साधु मंदिर में जाकर मध्यान्ह देववन्दना और गुरु वन्दना करके आहार को निकलते हैं ऐसा मूलाचार टीका, अनगार धर्मामृत आदि में विधान है फिर भी आजकल ९ बजे से लेकर ११ बजे तक के काल में आहार को निकलते हैं। संघ के नायक आचार्य आदि गुरु पहले निकलते हैं, उनके पीछे-पीछे क्रम से मुनि, आर्यिकायें, ऐलक, क्षुल्लक और क्षुल्लिकायें निकलते हैं अतः मंदिर में सभी संघ पहुँच जाता है तब मात्र गुरुवंदना करके भगवान् की लघु चैत्यभक्ति, लघु पंचगुरुभक्ति वंदना करके निकलते हैं। मुनिगण बायें हाथ में पिच्छी-कमंडलु लेकर दाहिने हाथ की मुद्रा को कंधे पर रखकर निकलते हैं। किसी संघ में मुनिगण दाहिने हाथ में पिच्छी और बायें हाथ में कमंडलु लेकर निकलते हैं पुनः दातार के द्वार पर पड़गाहन के बाद बायें हाथ में पिच्छी लेकर दाहिने हाथ की मुद्रा कंधे पर रख लेते हैं।
नवधा भक्ति१. पड़गाहन करना २. उच्च आसन देना ३. पाद प्रक्षालन करना ४. अष्टद्रव्य से पूजन करना ५. पंचांग नमस्कार करना ६. मनशुद्धि ७. वचनशुद्धि ८. कायशुद्धि और ९. भोजनशुद्धि कहना ये नवधा भक्ति हैं।
जब श्रावक नवधा भक्ति करके ‘‘हे स्वामिन् ! आहार ग्रहण कीजिये।’’ ऐसी प्रार्थना करके शुद्ध गरम जल से साधु के हाथ धुला देते हैं तब साधु वहीं चौके में पूर्व दिन के ग्रहण किये हुए आहार के त्यागरूप प्रत्याख्यान या उपवास की निष्ठापन क्रिया करते हैं।
जैसा कि अनगार धर्मामृत और आचारसार आदि ग्रंथों में लिखा है-
अर्थ-साधु चौके में भोजन प्रारंभ करते समय लघु सिद्धभक्ति के द्वारा पूर्व दिन के ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान या उपवास का निष्ठापन करें-त्याग कर देवें। कोई साधु मंदिर में या गुरु के पास ही सिद्धभक्ति पूर्वक प्रत्याख्यान की निष्ठापना करके आहार को जाते हैं। सो समझ में नहीं आया, ऐसा कहीं आगम में विधान नहीं है। पुनः वहीं आहार के अनंतर मुखशुद्धि करके तत्क्षण ही प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें।
साधु शीघ्र ही-भोजन के अनंतर ही आचार्य की अनुपस्थिति में-वहीं चौके में ही लघु सिद्ध भक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण कर लेवें अर्थात् अगले दिन आहार ग्रहणके पूर्व तक चतुर्विध आहार का त्याग कर देवें या अगले दिन उपवास करना है तो उपवास ग्रहण कर लेवें।
नवधाभक्ति के बाद आहार प्रारंभ करने के पहले की विधि-
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयमसिद्ध चरित सिद्धा।
ज्ञान सिद्ध दर्शन से सिद्ध, नमूँ सब सिद्धों को शिरसा।।२।।
-अंचलिका-
हे भगवन्! श्री सिद्ध भक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ जो, सम्यग् रत्नत्रय युक्ता।।१।।
अठविध कर्म रहित प्रभु ऊध्र्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयमसिद्ध चरित सिध जो।।२।।
भूत भविष्यत वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युक्ता।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।४।|
यहां ‘प्रत्याख्यान निष्ठापन’’ का अर्थ है कि जो चतुर्विध आहार का मैंने त्याग किया था उस त्याग-प्रत्याख्यान को मैं अब निष्ठापित करता हूूँ-समाप्त करता हूँ। पुनःहाथ की अंजुलि जोड़कर आहार ग्रहण करें उसके बाद शीघ्र ही मुखशुद्धि करके वहीं पर निम्न विधि करें।
