-शार्दूलविक्रीडित–
यद्यानन्दविधिं भवन्तममलं तत्त्वं मनोगाहते त्वत्रामस्मृतिलक्षणो यदि महामन्त्रोऽस्त्यनन्तप्रभ:।
यानं च त्रितयात्मके यदि भवेन्मार्गे भवद्दर्शिते को लोकेऽत्र सतामभीष्टविषये विघ्नो जिनेश प्रभो।।१।।
अर्थ —हे जिनेश! हे प्रभो! सज्जनों का मन अंतरंग तथा बहिरंग मल से रहित होकर तत्त्व स्वरूप तथा वास्तविक आनन्द के निधान आपको अवगाहन (आश्रयण) करता है और यदि उनके मन में आपके नाम का स्मरणरूप अनंत प्रभा का धारी महामंत्र मौजूद है तथा आपसे प्रकट किये हुए सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपी मोक्षमार्ग में यदि उनका गमन है तो उन सज्जनों को अभीष्ट की प्राप्ति में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आ सकता ।
भावार्थ — यदि सज्जनों के मन में आपका ध्यान होवे तथा आपका नाम स्मरणरूप महामंत्र मौजूद होवे और यदि वे मोक्षमार्ग में गमन करने वाले होवें तो उनके अभिलषित की प्राप्ति में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आ सकता।।१।।
निस्सङ्गत्वमरागिताथ १समता कर्मक्षयो बोधनं विश्वव्यापि समं दृशा तदुतलानन्देन वीर्येण च।
ईदृग्देव तवैव संसृतिपरित्यागाय जात: क्रम: शुद्धस्तेन सदा भवच्चरणयो: सेवा सतां सम्मता।।२।।
अर्थ —और भी आचार्य स्तुति करते हैं कि हे जिनेन्द्रदेव! संसार के त्याग के लिये परिग्रहरहितपना तथा रागरहित और समता तथा सर्वथा कर्मों का नाश और अनंतदर्शन-अनंतसुख और अनंतवीर्य के साथ समस्त लोकालोक को प्रकाश करने वाला केवलज्ञान, ऐसा क्रम आपके ही हुआ था किन्तु आपसे भिन्न किसी देव के यह क्रम नहीं था इसलिये आप ही शुद्ध हैं तथा आपके चरणों की सेवा ही सज्जन पुरुषों को करने योग्य है।
भावार्थ —आपने ही संसार से मुक्त होने के लिये हे भगवान्! समस्त परिग्रह का त्याग किया है, रागभाव को छोड़ा है और समता को धारण किया है तथा अनन्तविज्ञान-अनन्तवीर्य-अनन्तसुख और अनंतदर्शन आपके ही प्रकट हुवे हैं इसलिये आप ही शुद्ध तथा सज्जनों की सेवा के पात्र हैं।।२।।
यद्येतस्य दृढा स्थितिरभूत्त्वत्सेवया निश्चितं त्रैलोक्येश वलीयसोऽपि हि कुत: संसारशत्रोर्जयम्।
प्राप्तस्यामृतवर्षहर्षजनकं सद्यन्त्रधारागृहं पुन्स: किं कुरुते शुचौ खरतरो मध्यान्हकालातप:।।३।।
अर्थ —हे तीनलोक के ईश! यदि मेरे निश्चय से आपकी सेवा में दृढ़पना है तो मुझे अत्यंत बलवान भी संसाररूपी वैरी का जीतना कोई कठिन बात नहीं क्योंकि जिस मनुष्य ने जल के वर्षण से हर्ष को करने वाले उत्तम फव्वारा सहित घर को प्राप्त कर लिया है उस पुरुष का जेठ मास की अत्यंत तीक्ष्ण भी दुपहर की धूप कुछ भी नहीं कर सकती।
भावार्थ —जिस प्रकार फव्वारा सहित उत्तमघर में बैठे हुवे पुरुष का जेठमास की अत्यंत कठोर भी दुपहर की धूप कुछ नहीं कर सकती उसी प्रकार यदि मैं निश्चय से आप की सेवा में दृढ़ रीति से स्थित हूँ तो मुझे बलवान भी संसाररूपी वैरी कुछ भी त्रास नहीं दे सकता।।३।।
य: कश्चिन्निपुणो जगत्रयगतानर्थानशेषांश्चिरं सारासारविवेचनैकमनसा मीमांसते निस्तुषम्।
तस्य त्वं परमेक एव भगवन् सारो ह्यसारं परं सर्वं मे भवदाश्रितस्य महती तेनाभवन्निर्वृति:।।४।।
अर्थ —यह पदार्थ सार है और यह असार है इस प्रकार सार-असार की परीक्षा में एकचित्त होकर जो कोई बुद्धिमान मनुष्य तीनों लोक के समस्त पदार्थों को बाधारहित गहरी दृष्टि से विचार करता है उस पुरुष की दृष्टि में हे भगवन्! आप ही एक सारभूत पदार्थ हैं और आपसे भिन्न समस्त पदार्थ असारभूत ही हैं अत: आप के आश्रय से ही मुझे परम संतोष हुवा है।।४।।
ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं सौख्यं तथात्यन्तिकं वीर्यं न प्रभुता च निर्मलतरा रूपं स्वकीयं तव।
सम्यग्योगदृशा जिनेश्वर चिरात्तेनोपलब्धे त्वयि ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभि:।।५।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र! समस्त लोकालोक को एक साथ जानने वाला तो आपका ज्ञान है और समस्त लोकालोक को एक साथ देखने वाला आपका दर्शन है और आपके अनंतसुख और अनन्त बल हैं तथा प्रभूपना भी आपका अतिशयकर निर्मल है और शरीर भी आपका देदीप्यमान है इसलिये यदि योगीश्वरों ने समीचीन योगरूपी नेत्र से आपको प्राप्त कर लिया तो क्या उन्होंने जान न लिया ? और क्या उन्होंने देख न लिया ? तथा क्या उन्होंने पा न लिया ?
