आत्मा में कर्मों के आने को आस्रव तत्त्व कहते हैं। जैसे नदी में नाव चलते समय किसी छिद्र में से पानी का नाव में आना। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन, राग, द्वेष आदि भावों के कारण आत्मप्रदेशों में हलन चलन होने से कार्मण पुद्गल वर्गणा आत्मा में आती हैं। ऐसे पुद्गल कणों को कर्म नाम दिया जाता है और सामान्य कथन में इन्हें ही कर्म कहते हैं। इस प्रकार आत्मा में कर्म निरंतर आते रहते हैं।
आस्रव के विभिन्न प्रकार से भेद व उपभेद किये गये हैं। इसके मुख्य दो भेद निम्न हैं-
(१) भाव आस्रव- जिन शुभाशुभ भावों से कार्मण वर्गणाएं कर्मरूप में परिणत होती हैं, उन्हें भाव-आस्रव कहते हैं।
(२) द्रव्य-आस्रव- उन कार्मण वर्गणाओं का कर्मरूप से आत्मा में आना द्रव्य-आस्रव कहलाता है।
दूसरे शब्दों में जिन भावों से कर्म आते हैं, वह भावास्रव है और कर्मों का आगमन द्रव्यास्रव है। जैसे नाव के छेदों से जल नाव में आता है वैसे ही जीव के मन-वचन-कायरूपी छिद्रों से कर्मवर्गणाएं प्रविष्ट होती हैं। छिद्र होना भावास्रव है और जलरूपी कर्मों का आना द्रव्यास्रव है।
भाव-आस्रव के मूल भेद ४ और उप भेद ५७ हैं और इन ५७ के द्वारा ही कर्मों का आस्रव होता है। इनका विवरण निम्न प्रकार है-
(१) मिथ्यात्व (५)- झूठे देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व की वजह से जीव में तरह-तरह के भाव उत्पन्न होते हैं, जो कर्म बन्ध के कारण हैं। मिथ्यात्व ५ प्रकार का होता है-एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान।
(२) अविरति (१२)- आत्मा के अपने स्वभाव से हटकर अन्य विषयों में लगना या व्रतों को धारण न करना अविरति है अर्थात् इसमें चारित्र ग्रहण की प्रवृत्ति नहीं होती है। इसके १२ भेद हैं-६ प्रकार के जीव (५ स्थावर और १ त्रस) के रक्षण का भाव न होना तथा ५ इन्द्रियों तथा मन को वश में नहीं करना।
(३) कषाय (२५)- जो आत्मा को कषे अर्थात् दुःख दे, वह कषाय है। इसके २५ भेद होते हैं।
(४) योग (१५)- सोचने, बोलने या अन्य शारीरिक क्रिया करने से हमारे शरीर में हलन-चलन होता है। इससे हमारी आत्मा के प्रदेशों में भी हलन-चलन होता है, यही योग कहलाता है। आत्मा में हलन-चलन होने से ही कर्मों का आस्रव होता है। योग के १५ भेद हैं।
इस प्रकार भाव-आस्रव के ५७ भेद होते हैं।
पुण्य-पाप की अपेक्षा से आस्रव के २ भेद हैं-
(१) पुण्यास्रव (शुभास्रव)- जिनेन्द्र भक्ति, जीव दया आदि धार्मिक शुभ क्रियाएं करने से जो कर्म आते हैं वह पुण्यास्रव अथवा शुभास्रव है।
(२) पापास्रव (अशुभास्रव)- हिंसा-झूठ आदि अधार्मिक व अशुभ क्रियाएं करने से जो आस्रव होता है, वह पापास्रव या अशुभास्रव है।
वह योग, कषाय सहित जीवों के साम्परायिक आस्रव और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव का कारण है।
कषाय-जो आत्मा को कषे अर्थात् चारों गतियों में भटकाकर दु:ख देवे उसे कषाय कहते हैं। जैसे-क्रोध, मान, माया, लोभ।
साम्परायिक आस्रव-जिस आस्रव का संसार ही प्रयोजन है उसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं।
ईर्यापथ-स्थिति और अनुभाग रहित कर्मों के आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं।
नोट- ईर्यापथ आस्रव ११वें से १३वें गुणस्थान तक के जीवों के होता है और उसके पहले गुणस्थानों में साम्परायिक आस्रव होता है। १४वें गुणस्थान में आस्रव का सर्वथा अभाव हो जाता है।
