। वे तो इसीलिए ब्यावर पहुँचे थे। साथ में और एक प्रशस्त विकल्प था कि ‘‘यदि संस्था-संचालन होते हुए क्षुल्लक प्रतिमा का दान आचार्यश्री देने को तैयार हों, तो हमारी लेने की तैयारी है।’’ इस प्रकार अपना हार्दिक आशय ब्रह्मचारी जी ने प्रगट किया। ५-६ दिन तक उपस्थित पंडितों में काफी बहस हुई। पंडितों का कहना था कि क्षुल्लक प्रतिमा के व्रतधारी संस्था संचालन नहीं कर सकते जबकि आचार्यश्री का कहना था कि पूर्व में मुनि संघ में ऐसे मुनि भी रहा करते थे जो जिम्मेवारी के साथ छात्रों का प्रबंध करते थे और ज्ञानदानादि देते थे। यह तो क्षुल्लक प्रतिमा के व्रत श्रावक के व्रत हैं। अंत में आचार्य महाराज जी ने शास्त्रों के आधार से अपना निर्णय सिद्ध किया। फलत: ब्र. श्री देवचंद जी ने क्षुल्लक पद के व्रतों को पूर्ण उत्साह के साथ स्वीकार किया। आचार्य श्री ने स्वयं अपनी आन्तरिक भावनाओं को प्रकट करते हुए दीक्षा के समय ‘‘समंतभद्र’’ इस भव्य नाम से क्षुल्लकजी को नामांकित किया और पूर्व के समंतभद्र आचार्य की तरह आपके द्वारा धर्म की व्यापक प्रभावना हो, इस प्रकार के शुभाशीर्वादों की वर्षा की। कहाँ तो बाल की खाल निकालकर छोटी-छोटी सी बातों को जटिल समस्या बनाने की प्रवृत्ति और कहाँ आचार्यश्री की प्रहरी के समान सजग दिव्य दूरदृष्टिता ?
वर्षों से एक प्रशस्त संकल्प चित्त में था। जैसे माँ के पेट में बच्चा हो, वह करुणा कोमल चित्त की उद्भट चेतना थी। महाराष्ट्र की जैन जनता प्राय: किस्तकार (किसान) है। धर्मविषयक अज्ञान की भी उनमें बहुलता है। आचार्यश्री का समाज के मानस का गहरा अध्ययन तो अनुभूति पर आधारित था ही। ‘शास्त्रज्ञान’ और ‘तत्त्वविचार’ की ओर इनका मुड़ना बहुत ही कठिन है। प्रथमानुयोगी जनमानस के लिए एक भगवान का दर्शन ही अच्छा निमित्त हो सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर किसी अच्छे स्थान पर विशालकाय श्री बाहुबली भगवान की विशालमूर्ति कम से कम २५ फीट की खड़ी कराने का प्रशस्त विकल्प जहाँ कहीं भी आचार्यश्री पहुँचते थे, प्रकट करते थे परन्तु सिलसिला बैठा नहीं। ‘भावावश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते’ होनहार होकर ही रहती है। योगायोग से इसी समय अतिशयक्षेत्र बाहुबली (कुंभोज) में वार्षिकोत्सव होने वाला था। ‘संभव है सत्य संकल्प की पूर्ति हो जाये’ इसी सदाशय से आचार्यश्री के चरण बाहुबली की ओर यकायक बढ़े। १८ मील का विहार वृद्धावस्था में पूरा करते हुए नांद्रे से महाराज श्री क्षेत्र पर संध्या में पहुँचे। पवित्र आनन्दोल्लास का वातावरण पैदा हुआ। संस्था के मंत्री श्री सेठ बालचंद देवचंद जी और मुनि श्री समंतभद्र जी से संबोधन करते हुए भरी सभा में आचार्यश्री का निम्न प्रकार समयोचित और समुचित वक्तव्य हुआ। जो आचार्यश्री की पारगामी दृष्टि-सम्पन्नता का पूरा सूचक था।