भावार्थ —यदि योगीश्वरों ने अपनी उत्कृष्ट योगदृष्टि से अत्यन्त गुणों के धारी आपको देख लिया तो उन्होंने सब कुछ देख लिया और सब कुछ जान लिया तथा सब कुछ प्राप्त कर लिया।।५।।
त्वामेकं त्रिजगत्पतिं परमहं मन्ये जिनं स्वामिनं त्वामेकं प्रणमामि चेतसि दधे सेवे स्तुवे सर्वदा।
त्वामेकं शरणं गतोऽस्मि बहुना प्रोक्तेन किञ्चिद्भवे सिद्धं तद्भवतु प्रयोजनमतो नान्येन मे केनचित्।।६।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र! आपको ही मैं तीन लोक का स्वामी मानता हूँ और आपको ही अष्टकर्मों का जीतने वाला तथा अपना स्वामी मानता हूँ और केवल आपको ही भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ और सदा आपका ही ध्यान करता हूं तथा आपकी ही सेवा में स्तुति करता हूँ और केवल आपको ही मैं अपना शरण मानता हूँ अधिक कहने से क्या? यदि कुछ संसार में प्राप्त होवे तो यही होवे कि आपके सिवाय अन्य किसी से भी मेरा प्रयोजन न रहे।
भावार्थ —हे भगवन् ! आपसे ही मेरा प्रयोजन रहे, आपसे भिन्न अन्य से मेरा किसी प्रकार का प्रयोजन न रहे, यह विनय- पूर्वक प्रार्थना है।।६।।
पापं कारितवान्यदत्र कृतवानन्यै: कृतं साध्विति भ्रान्त्याहं प्रतिपन्नवांश्च मनसा वाचा च कायेन च।
काले सम्प्रति यच्च भाविनि नवस्थानोद्गतं यत्पुनस्तन्मिथ्याखिलमस्तु मे जिनपते स्वं निन्दतस्ते पुर:।।७।।
अर्थ —हे जिनेश्वर! भूतकाल में जो पाप मैंने भ्रम से मन-वचन-काय के द्वारा दूसरों से कराये हैं तथा स्वयं किये हैं और दूसरों को पाप करते हुवे अच्छा कहा है तथा उसमें अपनी सम्मति दी है और वर्तमान में जो पाप मैं मन-वचन-काय के द्वारा दूसरों से कराता हूँ तथा स्वयं करता हूँ और अन्य को करते हुवे भला कहता हूँ और भविष्यत् काल में जो मैं मन-वचन-काय से पाप कराऊँगा तथा स्वयं करूँगा और दूसरे को करते हुवे अच्छा मानूँगा वे समस्त पाप आपके सामने अपनी निन्दा करने वाले मेरे सर्वथा मिथ्या हों।
भावार्थ — भूत-भविष्यत्-वर्तमान तीनों कालों में जिन पापों का मैंने मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से उपार्जन किया है तथा करुँगा और करता हूँ उन समस्त पापों का अनुभव कर हे जिनेश्वर! मैं आपके सामने अपनी निन्दा करता हूँ इसलिये वे समस्त पाप मेरे मिथ्या हों।
लोकालोकमनन्तपर्यययुतं कालत्रयीगोचरं त्वं जानासि जिनेन्द्र पश्यसि तरां शश्वत्समं सर्वत:।
स्वामिन् वेत्सि ममैकजन्मजनितं दोषं न किञ्चित्कुतो हेतोस्ते पुरत: सवाच्य इति मे शुद्ध्यर्थमालोचितम्।।८।।
अर्थ — हे जिनेन्द्र! यदि तुम भूत-भविष्यत्-वर्तमान तीनोंकालों के गोचर नाना पर्यायों सहित लोक तथा अलोक को चारों ओर से एक साथ जानते हो तथा देखते हो तो हे स्वामिन्! मेरे एक जन्म में होने वाले पापों को क्या तुम नहीं जानते हो? अर्थात् अवश्य ही जानते हो इसलिये अपने को स्वयं निंदता हुवा जो मैं आपके सामने अपने दोषों का कथन (आलोचन) करता हूँ सो केवल शुद्धि के लिये ही करता हूँ।
भावार्थ — हे भगवन् ! जब आप अनंत भेदसहित लोक तथा अलोक को एक साथ जानते हो तथा देखते हो, तो मेरे समस्त दोषों को भी भलीभांति जानते हो फिर भरी जो मैं आपके सामने अपने दोषों का कथन (आलोचन) करता हूँ सो केवल आपके सुनाने के लिये नहीं किन्तु शुद्धि के लिये ही करता हूँ।।८।।
आश्रित्य व्यवहारमार्गमथवा मूलोत्तराख्यान् गुणान् साधोर्धारयतो मम स्मृतिपथप्रस्थायि यद्दूषणम्।
शुद्ध्यर्थं तदपि प्रभो तव पुर: सज्जोऽहमालोचितुं नि:शल्यं हृदयं विधेयमजडैर्भव्यैर्यत: सर्वथा।।९।।
अर्थ — व्यवहारनय को आश्रयण करके और मूलगुण तथा उत्तर गुणों को धारण करने वाले मुझ मुनि को जिस दूषण का भलीभांति स्मरण है, उस दूषण की शुद्धि के अर्थ आलोचना करने के लिये हे प्रभो जिनेन्द्र! मैं आपके सामने सावधानी से बैठा हुवा हूँ क्योंकि ज्ञानवान भव्यजीवों को सदा अपना मन माया-मिथ्या-निदान इन तीनों शल्यों से रहित ही रखना चाहिये।।९।।
सर्वोप्यत्र मुहुर्मुहुर्जिनपते लोवैâरसङ्ख्यैर्मितव्यक्ताव्यक्तविकल्पजालकलित: प्राणी भवेत्संसृतौ।
तत्तावद्भिरयं सदैव निचितो दोषैर्विकल्पानुगै: प्रायश्चित्तमियत्कुत: श्रुतगतं शुद्धिर्भवत्सन्निधे।।१०।।
अर्थ —हे भगवन् ! इस संसार में समस्तजीव बारम्बार असंख्यात लोक प्रमाण प्रकट तथा अप्रकट नाना प्रकार के विकल्पों कर सहित हैं और जितने विकल्पों कर सहित ये जीव हैं उतने ही नाना प्रकार के दु:खों कर सहित भी हैं किन्तु जितने विकल्प हैं उतने प्रायश्चित शास्त्र में नहीं हैं इसलिये उन समस्त असंख्यातलोकप्रमाण विकल्पों की शुद्धि आपके पास में ही होती है।