स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियां, क्रोधादि चार कषाय, हिंसादि पाँच अव्रत और सम्यक्त्व आदि पच्चीस क्रियाएँ, इस तरह साम्परायिक आस्रव के ३९ भेद हैं अर्थात् इन सब ३९ भेदों के द्वारा साम्परायिक कर्म का आस्रव होता है।
(१) सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली क्रिया को सम्यक्त्व क्रिया कहते हैं।
(२) मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली क्रिया को मिथ्यात्व क्रिया कहते हैं।
(३) शरीरादि से गमनागमन रूप प्रवृत्ति करना सो प्रयोग क्रिया है।
(४) संयमी का असंयम के सन्मुख होना सो समादान क्रिया है।
(५) गमन के लिए जो क्रिया होती है, उसे ईर्यापथ क्रिया करते हैं।
(६) क्रोध के वश से जो क्रिया हो, वह प्रादोषिकी क्रिया है।
(७) दुष्टतापूर्वक उद्यम करना सो कायिकी क्रिया है।
(८) हिंसा के उपकरण तलवार आदि का ग्रहण करना सो अधिकरण क्रिया है।
(९) जीवों को दु:ख उत्पन्न करने वाली क्रिया को पारितापिकी क्रिया कहते हैं।
(१०) आयु, इन्द्रिय आदि प्राणों का वियोग करना सो प्राणातिपातिनी क्रिया है।
(११) राग के वशीभूत होकर मनोहर रूप देखना सो दर्शन क्रिया है।
(१२) राग के वशीभूत होकर वस्तु का स्पर्श करना स्पर्शन क्रिया है।
(१३) विषयों के नये-२ कारण मिलना प्रात्ययिकी क्रिया है।
(१४) स्त्री, पुरुष अथवा पशुओं के बैठने तथा सोने आदि के स्थान में मलमूत्रादि क्षेपण करना समन्तनुपात क्रिया है।
(१५) बिना देखी बिना शोधी हुई भूमि पर उठना बैठना अनाभोग क्रिया है।
(१६) लोभ से वशीभूत हो दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है।
(१७) पाप को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति को भला समझना निसर्ग क्रिया है।
(१८) पर के किये हुए पापों को प्रकाशित करना विदारण क्रिया है।
(१९) चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से शास्त्रोक्त आवश्यकादि क्रियाओं के करने में असमर्थ होकर उनका अन्यथा निरूपण करना सो आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है।
(२०) प्रमाद अथवा अज्ञान के वशीभूत होकर आगमोक्त क्रियाओं में अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है।
(२१) छेदन-भेदन आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना तथा अन्य को प्रवृत्त देखकर हर्षित होना प्रारंभ क्रिया है।
(२२) परिग्रह की रक्षा में प्रवृत्त होना पारिग्रहिकी क्रिया है।
(२३) ज्ञान दर्शन आदि में कपटरूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है।
(२४) प्रशंसा आदि से किसी को मिथ्यारूप परिणति में दृढ़ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है।
(२५) चारित्रमोहनीय के उदय से त्यागरूप प्रवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है।
जीवाधिकरण आस्रव-समरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, मन, वचन, कायरूप तीन योग, कृत, कारित, अनुमोदना तथा क्रोधादि चार कषायों की विशेषता से १०८ भेदरूप हैं।
समरम्भ, समारम्भ, आरंभ, तीनों में मन, वचन, काय, इन तीन योगों का गुणा करने से ९ भेद हुए। इन ९ भेदों में कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन का गुणा करने पर २७ भेद हुए और इन २७ भेदों में क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषाय का गुणा करने से कुल १०८ भेद हुए।