‘तुमची इच्छा येथे हजारो विद्यार्थ्यांनी राहावे शिकावे अशी पवित्र आहे हे मी ओळखतो, हा कल्पवृक्ष उभा करून जाते। भगवंताचे दिव्य अधिष्ठान सर्व घडवून आणील। मिळेल तितका मोठा पाषाण मिळवा व लवकर हे पूर्ण करा।मुनिश्री समंतभद्राकडे वळून म्हणाले, ‘तुुझी प्रकृति ओळखतो, हे तीर्थक्षेत्र आहे। मुनींनी विहार करावयास पाहिजे असा सर्वसामान्य नियम असला तरी विहार करूनही जे करावयाचे ते येथेच एके ठिकाणी राहून करणे। क्षेत्र आहे। एके ठिकाणी राहाण्यास काहीच हरकत नाही, विकल्प करू नको,काम लवकर पूर्ण करून घे। काम पूर्ण होईल! निश्चित होईल!! हा तुम्हा सर्वांना आशीर्वाद आहे।’
आपकी आंतरिक पवित्र इच्छा है कि यहाँ पर हजारों विद्यार्थी धर्माध्ययन करते रहें इसका मुझे परिचय है। यह कल्पवृक्ष खड़ा करके जा रहा हूँं। भगवान का दिव्य अधिष्ठान सब काम पूरा कराने में समर्थ है। यथासंभव बड़े पाषाण को प्राप्त कर इस कार्य को पूरा कर लीजिये।’’ मुनि श्री समंतभद्र जी की ओर दृष्टि कर संकेत किया-‘‘आपकी प्रकृति (स्वभाव) को बराबर जानता हूँ। यह तीर्थभूमि है। मुनियों को विहार करते रहना चाहिए, इस प्रकार सर्वसामान्य नियम है। फिर भी विहार करते हुए जिस प्रयोजन की पूर्ति करनी है, उसे एक स्थान में यहीं पर रहकर कर लो। यह तीर्थक्षेत्र है एक जगह पर रहने के लिए कोई बाधा नहीं है। विकल्प की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार से कार्य शीघ्र पूरा हो सके पूरा प्रयत्न करना। कार्य अवश्य ही पूरा होगा। सुनिश्चित पूरा होगा। आप सबको हमारा शुभाशीर्वाद है।’’
पूर्णिमा का शुभ मंगल दिन था। शुभ संकेत के रूप में पच्चीस हजार रुपयों की स्वीकृति भी तत्काल हुई। काम लाखों का था। यथाकाल सब कामपूर्ण हुआ। ‘‘पयसा कमलं कमलेन पय: पयसा कमलेन विभाति सर:।’’ पानी से कमल, कमल से पानी और दोनों से सरोवर की शोभा बढ़ती है। ठीक इस कहावत के अनुसार भगवान् की मूर्ति से संस्था का अध्यात्म वैभव बढ़ा ही है। अतिशय क्षेत्र की अतिशयता में अच्छी वृद्धि ही हुई। अब तो मूर्ति के प्रांगण में और सिद्धक्षेत्रों की प्रतिकृतियाँ बनने से यथार्थ में अतिशयता या विशेषता आयी है। महाराज का आशीर्वाद ऐसे फलित हुआ।
क्रांतिकारी नहीं, शास्त्र-पालक-