भावार्थ —यद्यपि दूषणों की शुद्धि प्रायश्चित्त के करने से भी होती है किन्तु हे भगवन्! जितने दूषण हैं उतने प्रायश्चित्त शास्त्र में नहीं कहे गये हैं इसलिये समस्त दूषणों की शुद्धि आपके समीप में ही होती है।।१०।।
भावान्त: करणेन्द्रियाणि विधिवत्संहृत्य बाह्याश्रयादेकीकृत्य पुनस्त्वया सह शुचिज्ञानैकसन्मूर्तिना।
नि:सङ्ग: श्रुतसारसंगतमति: शान्तो रह: प्राप्तवान् यस्त्वां देव समीक्षते स लभते धन्यो भवत्सन्निधिम्।।११।।
अर्थ —हे भगवन् ! समस्त प्रकार के परिग्रहों से रहित और समस्तशास्त्रों का जानने वाला तथा क्रोधादिकषायों से रहित और एकान्तवासी जो भव्यजीव समस्त बाह्यपदार्थों से मन तथा इन्द्रियों को हटाकर तथा अखंड और निर्मल सम्यग्ज्ञानरूपी मूर्ति के धारी आपमें स्थिर कर आपको देखता है, वह मनुष्य आपकी समीपता को प्राप्त होता है।
भावार्थ —जब तक मन तथा इन्द्रिय का व्यापार बाह्य पदार्थों में लगा रहता है, तब तक कोई भी मनुष्य आप के स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता किन्तु जो मनुष्य मन तथा इन्द्रियों को बाह्य पदार्थ से हटा लेता है वही वास्तविक रीति से शास्त्रों का भलीभांति ज्ञानी होकर और शान्त तथा एकान्तवासी होकर मन तथा इन्द्रियों को बाह्य पदार्थों से हटाकर तथा आपके स्वरूप में लगाकर आपको देख लिया है उसी मनुष्य ने आपके समीपपने को प्राप्त किया है ऐसा भलीभांति निश्चित है।।११।।
त्वामासाद्य पुराकृतेन महता पुण्येन पूज्यं प्रभुं ब्रह्माद्यैरपि यत्पदं न सुलभं तल्लभ्यते निश्चितम्।
अर्हन्नाथ परं करोमि किमहं चेतो भवत्सन्निधावद्यापि ध्रियमाणमप्यतितरामेतद्बहिर्धावति।।१२।।
अर्थ —पूर्व भव में संचय किये हुवे बड़े भारी पुण्य से जिस मनुष्य ने हे भगवन् ! तीन लोक के पूजनीक आपको पा लिया है उस मनुष्य को उस उत्तम पद की प्राप्ति होती है जिसको निश्चय से ब्रह्मा-विष्णु आदि भी नहीं पा सकते परन्तु हे अर्हज्जिनेन्द्र! तथा हे नाथ! मैं क्या करूँ? आपके समीप में लगाया हुवा भी मेरा चित्त प्रबल रीति से बाह्म पदार्थों की ओर ही दौड़ता है।
भावार्थ —सहसा यदि कोई मनुष्य चाहे कि मैं आपको प्राप्त कर लूँ वह स्वप्न में भी नहीं कर सकता किन्तु पूर्व में संचय किये हुवे बड़े भारी पुण्य से ही आपकी प्राप्ति होती है इसलिये हे भगवन् ! जिस मनुष्य ने आपको प्राप्त कर लिया है उस मनुष्य को उस उत्तम पद की प्राप्ति होती है जिस पद को ब्रह्मा-विष्णु आदि के भक्तों की तो क्या बात? स्वयं ब्रह्मा-विष्णु भी प्राप्त नहीं कर सकते किन्तु हे जिनेन्द्र ! इन समस्त बातों को जानता हुवा भी मेरा चित्त आपके समीप में लगाया हुवा भी बाह्य पदार्थों मेंं दौड़–दौड़ कर जाता है, यह बड़ा खेद है।।१२।।
संसारो बहुदु:खत: सुखपदं निर्वाणमेतत्कृते त्यक्त्वार्थादि तपोवनं वयमितास्तत्रोज्झित: संशय:।
एतस्मादपि दुष्करव्रतविधेर्नाद्यापि सिद्धिर्यतो वाताली तरलीकृतं दलमिव भ्राम्यत्यदो मानसम्।।१३।।
अर्थ —हे जिनेश! यह संसार तो नाना प्रकार के दु:खों को देने वाला है और वास्तविक सुख का स्थान है अथवा वास्तविक सुख का देने वाला मोक्ष है इसलिये उसी मोक्ष की प्राप्ति के लिये हमने समस्त धन-धान्य आदि परिग्रहों का त्याग किया और हम तपोवन को भी प्राप्त हुवे तथा हमने समस्त प्रकार का संशय भी छोड़ दिया तथा अत्यंत व्रत भी धारण किये किन्तु अभी तक उन कठिन व्रतों के धारण करने से भी सिद्धि की प्राप्ति नहीं हुई क्योंकि पवन के समूह के कंपाये हुवे पत्ते के समान यह हमारा मन रात-दिन बाह्य पदार्थों में भ्रमण करता रहता है।।१३।।
झम्पा: कुर्वदितस्तत: परिलसद्बाह्यार्थलाभाद्ददन्नित्यं व्याकुलतां परां गतवत: कार्यं विनाप्यात्मन:।
ग्रामं वासयदैन्द्रियं भवकृतो दूरं सुहृत्कर्मण: क्षेमं तावदिहास्ति कुत्र शमिनो यावन्मनो जीवति।।१४।।
अर्थ —हे भगवन् ! जो मन बाह्म पदार्थों को मनोहर मानकर उनकी प्राप्ति के लिये जहाँ-तहाँ भटकता है और जो ज्ञान- स्वरूप भी आत्मा को बिना प्रयोजन सदा अत्यंत व्याकुल करता रहता है तथा जो इन्द्रियरूपी गाँव को बसाने वाला है अर्थात् इस मन की कृपा से ही इन्द्रियों की विषयों में स्थिति होती है और जो संसार के पैदा करने वाले कर्मों का परममित्र है अर्थात् आत्मारूपी घर में सदा कर्मों को लाता रहता है ऐसा मन जब तक जीवित रहता है तब तक मुनियों को कदापि कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती।