अजीवाधिकरण आस्रव-दो प्रकार की निवर्तना, चार प्रकार का निक्षेप, दो प्रकार का संयोग और तीन प्रकार का निसर्ग, इस तरह ११ भेद वाला है।
ज्ञान और दर्शन के विषय में किये गये प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म के आस्रव हैं।
निज तथा पर दोनों के विषय में स्थित दु:ख-शोक-ताप-आक्रन्दन-वध और परिदेवन ये असातावेदनीय के आस्रव हैं।
भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षांति और शौच तथा अर्हद्भक्ति आदि ये सातावेदनीय के आस्रव हैं।
केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद करना दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।
कषाय के उदय से होने वाले तीव्र परिणाम चारित्रमोहनीय के आस्रव हैं।
बहुत आरंभ और परिग्रह का होना नरक आयु का आस्रव है।
माया (छलकपट) तिर्यंच आयु का आस्रव है।
थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह का होना मनुष्य आयु का आस्रव है।
स्वभाव से ही सरल परिणामी होना मनुष्य आयु का आस्रव है।
दिग्व्रतादि सात शील और अहिंसादि पाँच व्रतों का अभाव भी समस्त आयुकर्मों का आस्रव है।
सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल तप ये देव आयु के आस्रव हैं।
सम्यग्दर्शन भी देव आयु कर्म का आस्रव है।
योगों की कुटिलता और विसम्वादन-अन्यथा प्रवृत्ति करना अशुभ नामकर्म का आस्रव है।
योगवक्रता और विसंवादन से विपरीत अर्थात् योगों की सरलता और अन्यथा प्रवृति का अभाव ये शुभ नामकर्म के आस्रव हैं।
तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के आस्रव कराने वाली सोलहकारण भावनाएँ-
१. दर्शनविशुद्धि- पच्चीस दोषरहित निर्मल-सम्यग्दर्शन
२. विनयसम्पन्नता- रत्नत्रय तथा उनके धारकों की विनय करना
३. शीलव्रतेष्वनतिचार- अहिंसादि व्रत और उनके रक्षक क्रोधत्याग आदि शीलों में विशेष प्रवृत्ति
४-५ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ- निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना और संसार से भयभीत होना
६-७ शक्तितस्त्याग तपसी- यथाशक्ति दान देना और उपवासादि तप करना
८. साधुसमाधि- साधुओं के विघ्न आदि को दूर करना
९. वैयावृतकरण- रोगी तथा बालवृद्ध मुनियों की सेवा करना
१०-११-१२-१३-अर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्ति- अरहन्त भगवान की भक्ति करना, आचार्यों की भक्ति करना, उपाध्यायों की भक्ति करना, शास्त्रों की भक्ति करना
१४ आवश्यकापरिहाणि- सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं में हानि नहीं करना
१५. मार्गप्रभावना- जैनधर्म की प्रभावना करना
१६. प्रवचनवत्सलत्व- गोवत्स की तरह धर्मात्मा जीवों से स्नेह रखना। ये सोलह भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृति नामक नामकर्म के आस्रव हैं।
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरे के मौजूद गुणों को ढांकना और अपने झूठे गुणों को प्रकट करना, वे नीच गोत्रकर्म के आस्रव हैं।
नीच गोत्र के आस्रवों से विपरीत अर्थात् परप्रशंसा तथा आत्मनिन्दा और नम्र वृत्ति तथा मद का अभाव ये उच्च गोत्रकर्म के आस्रव हैं।
दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न करना अन्तरायकर्म का आस्रव है।
आये हुए कर्मों का आत्मा के साथ मिलकर एकमेक हो जाना बन्ध तत्त्व है। जिस प्रकार दूध में पानी मिलकर एकमेक हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में कर्मों का मिलकर एकमेक हो जाना बन्ध तत्त्व है।
