दिगम्बर जैन साधु-साध्वी मंदिर में जाकर मध्यान्ह देववन्दना और गुरुवंदना करके आहार को निकलते हैं ऐसा मूलाचार टीका, अनगार धर्मामृत आदि में विधान है फिर भी आजकल प्रात: ९ बजे से लेकर ११ बजे तक के काल में आहार को निकलते हैं। संघ के नायक आचार्य आदि गुरु पहले निकलते हैं उनके पीछे-पीछे क्रम से मुनि, आर्यिकाएं, ऐलक, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाएं निकलते हैं अत: मंदिर में सभी संघ पहुँच जाता है तब मात्र गुरुवंदना करके भगवान् की सामान्य स्तुति, वंदना करके निकलते हैं।
आजकल किन्हीं संघों में साधु आहार के पहले ही गुरु के पास आहार प्रत्याख्यान निष्ठापना की भक्ति पढ़ लेते हैं और गुरु के पास ही प्रत्याख्यान का त्याग करके आहार को जाते हैं। सो यह परम्परा कैसे प्रारंभ हुई, कौन जाने ? यह आगमोक्त नहीं है। ‘‘आचारसार’’ ग्रंथ में भी लिखा है कि ‘‘साधु दातार द्वारा पड़गाहन आदि नवधाभक्ति के पूर्ण हो जाने के बाद ही सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान का निष्ठापन करे पुन: आहार ग्रहण करे।
‘‘क्रियाकलाप’’ (पृ. ४१-४२) में पण्डित पन्नालाल जी सोनी ने भी यही विधि लिखी है। यथा-‘‘भोजन के पहले लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास का त्याग-निष्ठापन करें और भोजन के बाद शीघ्र ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण करें। यह तो आचार्य की असमक्षता में करें। आचार्य के समीप में लघु सिद्धभक्ति, लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास धारण करें अनन्तर लघु आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें।
‘‘मुनि-आर्यिकाएं आहार के लिए निकलते समय आचार्य के पास लघु सिद्धभक्ति-योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान निष्ठापन कर आहार को जावें, ऐसा कथन न तो क्रियाकलाप, मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि में ही है और न चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की परम्परा में ही रहा है। मैंने सन् १९५६-५७ में प्रथम पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज का चरण सानिध्य पाया है। सन् १९५७ से १९६२ तक पुन: उनके सान्निध्य में रही हूँ। सन् १९६८ से १९६९ तक पूज्य आचार्य श्री शिवसागर जी के संघ में रही हूँ। अनन्तर आचार्यश्री धर्मसार जी के आचार्यत्व काल में सन् १९७५ तक उनके संघ का लाभ प्राप्त किया है। न तो इन आचार्यों ने कभी ऐसा आदेश ही दिया था और न कभी ऐसी क्रिया उनके सानिध्य में हुई थी फिर भी यह परम्परा कैसे चल पड़ी और ‘‘श्रमणचर्या’’ पुस्तक में वैसे लिखी गई, कौन जाने ?’’
‘‘मुनिचर्या’’ ग्रंथ में मैंने यह पूरी विधि पृ. १४७ से पृ. १५४ तक आगम आधार से स्पष्ट की है, वहाँ से विशेष दृष्टव्य है।
अनगार धर्मामृत अध्याय ९, श्लोक ३७ की टीका में वर्णन है-
‘‘हेयं-त्याज्यं साधुना निष्ठाप्यमित्यर्थ। किं तत्? प्रत्याख्यानादि प्रत्याख्यानमुपोषितं वा।
क्व ? अशनादौ-भोजनारंभे। कया ? सिद्धभक्त्या। किं विशिष्ट्या ? लघ्व्या।
अर्थ-साधु चौके में भोजन प्रारंभ करते समय लघु सिद्धभक्ति के द्वारा पूर्व दिन के ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान या उपवास का निष्ठापन करें-त्याग कर देवें।
पुन: वहीं आहार के अनंतर मुखशुद्धि करके तत्क्षण ही प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें। सो ही देखिये-
‘‘आदेयं च-लघ्व्या सिद्धभक्त्या प्रतिष्ठाप्यं साधुना। किं तत् ? प्रत्याख्यानादि। क्व ?
अंते प्रक्रमाद् भोजनस्यैव प्रांते। कथं ? आशु शीघं भोजनानंतरमेव। आचार्यासन्निधावेतद्विधेयं।’’
साधु शीघ्र ही-भोजन के अनंतर ही आचार्य की अनुपस्थिति में-वहीं चौके में ही लघु सिद्ध भक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण कर लेवें अर्थात् अगले दिन आहार ग्रहण के पूर्व तक चतुर्विध आहार का त्याग कर देवें या अगले दिन उपवास करना है तो उपवास ग्रहण कर लेवें।
‘‘प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन’’ का अर्थ है कि मैं अब चतुर्विध आहार के प्रत्याख्यान-त्याग को प्रतिष्ठापित स्वीकार करता हूँ-ग्रहण करता हूँ।
पुन: श्रावक के घर से निकलकर साधु अपनी वसतिका में आकर आचार्य के समीप गवासन से बैठकर प्रत्याख्यान ग्रहण करें। यह वर्णन भी अनगार धर्मामृत के ३७वें श्लोक की टीका में है-
‘‘सूरौ-आचार्यसमीपे पुनर्ग्राह्यं प्रतिष्ठाप्यं साधुना। किं तत् ? प्रत्याख्यानादि। कया ? लघ्व्या सिद्धभक्त्या…..लघु योगिभक्त्यधिकया तथा वंद्य: साधुना ? स सूरि:। कया ? सूरिभक्त्या। किंविशिष्ट्या ? लघ्व्या।’’
पुन: आचार्य के पास में बैठकर साधु लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण करें अनंतर लघु आचार्य भक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें।
गोचार प्रतिक्रमण कब और कैसे करें ?
आचार्यदेव की वंदना के बाद साधुवर्ग गोचार प्रतिक्रमण करें। जिनके घर में आहार हुआ है उनका नाम आदि बताकर आहार में जो कुछ अतिचार आदि लगे हों उनको कहना चाहिए। किन्हीं-किन्हीं संघ में आहार में जो कुछ ग्रहण किया है उन सब वस्तुओं को भी बतलाते हैं, यह भी अच्छी परम्परा है। इससे शिष्यों के स्वास्थ्य के अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु की जानकारी हो जाने से गुरु उसे अनुकूल वस्तु लेने व प्रतिकूल वस्तु न लेने आदि की शिक्षा भी देते हैं।
गोचार प्रतिक्रमण का अर्थ है-
‘‘पडिक्कमामि भंत्ते! अणेसणाए पाणभोयणाए……’’
इत्यादि दण्डक का पड़ना किन्तु अनगार धर्मामृत में इन लघु प्रतिक्रमणों को ‘दैवसिक प्रतिक्रमण’ में ही अन्तर्भूत माना गया है अत: इस समय पृथक् इस दण्डक को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।