भावार्थ —जब तक आत्मा में कर्मों का आवागमन लगा रहता है तब तक आत्मा सदा व्याकुल ही बना रहता है वे कर्म आत्मा में मन के द्वारा लाये जाते हैं क्योंकि मन के सहारे से ही इन्द्रियाँ रूप आदि के देखने में प्रवृत्त होती हैं तथा रूप आदि के देखने से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं फिर उनसे ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों की उत्पत्ति होती है इसलिये उन कर्मों के संबंध से आत्मा सदा व्याकुल ही रहता है और जब आत्मा ही व्याकुल रहा, तब मुनियों को कल्याण की प्राप्ति भी वैâसे हो सकती है इसलिये कल्याण का रोकने वाला मन ही है।।१४।।
नूनं मृत्युमुपैति यातममलं त्वां शुद्धबोधात्मकं त्वत्तस्तेन बहिर्भ्रमत्यविरतं चेतो विकल्पाकुलम्।
स्वामिन् किं क्रियतेऽत्र मोहवशतो मृत्योर्न भी: कस्य तत् सर्वानर्थपरंपराकृदहितो मोह: स मे वार्यताम्।।१५।।
अर्थ —निर्मल तथा अखंडज्ञानस्वरूप आपको पाकर मेरा मन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है इसलिये हे जिनेन्द्र! नाना प्रकार के विकल्पों कर युक्त मेरा चित्त आपसे बाह्य समस्त पदार्थों में ही निरन्तर घूमता फिरता है क्या किया जाय ? क्योंकि मृत्यु से सर्व ही डरते हैं अत: यह सविनय प्रार्थना है कि समस्त प्रकार के अनर्थों के करने वाला तथा अहितकारी इस मेरे मोह को नष्ट करो।
भावार्थ —जब तक मोह का संबंध आत्मा के साथ रहेगा, तब तक चित्त मेरा-तेरा करने से बाह्य पदार्थों में घूमता ही रहेगा और जब तक चित्त घूमता रहेगा, तब तक सदा आत्मा में कर्मों का आवागमन भी लगा ही रहेगा तथा इस रीति से आत्मा सदा व्याकुल ही रहेगा इसलिये हे भगवन् ! इस सर्वथा नाना प्रकार के अनर्थों के करने वाले मेरे मोह को नष्ट करो, जिससे मेरी आत्मा को शान्ति मिले।।१५।।
मोह ही समस्त कर्मों में बलवान है, इस बात को आचार्य दिखाते हैं-
सर्वेषामपि कर्मणामतितरां मोहो वलीयानसौ धत्ते चञ्चलतां विभेति च मृतेस्तस्य प्रभावान्मन:।
नो चेज्जीवति को म्रियेत क इह द्रव्यत्वत: सर्वदा नानात्वं जगतो जिनेन्द्र भवता दृष्टं परं पर्य्ययै:।।१६।।
अर्थ —ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों के मध्य में मोह ही अत्यंत बलवान कर्म है और इसी मोह के प्रभाव से यह मन जहाँ-तहाँ चंचल होकर भ्रमण करता है और मरण से डरता है यदि यह मोह न होवे तो निश्चयनय से न तो कोई जीवे और न कोई मरे क्योंकि आपने जो इस जगत को अनेक प्रकार देखा है, यह पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ही देखा है, द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नहीं, इसलिये हे भगवन् ! इस मेरे मोह को ही सर्वथा नष्ट कीजिये।।१६।।
-शार्दूलविक्रीडित-
वातव्याप्तसमुद्रवारिलहरीसंघातवत्सर्वदा सर्वत्रक्षणभङ्गुरं जगदिदं संचित्य चेतो मम।
सम्प्रत्येतदशेषजन्मजनकव्यापारपारस्थितं स्थातुं वाञ्छति निर्विकारपरमानन्दे त्वयि ब्रह्मणि।।१७।।
अर्थ —पवन कर व्याप्त ऐसा जो समुद्र, उसकी जो जललहरी, उनके समूह के समान सर्वकाल तथा सर्वक्षेत्रों में यह जगत क्षणभर में विनाशीक है ऐसा भलीभांति विचार कर यह मेरा मन इस समय हे जिनेन्द्र ! समस्त संसार के उत्पन्न करने वाले जो व्यापार, उनसे रहित होकर निर्विकार परमानन्दस्वरूप परब्रह्म जो आप हैं, सो आप में ही ठहरने की इच्छा करता है।।१७।।
एन: स्यादशुभोपयोगत इत: प्राप्नोति दु:खं जनो धर्म: स्याच्च शुभोपयोगत इत: सौख्यं किमप्याश्रयेत्।
द्वन्द्वं द्वन्द्वमिदं भवाश्रयतया शुद्धोपयोगात्पुन: नित्यानन्दपदं तदत्र च भवानर्हन्नहं तत्र च।।१८।।
अर्थ —जिस समय अशुभ उपयोग रहता है उस समय तो पाप की उत्पत्ति होती है तथा उस पाप से जीव नाना प्रकार के दु:खों को प्राप्त होते हैं और जिस समय शुभ उपयोग रहता है उस समय धर्म (पुण्य) की उत्पत्ति होती है तथा धर्म से जीवों को सुख मिलता है और ये दोनों पाप-पुण्यरूपी द्वन्द्व संसार के ही कारण हैं अर्थात् इन दोनों से सदा संसार ही उत्पन्न होता रहता है किन्तु शुद्धोपयोग से अविनाशी तथा आनन्दस्वरूप की प्राप्ति होती है और हे जिनेन्द्र! आप तो उस पद में निवास करते हैं तथा मैं शुद्धोपयोग रूपी पद में निवास करता हूँ।
