मन—वचन—काय द्वारा किए जाने वाले शुभाशुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं—आभोगकृत और अनाभोगकृत। दूसरों द्वारा जाने गए कर्म आभोगकृत हैं और दूसरों के द्वारा न जाने गए कर्म अनाभोगकृत हैं। दोनों प्रकार के कर्मों की तथा उनमें लगे दोषों की आलोचना गुरु या आचार्य के समक्ष निराकुल चित्त से करनी चाहिए। यथा कण्टकेन विद्ध:, सर्वांगे वेदर्नािदतो भवति। तथैव उद्धृते तु निश्शल्यो निर्वृतो भवति।। एवमनुद्धृतदोषो, मायावी तेन दु:खितो भवति। स एव त्यक्तदोष:, सुविशुद्धो निर्वृतो भवति।।
जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा होती है और कांटे के निकल जाने पर शरीर नि:शल्य अर्थात् सर्वांग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दु:खी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है—मन में कोई शल्य नहीं रह जाता। अर्थात् श्रावक या साधु सभी को अपने समस्त दोषों की आलोचना माया—मद/छल—छद्म त्याग करनी चाहिए। य: पश्यत्यात्मानं, समभावे संस्थाप्य परिणामम्। आलोचनामिति जनीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम्।।
अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है।