पुन: ‘‘तवसिद्धे णयसिद्धे’’ इत्यादि लघु सिद्धभक्ति पढ़ें।(पुनः ‘‘अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु पंचगुरु साक्षी से मेरा अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुर्विध आहार का त्याग है।’’ ऐसा संकल्प करें।) ‘‘प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन’’ का अर्थ है कि मैं अब चतुर्विध आहार के प्रत्याख्यान-त्याग को प्रतिष्ठापित-स्वीकार करता हूँ-ग्रहण करता हूँ। पुनः श्रावक के घर से निकलकर साधु अपनी वसतिका में आकर आचार्य के समीप गवासन से बैठकर प्रत्याख्यान ग्रहण करें। सो ही कहा है-
‘‘सूरौ-आचार्यसमीपे पुनग्र्राह्यं प्रतिष्ठाप्यं साधुना। कि तत् ? प्रत्याख्यानादि।
कया? लघ्व्या सिद्धभक्त्या……….लघु योगिभक्त्यधिकया तथा वंद्यः साधुना? स सूरिः।
कया? सूरिभक्त्या। किं विशिष्टया? लघ्व्या१।’’
पुनःआचार्य के पास में बैठकर साधु लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण करें अनंतर लघु आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें। इसके प्रयोग की विधि निम्न प्रकार है-
गुरु के पास प्रत्याख्यान ग्रहण विधि–नमोऽस्तु प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां…..सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (२५ उच्छ्वास में ९ जाप्य)
‘‘तवसिद्धे णयसिद्धे’’ इत्यादि लघु सिद्धभक्ति पढ़े। नमोऽस्तु प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां…..योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।(२५ उच्छ्वास में ९ जाप्य)
इसके बाद आचार्यदेव अगले दिन के लिए प्रत्याख्यान या उपवास दे देते हैं- (अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिपूर्वकं श्वः आहारग्रहणात् प्राक्पर्यंत चतुर्विधाहारत्यागं कारयामि तव-युष्माकं।)
अनंतर सभी साधु आचार्य वंदना करते हैं-नमोऽस्तु आचार्यवंदनायां……आचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (२७ उच्छ्वास में ९ जाप्य)
लघु आचार्यभक्ति-
श्रुतजलधिपारगेभ्यः स्वपरमतविभावनापटुमतिभ्यः।
सुचरिततपोनिधिभ्यो नमो गुरुभ्यो गुणगुरुभ्यः।।१।
छत्तीसगुणसमग्गे पंचविहाचारकरणसंदरिसे।
सिस्साणुग्गहकुसले धम्माइरिये सदा वंदे।।२।।
गुरुभत्तिसंजमेण य तरंति संसारसायरं घोरं।
छिण्णंति अट्ठकम्मं, जम्मणमरणं ण पावेंति।।३।।
ये नित्यं व्रतमंत्रहोमनिरता, ध्यानाग्निहोत्राकुलाः।
गोचार प्रतिक्रमण कब और कैसे करें?-आचार्य देव की वंदना के बाद साधुवर्ग गोचार प्रतिक्रमण करें। जिनके घर में आहार हुआ है उनका नाम आदि बताकर आहार में जो कुछ अतिचार आदि लगे हों उनको कहना चाहिए। किन्हीं-किन्हीं संघ में आहार में जो कुछ ग्रहण किया है उन सब वस्तुओं को भी बतलाते हैं यह भी अच्छी परम्परा है। इससे शिष्यों के स्वास्थ्य के अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु की जानकारी हो जाने से गुरु उसे अनुकूल वस्तु लेने व प्रतिकूल वस्तु न लेने आदि की शिक्षा भी देते हैं। गोचार प्रतिक्रमण का अर्थ है-
‘‘पडिक्कमामि भंते! अणेसणाए पाणभोयणाए…...’’ इत्यादि दण्डक का प़ढ़ना किन्तु ‘‘अनगारधर्मामृत’’ में इन लघु प्रतिक्रमणों को ‘दैवसिक प्रतिक्रमण’ में ही अन्तर्भूत माना गया है अतः इस समय पृथक् इस दण्डक को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
यथा-‘‘तथा स प्रतिक्रमो निषिद्धिकेर्यालुंचाशदोषार्थश्चांतर्भवति। क्व? अपरे आह्निकादौ प्रतिक्रमे।