सुधारकों को प्रसन्न करने अथवा सनसनी फैलाने के लिए कुछ कह देना, पर उस पर स्वयं विश्वास या आचरण न करना, यही प्राय: आजकल के ‘महात्माओं’ में अक्सर देखा जाता है। पर आचार्यश्री की सर्वश्रेष्ठ विशेषता यह थी कि वह जो मन से सोचते थे वही वाणी से बोलते थे और जो कुछ कहते थे, उस पर पूर्णतया आचरण करते थे। मन-वचन-कर्म की यह एकरसता ही आचार्यश्री की महानता थी।
आचार्यश्री का यह दृढ़ विश्वास था कि जैनागमों में कथित आचार-नियमों का लोग यदि पूर्णत: पालन करें, तो संसार की सभी समस्याएं अपने आप हल हो जायेंगी और मानव मात्र सुखी रहेगा।
अतिमानवीय संकल्प शक्ति-
आचार्य शांतिसागर जी की अतिमानवीय संकल्प-शक्ति एवं इच्छाशक्ति पर प्रकाश डालने के लिए उनके अनन्यतम श्रावक शिष्य श्री तलकचंद शाह वकील ने उपरोक्त घटना का उल्लेख किया था। संकल्प की इसी दृढ़ता ने आचार्यश्री को तपस्या के शिखर पर पहुँचा दिया है और धर्म के दुरूह मर्मों को भी समझने-समझाने की अद्वितीय प्रतिभा उन्हें प्रदान की है।
आचार्य महाराज की इस संकल्प-शक्ति एवं शारीरिक बलिष्ठता पर प्रकाश डालने वाली कई और बातें उनमें आचार्यश्री की युवावस्था की दो घटनाएं उल्लेखनीय हैं।
सातगौंड़ा के पिता ने पहले उन्हें खेतीबाड़ी के काम में लगाया था। सातगौंडा बड़ा ही बलिष्ठ था। अटल ब्रह्मचर्य के कारण उसकी शारीरिक शक्ति अपने समवयस्कों से कहीं अधिक थी।
सातगौंड़ा के खेत की सिंचाई मोट द्वारा होती थी। चोड़े कुएँ से बैलों की सहायता से पानी खींच कर नालों के जरिये खेतों को सींचा जाता था।
एक दिन इस तरह पानी सींचते-सींचते सातगौंडा ने सोचा, ये बैल दोनों मिलकर पानी से भरे मोट को खींचते हैं। इसका मतलब यह है कि भरा हुआ मोट और बैल ये दोनों करीब-करीब समान शक्ति के हैं। अब यह देखना चाहिए कि मैं इन दोनों से अधिक शक्तिशाली हूँ या नहीं।
युवावस्था थी। शरीर में शक्ति थी और मन में साहस। जब भरे हुए मोट को बैल आधी दूर तक खींच चुके थे, तब सातगौंड़ा ने ठीक बीच में मोट की रस्सी व बैलों को बीच की तरफ खींचा। पूरी शक्ति से खींचने पर जहाँ एक तरफ मोट ऊपर आ गया, वहीं दूसरी ओर बैल भी पीछे की तरफ खिंचकर आ गये।
अब सातगौंड़ा को संतोष हुआ कि मैं बैलों व मोट की सम्मिलित शक्ति की समता कर सकता हूँ, बल्कि उनको मात कर सकता हूूँ।
यद्यपि महाराज का शरीर युवावस्था में अत्यन्त बलिष्ठ था, फिर भी उनकी मन:शक्ति ही के कारण यह अति मानुषिक कार्य सुलभ साध्य हो सका।
आचार्यश्री युवावस्था में कितने बलिष्ठ थे, इसका एक और उदाहरण भी कईयों के मुॅँह से सुना।
