तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में प्रायश्चित्त तप के ८ भेद बताए है- ‘आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुमय-विवेक-व्युत्सर्ग-तप-च्छेद परिहारोपस्थापना । आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय यानि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ये ८ भेद है।
प्रमाद से लगे दोषों को गुरू के पास जाकर निष्कपर रीति से कहना सो आलोचना है। आलोचना ७ प्रकार की है- दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, याक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थ।
आलोचना के २ प्रकार भी है- एक ओघालोचना दूसरी पदविभागी आलोचना अर्थात् सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना। वचन सामान्य और विशेष इन धर्मों का आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है। जिसने अपरिमित अपराध किए हैं अथवा जिसके रत्नत्रय का –सर्व व्रतों का नाश हुआ है, वह मुनि सामान्य रीति से अपराध का निवेदन करता है। आज से मै पुन: मुनि होने की इच्छा करता हूँ मै तुच्छ हूँ अर्थात् मै रत्नत्रय से आप लोगों से छोटा हूँ ऐसा कहना सामान्य आलोचना है। तीन काल मे, जिस देश में, जिस परिणाम से जो दोष हो गया है उस दोष की मैं आलोचना करता हूँ । ऐसा कहकर जो दोष क्रम से आचार्य के आगे क्षपक कहता है उसकी वह पदविभागी आलोचना है। आलोचना के १० अतिचार बताए हैं- ‘आवंâपिय अणुमाणिय जं दिट्ठं बादर च सुहुमं च। छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।’ आकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छवन, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवी। आलोचना इन दोषों को बचाकर करना चाहिए।