भावार्थ —उपयोग के तीन भेद हैं-पहला अशुभोपयोग, दूसरा शुभोपयोग, तीसरा शुद्धोपयोग, उनमें आदि के जो दो उपयोग हैं उनसे तो संसार में ही भटकना पड़ता है क्योंकि जिस समय जीवों का उपयोग अशुभ होगा, उस समय उनको पाप का बंध होगा तथा पाप के बंध होने से उनको नाना प्रकार की खोटी—खोटी गतियों में भ्रमण करना पड़ेगा और जिस समय उपयोग शुभ होगा उस समय उस शुभयोग की कृपा से उनको राजा-महाराजा आदि पदों की प्राप्ति होगी इसलिये वह भी संसार का ही बढ़ाने वाला है किन्तु जिस समय उस शुभोपयोग की प्राप्ति होगी, उस समय संसार की प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु निर्वाण की प्राप्ति ही होगी इसलिये हे भगवन्! मैं शुद्धोपयोग में ही स्थित रहना चाहता हूँ।।१८।।
यन्नान्तर्न बहि: स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान्नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम्।
कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणनाव्यवहारवर्णोज्झितं स्वच्छं ज्ञानदृगेकमूर्तितदहं ज्योति: परं नापरम्।।१९।।
अर्थ —जो आत्मस्वरूप तेज न तो भीतर स्थित है और न बाहिर स्थित है तथा न दिशा में ही स्थित है और न मोटा है, न महीन है तथा आत्मारूपी तेज न तो पुल्लिंग है और न स्त्रीलिंग है तथा नपुंसकलिंग भी नहीं है और न भारी है और न हलका है तथा जो तेज कर्म , स्पर्श , शरीर, गंध, संख्या, वचन वर्ण से रहित है और जो निर्मल है तथा सम्यग्ज्ञान- सम्यक्दर्शनस्वरूप है मूर्ति जिसकी, ऐसी ही उसी उत्कृष्ट तेजस्वरूप मैं हूँ किन्तु आत्मस्वरूप उत्कृष्ट तेज से भिन्न नहीं है।।१९।।
-शार्दूलविक्रीडित-
एतेनैव चिदुन्नतिक्षयकृता कार्यं विना वैरिणा शश्वत्कर्मखलेन तिष्ठति कृतं नाथावयोरन्तरम्।
एषोऽहं स च ते पुर: परिगतो दुष्टोऽत्र निस्सार्यतां सद्रक्षेतरनिग्रहो न यवतो धर्म: प्रभोरीदृश:।।२०।।
अर्थ —हे भगवन् ! चैतन्य की उन्नति को नाश करने वाले और बिना कारण ही सदा वैरी इस दुष्ट कर्म ने आप में तथा मुझमें भेद डाल दिया है किन्तु कर्मशून्य अवस्था में जैसी आपकी आत्मा है, वैसी ही मेरी आत्मा है तथा इस समय यह कर्म आपके सामने मौजूद है इसलिये इस दुष्ट को हटाकर दूर करो क्योंकि नीतिवान् प्रभुओं का यही धर्म है कि वे सज्जनों की रक्षा करें तथा दुष्टों का नाश करें।
भावार्थ —हे भगवन् ! जिस प्रकार अनन्तविज्ञान-अनन्तवीर्य-अनन्तसुख तथा अनन्तदर्शन आदि गुणस्वरूप आपकी आत्मा है उसी प्रकार उन्हीं गुणोंकर सहित मेरी भी आत्मा है किन्तु भेद इतना ही है कि आपके तो वे गुण प्रकट हो गये हैं और मेरे उन गुणों की प्रकटता नहीं हुई है उस भेद का करने वाला यह कर्म ही है क्योंकि कर्मों की कृपा से ही उस मेरे स्वभाव पर आवरण पड़ा हुआ है तथा इस समय हम दोनों आपके सामने मौजूद हैं इसलिये इस दुष्ट को दूर करो क्योंकि आप तीनों लोकों के स्वामी हैं और नीतिवान् स्वामी का यह धर्म है कि वह सज्जनों की रक्षा करें तथा दुष्टों का नाश करें।।२०।।
आधिव्याधिजरामृतप्रभृतय: संबन्धिनो वर्गणस्तद्भिन्नस्य ममात्मनो भगवत: किं कर्तुुमीशा जड़ा:।
नानाकारविकारकारिण इमे साक्षान्नभोमण्डले तिष्ठन्तोऽपि न कुर्वते जलमुचस्तत्र स्वरूपान्तरम्।।२१।।
अर्थ —हे भगवन् ! नाना प्रकार के आकार तथा विकारों को करने वाले मेघ आकाश में रहते हुए भी जिस प्रकार आकाश के स्वरूप का कुछ भी हेरफेर नहीं करते उसी प्रकार आधि, व्याधि, जरा, मरण आदि भी मेरा कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ये समस्त शरीर के विकार जड़ हैं तथा मेरी आत्मा ज्ञानवान् और शरीर से भिन्न है।
भावार्थ — जिस प्रकार आकाश अमूर्त्तीक है इसलिये रंगबिरंगे भी मेघ उसके ऊपर कुछ भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते तथा उसके स्वरूप का परिवर्तन भी नहीं कर सकते उसी प्रकार आत्मा ज्ञान-दर्शनमय अमूर्तिक पदार्थ है इसलिये इस पर भी आधि, व्याधि , जरा, मरण आदि कुछ भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते क्योंकि ये मूर्तीक शरीर के धर्म हैं और आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है।।२१।।
संसारातपदह्यमानवपुषा दु:ख मया स्थीयते नित्यं नाथ यथा स्थलस्थितिमता मत्स्येन ताम्यन्मन:।
कारुण्यामृतसंगशीतलतरे त्वत्पादपज्र्ेरुहे यावद्देव समर्पयामि हृदयं तावत्परं सौख्यवान्।।२२।।