बालकपन से ही सातगौंड़ा का मन धार्मिक विषयों में सहज ही प्रवृत्त हो जाता था। उत्साह के तो वह मूर्त्तस्वरूप ही थे। उन दिनों वे प्रसिद्ध जैन तीर्थों की यात्रा पर अन्य आस्तिक जनों के साथ जाया करते थे। एक बार प्रसिद्ध जैन तीर्थ सम्मेदाचल की यात्रा पर वह गये थे। स्वयं तो उस कठिन शिखर पर अनायास चढ़कर दर्शन किये ही, बाद में ऐसे यात्रियों को भी, जो कमजोरी के कारण ऊपर चढ़ने में कष्ट अनुभव कर रहे थे, एक-एक करके अपनी पीठ पर चढ़ाकर ऊपर ले गये और दर्शन कराके वापिस लिवा लाये।
ऐसे शारीरिक बल की कल्पना तक करना हमें कठिन प्रतीत हो रहा है। पर आचार्य महाराज की कई साधनाएँ ऐसी हैं, जो साधारण मानवों की पहुँच के क्या, कल्पना के भी बाहर है।
ललितपुर का चातुर्मास एवं सिंहनिष्क्रीडित व्रत-
महाराज की साधनाओं का उल्लेख करते ही उनके ललितपुर में किये गये चातुर्मास का अद्भुत विवरण सामने आ जाता है। इसका विवरण अत्यंत रोमांचकारी है और साथ ही महाराज की अनुपम मानसिक दृढ़ता एवं तपश्चर्या का द्योतक है, जो इस प्रकार है।
दिगम्बर जैन मुनि प्रत्येक चातुर्मास के समय कोई न कोई विशेष व्रत धारण करते हैं और उसे निर्विघ्नतापूर्वक पूरा करते हैं। इस प्रथा के अनुसार आचार्यश्री के ललितपुर के चातुर्मास से पूर्व षट्रसत्याग का संकल्प किया था। इसका अर्थ यह था कि महाराज उस चातुर्मास भर में दूध, दही, घी, तेल आदि कोई भी रस से बने पदार्थ नहीं लेंगे।
सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत-
इस कठिन व्रत का संकल्प करने के बाद महाराज ने ‘‘सिंहनिष्क्रीड़ित’’ नामक व्रत का उल्लेख किसी ग्रंथ में पढ़ा। महाराज की प्रवृत्ति ऐसी है कि कोई कार्य जितना ही अधिक कठिन हो, उसे कर डालने की उनकी इच्छा भी उतनी ही प्रबल हुआ करती है। यह दम्भ अथव अभिमान के कारण नहीं, बल्कि आत्मपरीक्षा की भावना से। वे सदा अपने को तपस्या की परिक्षाओं में परखते रहते हैं। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने षट रस-त्याग के साथ-साथ सिंहनष्क्रीड़ित नाम के महाकठिन व्रत का भी पालन करने का संकल्प कर लिया।
सिंह निष्क्रीड़ित व्रत क्या है, यह जाने बिना इस बात का बोध नहीं हो सकता कि महाराज ने अपने को वैâसी कठोर तपस्याग्नि में तपाने का संकल्प किया था।
वनचरों के राजा सिंह की चाल विलक्षण ढंग की होती है। वह दो कदम आगे चलता है, फिर रुककर पीछे देखता है। फिर चार कदम आगे जाकर खड़ा हो जाता है और घूमकर देखता है। पीछे की ओर देखने की सिंह की इसी क्रिया को सिंहावलोकन कहा जाता है। सिंह की इस प्रकार की चाल सिंहनिष्क्रीड़ित कहलाती है।