पुद्गल की कार्मण वर्गणाओं को अपनी ओर खींचने की विशेष शक्ति जीव में होती है। जैसे कि चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचती है। जीव की इस आकर्षण शक्ति का नाम योग है। मन वचन व काय की प्रवृत्ति से जब आत्मा के प्रदेश कम्पायमान होते हैं तब योग शक्ति से कर्म वर्गणाएं आती हैं और आत्मा से बंध को प्राप्त हो जाती हैं। ये कर्म वर्गणाएं जीव के भावों के अनुसार ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों में स्वयमेव परिणमित हो जाती हैं। जैसे अपने द्वारा ग्रहण किया गया आहार स्वयं ही रुधिर, वीर्य, मांस, मल-मूत्र, अस्थि, चमड़ी, केश आदि स्वरूप परिणमता है। आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सातों कर्मोें का बन्ध प्रति समय होता रहता है।
यह लोक सभी ओर बादर, सूक्ष्म आदि अनन्तानन्त पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है और जहां पर आत्मा है, वहां पर ये पुद्गल पूर्व से ही मौजूद हैं तथा पुद्गल-कर्म आत्मा से अनादि काल से बंधा हुआ है। इसी कारण आत्मा मोह, राग, द्वेष आदि भावरूप परिणमन करती रहती है। इन भावों को निमित्त करके कार्मण वर्गणा स्वभाव से ही कर्मपने को प्राप्त होकर जीव के प्रदेशों से बंध जाती हैं। जैसे बिना किसी के किये हुए पुद्गलों के इन्द्रधनुष, मेघ आदिरूप स्कन्ध बन जाते हैं, वैसे ही अपने योग्य जीव के परिणामों का निमित्त मिलते ही ज्ञानावरणी आदि कर्मरूप होकर आत्मा से बंध जाते हैं। मन-वचन-काय की क्रिया की अधिकता होने पर आत्मा के प्रदेश अधिक चलायमान होते हैं, तब कर्म परमाणु अधिक बंधते हैं और क्रिया कम होने पर ये कम बंधते हैं। जैसे अधिक चिकने शरीर पर धूल अधिक जमती है और कम चिकने शरीर पर धूल कम जमती है।
दो व्यक्ति, जिनमें से एक के शरीर पर तेल लगा हुआ है, धूल भरी भूमि पर अपनी कुल्हाड़ियों से पेड़ों को काटते हैं। उनमें से जिस व्यक्ति के शरीर पर तेल लगा हुआ था, उसके मिट्टी चिपक जाती है लेकिन दूसरे व्यक्ति के नहीं लगती है। इसका कारण क्या है ? धूलभरी भूमि होना, कुल्हाड़ी होना तथा वृक्ष को काटना इसका कारण नहीं हो सकता है। क्योंकि इनमें से कोई भी कारण होता तो दोनों व्यक्तियों के शरीर पर मिट्टी चिपकनी चाहिए थी। निष्कर्ष यही निकलता है कि बाह्य साधनों के कारण मिट्टी नहीं चिपकी, मगर देह में जो स्नेह (तेल) लगा हुआ है, उसके कारण चिपकी है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव रागादि करता हुआ मन-वचन-काय की चेष्टायें करता है जिससे कार्मण वर्गणाओं (जो संसार में सर्वत्र व्याप्त हैं) से बंध जाता है। बाह्य साधनों से कर्म बन्ध नहीं होता है, अपितु उपयोग में जो रागादि को ले जाना है, वह कर्म बन्ध का कारण है।
बन्ध के प्रकार- बंध दो प्रकार का होता है-
(१) भावबन्ध- जीव के शुभ व अशुभ (राग, द्वेष, क्रोध आदि) परिणाम जिनसे कर्म बंधता है, वह भावबन्ध है।
(२) द्रव्यबन्ध- आत्मा के प्रदेशों और कर्म वर्गणाओं का मिलना द्रव्यबंध है। जैसे धूल उड़कर गीले कपड़े में लग जाती है।
आस्रव और बन्ध साथ-साथ होते हैं। अत: आस्रव के सभी कारण बंध के कारण भी होते हैं।
जब कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को आवरण करता (ढकता) है तो उस पदार्थ में चार बातें एक साथ प्रकट होती हैं-
(१) आवरण का स्वभाव, (२) आवरण का काल, (३) आवरण की हीनाधिक शक्ति और (४) आवरण करने वाले पदार्थ का परिमाण।