अर्थ — हे भगवन् ! जिस प्रकार जल से बाहिर स्थल में बिना पानी के मछली तड़फड़ाती है उसी प्रकार संसाररूपी संताप से जिसका शरीर जल रहा है ऐसा मैं सदा दु:खित ही रहता हूं किन्तु जब तक करुणारूपी जल के संग से जो अत्यंत शीतल हैं ऐसे आपके चरण कमलों में मैं अपने मन को लगाता हूँ तब तक मैं अत्यंत सुखी रहता हूँ।
भावार्थ — जिस प्रकार स्थल में पड़ी हुई मछली दु:खित रहती है उसी प्रकार इस नाना प्रकार के दु:खों से भरे हुवे संसार में मैं भी सदा संतप्त रहता हूँ तथा जिस प्रकार वही मछली जब तक जल के भीतर रहती है, तब तक सुखी रहती है उसी प्रकार जब तक मेरा मन करुणामयी रस से अत्यंत शीतल आपके चरण कमलों में प्रविष्ट रहता है तब तक मैं भी सुखी रहता हूँ इसलिये हे भगवन्! आपके चरण कमलों को छोड़कर मेरा मन दूसरी जगह न प्रवेश करें जिससे मैं दु:खी रहूँ, यही प्रार्थना है।।२२।।
साक्षग्राममिदं मनो भवति यद्बाह्यार्थसंबन्धभाक् तत्कर्म प्रविजृम्भते पृथगहं तस्मात्सदा सर्वथा।
चैतन्यात्तव तत्तथेति यदि वा तत्रापि तत्कारणं शुद्धात्मन्मम निश्चयात्पुनरिव त्वय्येव देव स्थिति:।।२३।।
अर्थ — हे भगवन्! इन्द्रियों के समूहकर सहित जो मेरा मन बाह्य पदार्थों से संबंध करता है उसी से नाना प्रकार के कर्म मेरी आत्मा के साथ आकर बंधते हैं किन्तु वास्तविकरीति से मैं उन कर्मों से सर्वकाल में सर्वक्षेत्र में जुदा ही हूँ तथा आपके भी चैतन्य से भी सर्वथा वे कर्म जुदे ही हैं अथवा उस चैतन्य से कर्मों के भेद करने में आप ही कारण हैं इसलिये हे शुद्धात्मन्! हे जिनेन्द्र! निश्चय से मेरी स्थिति आप ही में हैं।
भावार्थ — यदि निश्चयनय से देखा जावे तो हे जिनेन्द्र! आप तथा मैं समान ही हूँ क्योंकि निश्चयनय से आपकी आत्मा भी कर्मबंधकर रहित है तथा मेरी आत्मा के साथ भी किसी प्रकार के कर्मों का बंधन नहीं रहता है इसलिये हे भगवन्! मेरी स्थिति निश्चय से आपके स्वरूप में ही है।।२३।।
किं लोकेन किमाश्रयेण किमुत द्रव्येण कायेन किं किं वाग्भि: किमुतेन्द्रियै: किमसुभि: किं तैर्विकल्पैरपि।
सर्वे पुद्गलपर्यया बत परे त्वत्त: प्रमत्तो भवन्नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यतितरामालेन किं बन्धनम्।।२४।।
अर्थ — हे आत्मन्! न तो तुझे लोक से काम है और न दूसरे के आश्रय से काम है तथा न तुझे द्रव्य से प्रयोजन है और न शरीर से प्रयोजन है तथा तुझे वचन और इन्द्रियों से भी कुछ काम नहीं और प्राणों से भी प्रयोजन नहीं तथा नाना प्रकार के विकल्पों से भी कुछ काम नहीं क्योंकि ये समस्त पुद्गलद्रव्य की ही पर्याएँ हैं और तेरे से भिन्न हैं तो भी बड़े खेद की बात है कि तू इनको अपना मानकर आश्रय करता है सो क्या तू दृढ़ बंधन को प्राप्त नहीं होगा ? अवश्य ही होगा।
भावार्थ — हे आत्मन् ! तू तो निर्विकार चैतन्यस्वरूपी है और समस्त लोक तथा शरीर, इन्द्रिय, द्रव्य, वचन आदि समस्त पदार्थ पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं और तुझसे सर्वथा भिन्न हैं ऐसा होने पर भी यदि तू इनको अपने समझकर आश्रय करेगा तो तू अवश्य ही बंधन को प्राप्त होगा इसलिये इन समस्त परपदार्थों से ममता को छोड़कर शुद्धानंदचैतन्य स्वरूप आत्मा का ध्यानकर, जिससे तू कर्मों से न बँधे।।२४।।
धर्माधर्मनभांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठfिन्त गत्यादिषु।
एक: पुद्गल एव सन्निधिगतो नोकर्मकर्माकृतिर्वैरी बन्धकृदेष सम्प्रति मया भेदासिना खण्डित:।।२५।।
अर्थ — धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, कालद्रव्य ये चारों द्रव्य मेरे किसी प्रकार के अहित को नहीं करते हैं किंतु ये चारों द्रव्य गति, स्थिति आदि कामों में सहकारी हैं इसलिये ये मेरे सहायी होकर ही रहते हैं परन्तु नौकर्म (तीन शरीर, छै पर्याप्ति) तथा कर्म हैं स्वरूप जिसका, ऐसा तथा समीप में रहने वाला और बंध का करने वाला एक पुद्गल ही मेरा बैरी है इसलिये उसी को इस समय मैंने भेदरूपी तलवार से खंड-खंड उड़ा दिये हैं।
भावार्थ — मुझसे धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गल ये पाँच द्रव्य भिन्न हैं उनमें से धर्म, अधर्म आकाश, काल ये चार द्रव्य तो मेरा किसी प्रकार अहित नहीं करते किंतु मेरी सहायता ही करते हैं अर्थात् धर्मद्रव्य तो मेरे गमन में सहकारी है तथा अधर्मद्रव्य ठहरने में सहकारी है और आकाश द्रव्य मुझे अवकाशदान देता है इसलिये अवकाशदान को देने में वह भी मुझे सहकारी है और कालद्रव्य से परिवर्तन होता है इसलिये परिवर्तन करने में वह भी सहकारी है परन्तु एक पुद्गलद्रव्य ही मेरे बड़े भारी अहित का करने वाला है क्योंकि नौकर्म तथा कर्मस्वरूप में परिणत होकर पुद्गलद्रव्य मेरे आत्मा के साथ बंध को प्राप्त होता है तथा उसकी कृपा से मुझे नाना प्रकार की गतियों में भ्रमण करना पड़ता है और सत्यमार्ग भी नहीं सूझता है इसलिये इस समय भेदविज्ञान से मैंने उसका खंडन किया है।।२५।।