सिंहनिष्क्रीड़ित व्रतधारी भी इसी प्रकार व्रती चाल चल सकता है। उसका क्रम कुछ इस प्रकार होता है, एक दिन उपवास, अगले दिन भोजन, तीसरे-चौथे दिन उपवास, पाँचवें दिन भोजन, छठे, सातवें, आठवें दिन उपवास, नवमें दिन पुन: भोजन। इस आरोहणक्रम से उपवासों की संख्या बढ़ती जाती है। जब नौ उपवास के बाद एक दिन भोजन किया जाता है, तब अवरोहण क्रम शुरू हो जाता है अर्थात् नौ उपवास, एक भोजन, आठ उपवास, एक भोजन, सात उपवास, एक भोजन, छह उपवास, एक भोजन इत्यादि। जब यह क्रम एक उपवास और एक भोजन तक पहुँच जाता है, तो पुन: आरोहण-क्रम शुरू हो जाता है। इस तरह चातुर्मास की समाप्ति तक आरोहण और अवरोहण क्रम को पूर्णतया निभाते हुए व्रत रखना सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत कहलाता है।
एक तो षट्रसत्याग। ऊपर से सिंहनिष्क्रीड़ित जैसा कठोर व्रत। साधारण समय में भी दिगम्बर जैन मुनि दिन भर में एक बार भोजन करते हैं और एक ही बार भोजन के समय जल पीते हैं। उपवास के समय तो जल भी नहीं पी सकते। ऐसी स्थिति में सिंहनिष्क्रीड़ित जैसा कठोर व्रत धारण करने के लिए मन में कितनी दृढ़ता होनी चाहिए, कितनी सम्पूर्ण विरक्ति की भावना चाहिए, इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं।
एक और परीक्षा-
महाराज इस अग्निपथ पर चल पड़े ही थे कि इतने में भाग्य ने उनके सामने और एक अतिकठोर परीक्षा लाकर खड़ी कर दी। एक दिन आहार के समय महाराज ने जो जल पिया था, उसमें न जाने क्या खराबी थी, महाराज के तपस्तप्त शरीर में मलेरिया जैसे असह्य रोग ने घर कर लिया।
महाराज उस समय करीब साठ वर्ष के थे। भारत जैसे देश में साठ वर्ष की आयु वृद्धावस्था ही होती है अत: महाराज के शिष्य एवं भक्तगण इससे पहले ही इस बात से चिंतित थे कि महाराज ने षट्रस-त्याग एवं सिंहनिष्क्रीड़ित जैसे दो कठोर व्रतों को एक साथ धारण कर रखा है, उनका वृद्ध शरीर इसको वैâसे सह सकता है ? ऊपर से जब मलेरिया ने भी आ घेरा, तो भक्तों की चिंता का वार रहा न पार।
कठोर व्रत एवं रोग के कारण महाराज का शरीर सूख कर लकड़ी हो गया। मांस नामक वस्तु नाम मात्र के लिए भी शरीर में रह नहीं गयी थी। चमड़े से उढ़ा हुआ हाड़ का पंजर ही शेष रह गया था। देखकर भक्तों के आँसू छलक आते थे।
यदि किसी एक व्यक्ति ने इन बातों की तनिक भी परवाह न की और प्रसन्न रहे, तो वह केवल आचार्यश्री स्वयं थे। उनकी दिनचर्या पूर्ववत् जारी रही। वह किसी भी अनुष्ठान में कोई भी कमी नहीं रहने देने थे। सब भक्तों ने मिलकर अश्रुमय विनती की कि महाराज इस समय षट्रस-त्याग अथवा सिंहनिष्क्रीड़ित किसी एक व्रत को त्याग दीजिए। आपकी वर्तमान दशा में कोई उसे अनुचित नहीं कह सकता। पर महाराज टस से मस न हुए। कहीं अचल भी हिला करते हैं ?
