जैनागम में श्रावक की षट् आवश्यक क्रियायें बताई है- देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय संयमस्तप: दानं चेति गृहस्थाणां षट्कार्याणि दिने-दिने। जो पुरूष देव पूजा, गुरू की उपासना स्वाध्याय, संयम तप और दान इन षट्कर्मों के करने में तल्लीन रहता है, जिसका कुल उत्तम है वह चूली, उखली, चक्की, बुहारी आदि गृहस्थ की नित्य षट् आरम्भ क्रियाओं से होने वाले पाप से मुक्त हो जाता है वही उत्तम श्रावक कहलाता है।
इसी प्रकार साधुओं के २८ मूलगुण में भी छह आवश्यक क्रियायें बताई है- समता, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, व्युत्सर्ग।
समता- रागद्वेष मोह से रहित होना। स्तव-ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरो की स्तुति करना।
वन्दना- एक तीर्थंकर का दर्शन या वंदन करना। प्रतिक्रमण –अशुभ मन, वचन और काय के द्वारा जो प्रवृत्ति हुई थी उससे परावृत्त होना अथवा किए हुए दोषों का शोधन करना। प्रत्याख्यान- अयोग्य द्रव्य का त्याग करना । व्युत्सर्ग- देह से ममत्व रहित होकर जिनगुण चिन्तनयुक्त कायोत्सर्ग करना।
इन्द्रिय, कषाय, राग द्वेषादि के वश में जो नहीं है वे अवश है उनकी क्रियायें आवश्यक क्रियायें है।