’’ निषिद्धिका, ईर्यापथ, लोच, गोचार और स्वप्नदोष ये लघु प्रतिक्रमण दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण में अंतर्भूत हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि लोच, रात्रिक, दैवसिक, गोचार, निषेधिकागमन, ईर्यापथ और दोष ये सात लघु प्रतिक्रमण होते हैं। इनमेें से ईर्यापथशुद्धि प्रतिक्रमण जो कि त्रिकाल देववंदना में आता है उसमें निषेधिकागमन प्रतिक्रमण गर्भित हो जाता है। दोष प्रतिक्रमण-निद्रा संबंधि प्रतिक्रमण रात्रिक में एवं लोच और गोचार प्रतिक्रमण दैवसिक में अंतर्भूत हो जाते हैं। अनगार धर्मामृत में एक प्रश्न हुआ है कि साधु गुरु के परोक्ष में ही चौके में ही प्रत्याख्यान क्यों ले लेते हैं ? उसका समाधान दिया है कि ‘‘दैवयोग से यदि कदाचित् गुरु के पास आते समय मार्ग मेें ही आयु समाप्त हो गई हो प्रत्याख्यान के बिना मृत्यु हो जाने से वह साधु विराधक-असमाधि से मरण करने वाला हो जावेगा अतः शीघ्र ही प्रत्याख्यान स्वयं ले लेना चाहिए फिर आकर गुरु के पास भी लेना चाहिए।
विशेष ज्ञातव्य-आजकल किन्हीं संघों में साधु आहार के पहले ही गुरु के पास प्रत्याख्यान निष्ठापन की भक्ति पढ़ लेते हैं और गुरु के पास ही प्रत्याख्यान का त्याग करके आहार को जाते हैं। सो यह परम्परा कैसे चालू हुई कौन जाने? यह आगमोक्त नहीं है। आचारसार में भी लिखा है कि ‘‘साधु दातार द्वारा पड़गाहन आदि नवधाभक्ति के पूर्ण हो जाने के बाद ही सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान का निष्ठापन करे पुनः आहार ग्रहण करे।’’१ क्रियाकलाप में पंडित पन्नालाल जी सोनी ने भी यही विधि लिखी है। यथा-‘‘भोजन के पहले लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास का त्याग-निष्ठापन करें और भोजन के बाद शीघ्र ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण करें। यह तो आचार्य की असमक्षता में करें। आचार्य के समीप में लघु सिद्धभक्ति, लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास धारण करें। अनन्तर लघु आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें।’’
आचारसार ग्रंथ में आहार प्रत्याख्यान की विधि-
प्रतिग्रहप्रणामाभ्यां स्थापितो योग्यदातृभिः।
तर्णवैâलकवालादीननुल्लंघ्य विशेद्गृहम्१।।११६।।
जिस घर के योग्य दाता ने प्रतिग्रह और प्रणाम करके स्थापना किया है—ठहराया है उसके घर में भैंस के छोटे बच्चे वा किसी भेड़, बकरी के छोटे बच्चे को उल्लंघन न करते हुए प्रवेश करना चाहिए।।११६।।
जिस घर में प्रकाश हो, जिस घर में लोगों का जाना आना होता रहता हो अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की रुकावट न हो, जिसमें कोई अपवित्र प्राणी न हो, जो विस्तीर्ण हो, ऊपर से ढका हो—उघड़ा हुआ न हो, जो प्रशंसनीय हो और जो सबको सम्मत वा मनोवांच्छित हो ऐसे मकान में अपने शरीर वा इंद्रियों को समेट कर आहार के लिए जाना चाहिए। वहाँ जाकर अपने योग्य आसन पर बैठ जाना चाहिए। बैठ जाने पर आहार देने वाले दाता को उचित है कि वह उन मुनिराज के चरणकमलों का प्रक्षालन करे। उस समय मुनिराज को भी ऊपर की ओर, नीचे की ओर, अगल बगल वा दिशाओं के कोणों में रक्खे रहने वाले पदार्थों पर अपनी दृष्टि नहीं डालनी चाहिए अर्थात् किसी भी ओर देखना नहीं चाहिए। तदनंतर भक्ति करने वाले उस गृहस्थ दाता के द्वारा आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करने पर जिनकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी है ऐसे उन मुनि को सिद्धभक्ति करनी चाहिए और फिर अपना प्रत्याख्यान वा पहले ग्रहण किया हुआ त्याग पूर्ण करना चाहिए। फिर उन मुनिराज को चार अंगुल के अंतर से दोनों पैरों को समान रखकर खड़ा होना चाहिए। तथा जब दाता अपने पात्र में से देने के लिए भोजन का ग्रास उठावे, तब उन मुनिराज को अपने धोए हुए दोनों हाथ नाभि से ऊपर ऊपर रखते हुए क्षेपण करना चाहिए।।११७-१२०।।