आगम में इन्हीं को क्रमश: प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश कहते हैं। इस प्रकार कर्म बन्ध के चार भेद हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
(१) प्रकृतिबंध- प्रकृति का अर्थ स्वभाव होता है। जैसे गुड़ में मीठापन या नमक में खारापन। वैसे ही दर्शन, ज्ञान आदि को ढकने का स्वभाव कर्मों का होता है, यही प्रकृति बंध है। जैसे ज्ञानावरणी कर्म का स्वभाव ज्ञान को ढकना है। प्रकृति बंध दो प्रकार का होता है-
(क) मूल प्रकृतियाँ- आठ कर्मों की ८ मूल प्रकृतियाँ हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय
(ख) उत्तर प्रकृतियाँ- ये १४८ प्रकार की होती हैं।
एक बार खाये अन्न का जिस प्रकार रस, रुधिर आदि रूप से अनेक प्रकार का परिणमन होता है, उसी प्रकार एक आत्म परिणाम के द्वारा ग्रहण किये गए पुद्गल ज्ञानावरण आदि रूप अनेक भेदों को प्राप्त होते हैं।
(२) स्थिति बंध- जितने काल तक कर्म आत्मा के साथ बंधे रहते हैं अर्थात् फल देने की स्थिति में रहते हैं, वह स्थिति बंध है। इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा-कोड़ी सागर है।
(३) अनुभाग बंध- कर्मों के फल देने की अपनी-अपनी शक्ति (तीव्र, मन्द आदि) का होना अनुभाग बंध है। कर्मों का अनुभाग कषायों की तीव्रता व मन्दता पर निर्भर है।
(४) प्रदेश बंध- बंधने वाले कर्मों की संख्या प्रदेश बंध है।
योग के द्वारा प्रकृति बंध और प्रदेश बंध होता है और कषाय के द्वारा स्थिति बंध और अनुभाग बंध होता है। कर्म-सिद्धान्त में सर्वत्र अनुभाग व स्थिति की प्रधानता है, प्रकृति व प्रदेश की नहीं। जैसे उबलते हुए जल की एक कटोरी भी शरीर में छाले डाल देती है और कम गर्म जल की एक बाल्टी भी शरीर को कोई हानि नहीं पहुंचाती है। ये चारों बन्ध प्रति समय होते रहते हैं।
पुद्गल के २० गुण (५ रूप, ५ रस, २ गंध और ८ स्पर्श) जीव में नहीं पाये जाते हैं, अत: जीव पुद्गल नहीं है अर्थात् मूर्तिक नहीं है अपितु अमूर्तिक है। पुद्गल द्रव्य २३ प्रकार की वर्गणाओं में बंटा हुआ है जिनमें से एक कार्मण वर्गणा है। जीव के द्वारा किये गए भावों के निमित्त से यह कार्मण वर्गणा ही कर्म रूप हो जाती है। इस प्रकार कर्म मूर्तिक है।
अब यह देखना है कि अमूर्तिक के साथ मूर्तिक पदार्थ का बंध कैसे माना जाता है-
जैन दर्शन जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि मानता है। किसी समय जीव सर्वथा शुद्ध था और बाद में उसके साथ कर्मों का सम्बन्ध हुआ, यह नहीं माना जा सकता है क्योंकि अमूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध नहीं होता है। यदि शुद्ध आत्मा बाद में कर्मों के बन्धन में पड़ सकती है तो फिर शुद्ध आत्मा हेतु प्रयत्न करने का क्या औचित्य रहता है, जब तक जीव के साथ कर्म बंधे हुए हैं, तब तक वह अशुद्ध आत्मा है और संसार में जन्म-मरण करती रहती है। यदि आत्मा कर्मों से रहित हो जावे अर्थात् सर्वथा शुद्ध हो जावे तो वह संसार परिभ्रमण से छुटकारा पाकर सिद्धालय में जाकर विराजमान हो जाती है और अविनाशी सुख का अनुभव करती है। इस प्रकार संसारी जीव यद्यपि मूर्तिक नहीं है किन्तु कर्म से बंधा हुआ जीव मूर्तिक रूप में प्रतिभासित होता है। संसार अवस्था में जीव के साथ कर्म का बंध अनादिकाल से होने के कारण जीव व्यवहार रूप से मूर्त हो रहा है। अतः कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्म का बंध होता है।