-शार्दूलविक्रीडित-
रागद्वेषकृतैर्यथा परिणमेद्रूपान्तरै: पुद्गलो नाकाशादिचतुष्टयं विरहितं मूर्त्या तथा प्राणिनाम्।
ताभ्यां कर्मघनं भवेदविरतं तस्मादियं संसृतिस्तस्यां दु:ख परंपरऽपि विदुषा त्याज्यौ प्रयत्नेन तौ।।२६।।
अर्थ — जीवों के नाना प्रकार के रागद्वेषों के करने वाले परिणामों से जिस प्रकार पुद्गलद्रव्य परिणमित होता है उसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार अमूर्तिक द्रव्य राग-द्वेष के करने वाले परिणामों से परिणमित नहीं होते तथा उस रागद्वेष के द्वारा प्रबलकर्मों की उत्पत्ति होती है और उस कर्म से संसार होता है तथा संसार में नाना प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते हैं इसलिये कल्याण की अभिलाषा करने वाले सज्जनों को चाहिये कि वे राग तथा द्वेष को सर्वथा छोड़ दें।
भावार्थ — पुद्गल के अनेक परिणाम होते हैं उनमें रागद्वेषरूप जाे पुद्गल के परिणाम हैं, उनसे सदा कर्म आत्मा में आकर बंधते रहते हैं और उन कर्मों से आत्मा को संसार में घूमना पड़ता है तथा वहाँ पर नाना प्रकार के दु:ख सहन करने पड़ते हैं इसलिये भव्यजीवों को ऐसे परम अहित के करने वाले रागद्वेषों का त्याग अवश्य ही कर देना चाहिये।।२६।।
किं बाह्येषु परेषु वस्तुषु मन: कृत्वा विकल्पान् बहून् रागद्वेषमयान् मुधैव कुरुषे दु:खाय कर्माशुभम्।
आनन्दामृतसागरे यदि वसस्यासाद्य शुद्धात्मनि स्फीतं तत्सुखमेकतामुपगतं त्वं यासि रे निश्चितम्।।२७।।
Dर्थ — हे मन! बाह्य तथा तुझसे भिन्न जो स्त्री-पुत्र आदि पदार्थ हैं उनमें रागद्वेष स्वरूप अनेक प्रकार विकल्पों को करके क्यों दु:ख के लिये तू व्यर्थ अशुभ कर्म को बांधता है? यदि तू आनंदरूपी जल के समुद्र में शुद्धात्मा को पाकर उसमें निवास करेगा तो तू विस्तीर्ण निर्वाणरूपी सुख को अवश्य प्राप्त करेगा इसलिये तुझे आनंदस्वरूप शुद्ध आत्मा में ही निवास करना चाहिये और उसी का ही ध्यान तथा मनन करना चाहिये।।२७।।
इत्याध्याय हृदि स्थिरं जिन भवत्पादप्रसादात्सती मध्यात्मैकतुलामयं जन इत: शुद्ध्यर्थमारोहति।
एवं कर्तुममी च दोषिणमित: कर्मारयो दुर्धरा: तिष्ठन्ति प्रसभं तदत्र भगवन् मध्यस्थसाक्षी भवान्।।२८।।
अर्थ — हे जिनेन्द्र! आपके चरणकमलों की कृपा से पूर्वोक्त बातों को भली-भाँति मन में चिंतवन कर जिस समय यह प्राणी शुद्धि के लिये अध्यात्मरूपी तुला (तखड़ी) चढ़ता है उस समय उसको दोषी बनाने के लिये कर्मरूपी भयंकर बैरी मौजूद है इसलिये हे भगवान् ऐसी दशा में आप ही मध्य में बैठकर साक्षी हैं।
भावार्थ — तखड़ी के दो पले होते हैं उनमें से अध्यात्मरूपी एक पले पर तो शुद्धि के लिये यह प्राणी चढ़ता है और दूसरे में कर्मरूपी बैरी उस प्राणी को दोषी बनाने के लिये मौजूद हैं और हे भगवन्! आप उन दोनों के बीच में साक्षी हैं इसलिये आपको पूरी तौर से न्याय करना चाहिये ।।२८।।
विकल्परूप ध्यान तो सारस्वरूप है और निर्विकल्पध्यान मोक्षस्वरूप है इस बात को आचार्य दिखाते हैं—
द्वैतं संसृतिरेव निश्चयवशादद्वैतमेवामृतं संक्षेपादुभयत्र जल्पितमिदं पर्यज्र्काष्ठागतम्।
निर्गत्याद्यपदाच्छनै: सबलितादन्यत्समालम्बते य: सोऽसंज्ञ इति स्फुटं व्यवहृतेर्ब्रह्मादिनामेति च।।२९।।
अर्थ —द्वैत सविकल्पकध्यान तो वास्तविकरीति से संसारस्वरूप है तथा अद्वैत (निर्विकल्पक) ध्यान मोक्षस्वरूप है यह संसार तथा मोक्ष में अंतदशाको प्राप्त संक्षेप से कथन है तथा जो मनुष्य इन दोनों में से आदि का जो द्वैत पद है उससे धीरे से हटकर अद्वैत पद को आलम्बन करता है वह पुरुष वास्तविक रीति से नाम रहित हो जाता है अथवा उसी पुरुष को व्यवहार नय से ब्रह्मा, धाता आदि नाम से पुकारते हैं।
भावार्थ —जो पुरुष सविकल्पध्यान को करने वाला है वह तो संसार में ही घूमा करता है किन्तु जो पुरुष निर्विकल्पकध्यान को आचरण करता है वह मोक्ष में जाकर सिद्धपद को प्राप्त करता है तथा सिद्धों का निश्चयनय से कोई नाम न होने से वह नामरहित हो जाता है अथवा व्यवहारनय से उसी को ब्रह्मा आदि नाम से भी पुकारते हैं।।२९।।
