चारित्रसार पृ ४१ पर लिखा है-
ब्रह्ममचारी, गृहस्थयश्च, वानप्रस्थश्च भिक्षुक:।
इत्याश्रमास्तु जैनानां, सप्तमांगाद्विनि:सृता:।।
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक जैनों के ये चार आश्रम होते हैं ऐसा सप्तम उपासकाध्ययन अंग में बताया गया है।
इन चार आश्रमों में सबसे प्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम बतलाया गया है इसका अभिप्राय यह है कि कोई भी पहले कुमारकाल में ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश कर अर्थात् गुरूकुल आदि में रहकर यज्ञोपवीत संस्कार से सुसंस्कृत होकर शास्त्रों का अभ्यास करता है पुन: यदि उसमी इच्छा हो तो मुनि बन जाता है जैसे भद्रबाहु श्रुतकेवली और जिनसेनाचार्य आदि के उदाहरण है। कोई गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं जैसे जीवंधर कुमार आदि।
गृहस्थ आश्रम में गृहस्थों के छह आर्य कर्म होते है- इज्या,वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। आर्यों के इन षट्कर्म में तत्पर रहने वाले गृहस्थ कहलाते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं- जातिक्षत्रिय तीर्थं क्षत्रिय । चार वर्णों में से क्षत्रिय वर्ण में जन्म लेने वाले जाति क्षत्रिय हैं और तीर्थंकर, नारायण, चक्रवर्ती आदि तीर्थ क्षत्रिय कहलाते है।
वानप्रस्थ आश्रम- जो दिगम्बर रूप को धारण न करके खंडवस्त्र को धारण करते है अर्थात् क्षुल्लक,ऐलक अवस्था में रहते हैं वे वानप्रस्थ कहलाते है।
भिक्षुक आश्रम – भगवान् अरहंत देव की दिगम्बर अवस्था को धारण करने वाले भिक्षु कहलाते है। भिक्षु के ४ भेद है- अनगार, यति, मुनि और ऋषि ।