उन मुनिराज को आहार करते समय अपने दोनों हाथों का बंधन छोड़ना नहीं चाहिए। तथा बिना किसी विकार के, बिना किसी प्रकार की शीघ्रता के, बिना किसी प्रकार की पीड़ा के, बिना किसी मंदता के, बिना किसी असमर्थता के और बिना किसी शब्द के वा बिना किसी ऐसे ही अन्य कारणों के शास्त्रों में लिखी हुई विधि के अनुसार हाथों में रक्खे हुए आहार को ग्रहण करना चाहिए।।१२१।।
यावदस्ति बलं स्थातुं मिलत्येतत्करद्वयम्।
तावद्भुंजे त्यजाम्यन्यथेति संधा यतेर्यतः।।१२२।।
मुनिराज जो खड़े होकर तथा हाथ मिलाकर आहार करते हैं उसका कारण यह है कि मुनिराज के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि ‘‘जब तक मुझमें खड़े होने की शक्ति है और जब तक मेरे से दोनों हाथ मिल सकते हैं तब तक ही मैं भोजन करूँगा। जब मुझमें खड़े होने की शक्ति नहीं रहेगी तथा हाथों में मिलने की शक्ति नहीं रहेगी तब मैं आहार का सर्वथा त्याग कर दूँगा, ऐसी मुनियों के प्रतिज्ञा होती है।।१२२।।
इन श्लोक कथित अर्थ से स्पष्ट है ‘‘वर्णी पूर्णप्रतिज्ञोऽथ’’ वाक्य से बहुत ही स्पष्ट है कि वर्णी-मुनि नवधाभक्ति पूर्ण हो जाने पर पूर्व दिन के प्रत्याख्यान या उपवास का समापन लघु सिद्धभक्ति पढ़कर करें।
ऐसा मन में बोलकर ९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करके लघु सिद्धभक्ति पढ़कर खड़े होकर आहार ग्रहण करें।
पुन: आहारानंतर तत्क्षण ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें।अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां…………सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।(९ जाप्य व पूर्ववत् लघु सिद्धभक्ति पढ़कर मन में नियम करें कि अगले दिन आहार होने तक मेरे चतुर्विध आहार का त्याग है
पुन: आकर गुरु के पास दो भक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान ग्रहण करें व गुरुवंदना करें।
यही सर्व विधि अनगारधर्मामृत ग्रंथ में भी है।
अनगारधर्मामृत ग्रंथ में आहारप्रत्याख्यान की विधि-अप्रतिपन्नोपवासस्य भिक्षोर्मध्याह्नकृत्यमाह— प्राणयात्राचिर्कार्षायां प्रत्याख्यानमुपोषितम्। न वा निष्ठाप्य विधिवद्भुक्त्वा भूयः प्रतिष्ठयेत्१।।३६।। प्रतिष्ठयेत् प्रत्याख्यानमुपोषितं वा यथासामथ्र्यमात्मनि स्थापयेत्साधुः। कथम्? भूयः पुनः।किं कृत्त्वा ? भुक्त्वा भोजनं कृत्वा। किवत् ? विधिवत् शास्त्रोक्तविधानेन।किं कृत्वा ? निष्ठाप्य पूर्वदिने प्रतिपन्नं क्षमयित्वा विधिवदेव।किं तत् ? प्रत्याख्यानम्। न केवलम्, उपोषितं नवा उपवासं वा। कस्यां सत्याम्? प्राणयात्राचिकीर्षायां भोजन-करणेच्छायां जातायाम्।।
उपवास न करने वाले साधु को इस मध्याह्न के अस्वाध्याय काल में क्या करना चाहिए सो बताते हैं२— यदि भोजन करने की इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधिपूर्वक क्षमापणा करनी चाहिए और उस निष्ठापन के अनंतर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार भोजन करके अपनी शक्ति के अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान अथवा उपवास की प्रतिष्ठापना करनी चाहिए।
उक्तं च— सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुच्यते। लघ्व्यैव भोजनस्यादौ भोजनान्ते च गृह्यते।। सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते। लघ्व्या तु सूरिभक्त्यैव सूरिर्वन्द्योथ साधुना।।