चारित्रं यदभाणि केवलदृशो देव त्वया मुक्तये पुंसो तत्खलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम्।
भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यै: पुरोपार्जितै: संसारार्णवतारणे जिन तत: सैवास्तु पीतो मम।।३०।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र देव! जो आपने केवलज्ञानरूपी दृष्टि से मुक्ति के लिये चारित्र का वर्णन किया है उस चारित्र को इस भयंकर कलिकाल में मेरे समान मनुष्य बड़ी कठिनता से धारण कर सकता है किन्तु पूर्वकाल में संचित जो पुण्य उससे जो मेरी आप में दृढ़ भक्ति है, वही हे जिन! मुझे संसाररूपी समुद्र से पार करने में जहाज के समान हो अर्थात् मुझे संसार-समुद्र से वही भक्ति पार कर सकेगी।
भावार्थ —बिना कर्मों का नाश कर मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती और कर्मों का नाश आपके द्वारा किये हुवे चारित्र (तप) से होता है उस तप को शक्ति के अभाव से इस पंचमकाल में हे भगवन्! मुझ सरीखा मनुष्य धारण नहीं कर सकता इसलिये हे भगवन्! यही प्रार्थना है कि भाग्य के उदय से जो आप में मेरी दृढ़भक्ति है उसी से मेरे कर्म नष्ट हो जावें और मुझे मोक्ष की प्राप्ति होवे।।३०।।
इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनय: संसारे भ्रमता चिरं यदखिला: प्राप्ता मयाऽनन्तश:।
तन्नापूर्वमिहास्ति किञ्चिदपि मे हित्वा विमुक्तिप्रदां सम्यग्दर्शनबोध१वृत्तपदवीं तां देव पूर्णां कुरू।।३१।।
अर्थ —इस संसार में भ्रमण कर मैंने इन्द्रपना, निगोदपना और बीच में अन्य भी समस्त प्रकार की योनि अनंतबार प्राप्त की हैं इसलिये इन पदवियों में से कोई भी पदवी मेरे लिये अपूर्व नहीं है किन्तु मोक्ष पद को देने वाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की पदवी अभी तक नहीं मिली है इसलिये हे भगवन्! यह प्रार्थना है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की पदवी को ही पूर्ण करो।
भावार्थ — यद्यपि संसार में बहुत सी इन्द्र-चक्रवर्ती आदि पदवी हैं और वे समस्त पदवी मैंने प्राप्त भी कर ली हैं किन्तु हे भगवन्! जो पदवी सर्वोत्कृष्ट मोक्षरूपी सुख के देने वाली है वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की पदवी अभी तक मैंने नहीं प्राप्त की है इसलिये यह विनयपूर्वक प्रार्थना है कि कृपाकर मुझे सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की पदवी को पूर्णतया प्रदान करें।।३१।।
श्रीवीरेण मम प्रसन्नमनसा तत्किञ्चिदुच्चै: पदप्राप्त्यर्थं परमोप्ादेशवचनं चित्ते समारोपितम्।
येनास्तामिदमेक भूतलगतं राज्यं क्षणध्वंसि यत् त्रैलोक्यस्य च तन्न मे प्रियमिह श्रीमज्जिनेश प्रभो।।३२।।
अर्थ —बाह्य तथा अभ्यंतर लक्ष्मी से शोभित ऐसे श्री वीरनाथ भगवान अपने प्रसन्नचित्त सबसे ऊँचे पद की प्राप्ति के लिये जो मेरे चित्त में उपदेश जमाया है अर्थात् उपदेश दिया है उस उपदेश के सामने क्षणभर में विनाशीक ऐसा पृथ्वी का राज्य मुझे प्रिय नहीं है यह बात तो दूर ही किन्तु हे प्रभो! हे जिनेन्द्र! उस उपदेश के सामने तीनों लोक का राज्य भी मुझे प्रिय नहीं है।
भावार्थ —यद्यपि संसार में पृथ्वी का राज्य तथा तीन लोक का राज्य मिलना भी एक उत्तम बात है किन्तु हे भगवन्! प्रसन्नचित्त से श्री वीरनाथ भगवान ने जो मुझे उपदेश दिया है उसके सामने वे दोनों बातें मुझे इष्ट नहीं हैं इसलिये मैं ऐसे उपदेश का ही प्रेमी हूँ।।३२।।
सूरे: पज्र्जनन्दिन: कृतिमिमामालोचनामर्हतामग्रे य: पठति त्रिसन्ध्यममलश्रद्धानताङ्गो नर:।
योगीन्द्रैश्चिरकालरूढतपसा यत्नेन यन्मृग्यते तत्प्राप्नोति परं पदं स मतिमानानन्दसद्म धु्रवम्।।३३।।
अर्थ —श्रद्धा से जिसका शरीर नम्रीभूत है ऐसा जो मनुष्य श्री पद्मनन्दि आचार्य द्वारा की गई आलोचना नाम की कृति को तीनों काल श्री अर्हंन्तदेव के सामने पढ़ता है वह बुद्धिमान मनुष्य उस पद को प्राप्त होता है जिस पद को चिरकाल पर्य्यंत तपकर बड़े—बड़े मुनि घोर प्रयत्न करने पर प्राप्त करते हैं।
भावार्थ —जो मनुष्य प्रात:काल, मध्यान्हकाल तथा सांयकाल तीनों कालों में श्री अर्हन्तदेव के सामने आलोचना का पाठ पढ़ता है वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को अवश्य की श्री अर्हंतदेव के सामने पद्मनन्दि आचार्य द्वारा बनाई हुई आलोचना नामक कृति का तीनों काल पाठ करना चाहिये।।३३।।
इस प्रकार इस ग्रंथ में आलोचना नामक अधिकार समाप्त हुवा।