(१) ‘‘१आकस्मिक व्याधि के आ जाने पर (२) भयंकर उपसर्ग के आ जाने पर (३) ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा हेतु (४) जीव दया हेतु (५) अनशन आदि तप करने के लिए और (६) संन्यास काल के उपस्थित होने पर मुनि आहार का त्याग कर देते हैं।’’
दिगम्बर मुनि बल और आयु की वृद्धि के लिए, स्वाद के लिए, शरीर की पुष्टि या शरीर के तेज के लिए आहार ग्रहण नहीं करते हैं प्रत्युत ज्ञान की वृद्धि, संयम की वृद्धि और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं।ये मुनि नवकोटि से विशुद्ध, ब्यालीस दोषों से रहित, संयोजना दोष से शून्य, प्रमाण सहित और विधिवत्-नवधा भक्ति से प्रदत्त, अंगार, धूम दोष से भी हीन, छह कारण संयुक्त, क्रम विशुद्ध और प्राणयात्रा या मोक्ष यात्रा के लिए भी साधन मात्र तथा चौदह मल दोषरहित ऐसा आहार ग्रहण करते हैं।श्रावकों के द्वारा आहार बनाने में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति नहीं करना और कृत, कारित या अनुमोदना भी नहीं करना, इस प्रकार से मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणित करने पर ३²३·९-नव भेद हो जाते हैं। नवकोटि से रहित आहार ‘नवकोटिविशुद्ध’ कहलाता है।
श्री कुंदकुंददेव ने इसी बात को स्पष्ट किया है। यथा-
‘‘उद्गम, उत्पादन और एषणा के १६±१६±१०·४२ भेद होते हैं। संयोजना, अंगार, धूम दोषों से रहित तथा प्रमाण युक्त आहार होना चाहिए। उपर्युक्त छह कारणों से सहित हो, उत्क्रम से हीन हो तथा मोक्षयात्रा के लिए साधनमात्र है।’’श्रावकोें के श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्त्व-शक्ति ये सात गुण हैं तथा पड़गाहन करना, उच्चासन देना, चरण प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचन शुद्धि और काय की शुद्धि कहना और आहार की शुद्धि कहना, यह नवधा भक्ति है। इन सप्तगुणसहित, नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया आहार विधिवत् कहलाता है। ऐसे विधिवत् दिये गये आहार को वे मुनि ग्रहण करते हैं तथा चौदह मल दोष रहित आहार लेते हैं।