एक दिन सिंहनिष्क्रीड़ित के आरोहणक्रम में नौ दिन लगातार उपवास करने के बाद महाराज के भोजन करने की बारी आयी। महाराज का शरीर क्या था, केवल चमड़े से ढकी हुई ठठरी शेष रह गई थी। उसमें अब भी जान थी और वह चल फिर सकती थी, यही अविश्वसनीय आश्चर्य का विषय था।
श्रावकों को चिंता-
महाराज के आहार के लिए कितने ही चौके लगे हुए थे। नौ दिन के उपवास के बाद महाराज केवल एक दिन आहार ग्रहण कर रहे हैं। कहीं कोई भी अन्तराय हो गया, अनुष्ठान में जरा भी त्रुटि रह गई, तो वह भोजन नहीं करेंगे। उस दिन भी महाराज यदि निराहार रह गये, तो फिर सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत के कारण और आठ दिन उन्हें उपवास करना होता और इस तरह कुल अठारह दिनों का निरंतर उपवास हो जाता। उस रुग्ण अवस्था में उतना दीर्घ उपवास महाराज के वृद्ध शरीर से सहा वैâसे जायेगा ? इसीलिए सभी श्रावकों को इस बात की विशेष चिंता थी।
इन विचारों से श्रावकगण एकदम घबड़ाये हुए थे। एक बहुत बड़ा दायित्व उनके कंधों पर था अत: उनकी घबराहट स्वाभाविक थी।
अत्यंत शुद्ध स्वच्छ भोजन तैयार हो गया। आखिर महान परीक्षा की घड़ी आ गई। आचार्य महाराज ज्वर के वेग से कांपते हुए शरीर के साथ चलकर आये।
पं. जगन्मोहन दम्पती ने विधिवत् उनको आहारार्थ पड़गाहन किया, अर्घ्य-पाद्यादि दी और महाराज करपात्र में आहार ग्रहण करने को तैयार हो गये।
अब पं.जगन्मोहन के कंपकंपी सी लग गई। न उनसे कुछ करते बनता था, न उनकी पत्नी ही कुछ कर सकती थी। दोनों के शरीर थर-थर काँप रहे थे।
उधर महाराज ज्वर-दग्ध दुर्बल शरीर के साथ खड़े हैं।
भाग्यवश, फलटण वाले वकील तलकचंद जी वहाँ थे। वह पण्डितजी के घनिष्ठ मित्र थे और आचार्यश्री के अनन्य भक्त। उन्होंने झट पण्डितजी से कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हो ? आचार्यश्री कब तक खड़े रहेंगे ? जल्दी से कुछ खाद्य-पदार्थ लेकर उनके करपात्र में धरो, ताकि वह आहार प्रारंभ करें।’
वकील साहब की इस सामयिक चेतावनी ने दिव्यौषधि का काम किया। पं. जगन्मोहन जी और उनकी धर्मपत्नी जागरुक हो गये और आचार्यश्री को विधिवत् आहार कराना आरंभ किया।
एक महान् विपदा टल गई। आचार्यश्री की आहारविधि निर्विघ्न रूप से, बिना अन्तराय के समाप्त हुई। दिगम्बर जैन समाज की जान में जान आई।
इस तरह इस अत्यन्त कठिन परीक्षा में आचार्यश्री पूर्णत: सफल निकले और सभी व्रतों को नियमपूर्वक पूरा किया और साथ ही स्वस्थ भी हो उठे। ठीक उसी प्रकार जैसे सुवर्ण अग्नि में दीर्घकाल तक तपकर कुन्दन हो उठता है।
वह जन्मजात तपस्वी थे। मन-वचन-काय पर, पंचेन्द्रियों पर उन्हें सम्पूर्ण विजय प्राप्त थी अत: उनके लिए ये सब साधनाएँ अतीव सुलभ-साध्य थीं, यद्यपि हमारे जैसे साधारण मनुष्यों के निकट वे कल्पनातीत हैं।
जिनागम के प्रति मेरूसम श्रद्धा-
महाराज कहते थे कि जिनागम के अनुसार विचार बनाना चाहिए। अपनी धारणा के अनुसार आगम को नहीं बदलना चाहिए। उनकी आगम की श्रद्धा मेरु की तरह अविचलित थी। सागर के समान वही अथाह थी। आगम के विरुद्ध वे एक भी बात न कहते थे, न करते थे। उनका कहना था कि शास्त्र जलधि है, जीव मछली है, उसमें जीव जितना घूमे और अवगाहना करे उतना ही थोड़ा है। उनके आदेश के अनुसार जब धवला, जयधवला, महाबंध (महाधवल) सिद्धान्त ग्रंथ ताम्रपत्र में उत्कीर्ण हो गये तब महाराज ने शास्त्र भण्डार के व्यवस्थापकों से कहा था-ये शास्त्र हमारे प्राण हैं। हमारे प्राण इस शरीर में नहीं हैं, जिनेन्द्र भगवान की वाणी ही हमारा प्राण है।
अद्भुत स्वाध्याय प्रवृत्ति-
आचार्य महाराज प्रतिदिन कम से कम ४० या ५० पृष्ठों का स्वाध्याय करते थे। धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों का बहुत सुन्दर अभ्यास महाराज ने किया था। अपनी असाधारण स्मृति तथा तर्कणा के बल पर वे अनेक शंकाओं को उत्पन्न करके उनका सुन्दर समाधान करते थे।
आचार्यश्री के अलौकिक आत्मध्यान निमग्नता की अनेकों अनमोल घटनाएँ हैं। कोगनोली में महाराज एक निर्जन स्थान में बनी हुई गुफा में रात्रि के समय ध्यान में लीन थे। नगर का एक पागल महाराज के पास गुफा में गया। उसने महाराज के पास रोटी मांगी-ऐ बाबा, रोटी दो। भूख लगी है। बाबा के पास क्या था, वे तो मौन ध्यान कर रहे थे। बाबा को शांत देख पागल का दिमाग उत्तेचित हो गया। उसके हाथ में एक लकड़ी थी जिसके अग्रभाग में नोकदार लोहे का कीला लगा था, उससे बैलों को मारने का काम लिया जाता था। पागल इस लकड़ी से महाराज के शरीर को मारने लगा। लोहे की नोक पीठ, छाती आदि में चुभ गयी। सारा शरीर रक्त से सन गया। बहुत देर तक उपद्रव करने के बाद पागल वहाँ से चला गया। सबेरा होने पर लोगों ने देखा तो बहुत दु:खी हुए। भक्तों ने उनकी वैयावृत्ति की किन्तु महाराज चुपचाप थे।
एक समय गुफा में ध्यान में लवलीन महाराज की पुरुष इन्द्रिय पर एक मकोड़ा चिपट गया। वह मांस खाता था और रक्त की धारा बहती थी किन्तु महाराज का ध्यान स्थिर था। ध्यान हटने पर संघस्थ ब्र. बन्डू ने उस मकोड़े को अलग किया।
एक अवसर पर गुफा में रखे दीपक का कुछ तेल दैवयोग से बिखर गया और असंख्य चीटियाँ वहाँ आ गईं। महाराज के शरीर पर भी चीढ़ियाँ चढ़ गईं और काटती रहीं। प्रात:काल लोगों ने आकर यह उपसर्ग दूर किया। महाराज का यह नियम था कि प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को उपवास का नियम लेकर मौन रहकर वे आत्मा का ध्यान किया करते थे। वहाँ गिरि-कन्दराओं में अनेक बार व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु उनके पास आ जाया करते थे और कुछ समय पश्चात् उपद्रव किये बगैर चले जाते थे।
एक बार कोगनोली की गुफा में लगभग ८ फुट लम्बा विषधर सर्प उनके शरीर में दो घंटे पर्यन्त लिपटा रहा। वह सर्प भीषण होने के साथ अधिक वजनदार भी था। विहार करते हुए भी उनके मार्ग में अनेक हिंसक पशु आये और फिर महाराज के तप के प्रभाव से चले गये।
शिखरजी के रास्ते में १००-१५० बैलों का झुंड मिला। चार मस्त बैल भागकर महाराज की तरफ आये और उनके मुख को देखकर शांत होकर प्रणाम करके वहाँ से चले गये। महाराज कहते थे कि भय किसका किया जाये। जब तक कोई पूर्व का बैरी न हो तब तक वह नहीं सताता है। महाराज ने कहा था-‘‘हम बीच बाजार में भी बैठकर आत्मध्यान कर सकते हैं। आत्मचिंतन करते समय बाजार भला क्या करेगा ? भीतर शांति है तो बाह्य का हल्ला क्या करेगा ? जब मैं ध्यान करने बैठता हूँ, तब तुम चाकू से मेरी अंगुली आदि को काट करके देखो, उस समय मुझे पता नहीं चलेगा।’’