प्रत्याख्यान या उपवास की निष्ठापना—समाप्ति और आगे के लिए प्रतिष्ठापन—प्रारम्भ करने की और प्रतिष्ठापन करने के अनंतर आचार्य परमेष्ठी की वंदना करनी चाहिए, अत एव उसके भी करने की विधि बताते हैं— पहले दिन जो प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण किया था उसकी निष्ठापना साधुओं को भोजन के पहले लघु सिद्धभक्ति बोलकर करनी चाहिए। यहाँ ‘‘अशनादौ भोजनारंभे’’ वाक्य पर ध्यान देना चाहिए तथा भोजन क्रिया समाप्त होते ही तत्काल पुनः सिद्धभक्ति बोलकर नवीन प्रत्याख्यान या उपवास का प्रतिष्ठापन करना चाहिए। इस प्रकार से स्वयं प्रत्याख्यानादि का प्रतिष्ठापन आचार्य परमेष्ठी के अनिकट वहीं करना चाहिए। पुनः आचार्य के पास में आकर साधुओं को भोजन के अनंतर पुनः लघु सिद्धभक्ति और योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादि का प्रतिष्ठापन करना चाहिये और लघु आचार्यभक्ति बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिए।
जैसा कि कहा भी है कि— भोजन की आदि में (नवधाभक्ति के बाद) उपवास या प्रत्याख्यान का त्याग और भोजन के अन्त में उसका ग्रहण लघु सिद्धभक्ति बोलकर ही करना चाहिए पुन: साधुओं को गुरु के पास आकर लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादि का ग्रहण करना चाहिए और लघु आचार्य भक्ति बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिए।
सद्यः प्रत्याख्यानाग्रहणे दोषमल्पकालमपि तद्ग्रहणे च गुणं दर्शयति—
प्रत्याख्यानं बिना दैवात् क्षीणायुः स्याद्विराधकः।
उत्तंरच— चण्डोऽवन्तिषु मातङ्ग किल मांसनिवृत्तितः। अप्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम्।।भोजन के अनंतर तत्काल ही (चौके में ही) प्रत्याख्यानादि ग्रहण करने के लिए जो कहा है उसका अभिप्राय स्पष्ट करने के लिए तत्काल प्रत्याख्यानादि ग्रहण न करने में दोष और थोड़ी देर के लिए उसके ग्रहण करने में महान् लाभ है ; इस बात को बताते हैं— प्रत्याख्यानादि के ग्रहण किए बिना यदि कदाचित—पूर्वबद्ध आयुकर्म के वश से वर्तमान आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिए। अर्थात् कारणवश यदि उसकी अकस्मात् मृत्यु हो जाय तो वह साधु प्रत्याख्यान से रहित होने के कारण रत्नत्रय का आराधक नहीं हो सकता। किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होने पर थोड़ी देर के लिए और थोड़ा सा ही ग्रहण किया हुआ वह प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डाल की तरह महान् फल का देने वाला हो जाता है। जैसा कि कहा भी है— उज्जयनी नगरी में एक चण्ड नामका मातङ्ग रहता था। एक दिन वह चाम की रस्सी बट रहा था, जबकि उसकी आयु पूर्ण होने में थोड़ा सा ही समय बाकी रहा था। यह बात एक ऋषिराज को मालुम हुई तब उन्होंने उसको मांस त्याग का व्रत दिया। उस मातङ्ग ने ‘‘ये मेरी चाम की रस्सी का बटना जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक के लिए मेरे मांस का त्याग है’’ ऐसा व्रत लिया। भवितव्यतानुसार रस्सी बटना पूर्ण होने के पहले ही उसका मरण हो गया। अत एव उस व्रत के प्रसाद से वह मरकर यक्षेन्द्र हुआ।
अथ प्रत्याख्यानादिग्रहणानन्तरं साधुः प्रतिक्रम्य विशोध्य। कम् ? गोचारदोषं गोवद्भोजनस्यातिचारं स्वाध्यायं विधिवद्भजेत्। क्व सति ? मध्यान्हे।किंविशिष्टे नाडीद्वयाधिके। पुनःकिंविशिष्टे ? वृत्तेऽतिक्रान्ते सति।किंवत् ? प्राण्हवत् पूर्वाण्हे यथा।प्रत्याख्यानादि ग्रहण करने के अनंतर गोचार प्रतिक्रमण—भोजनसम्बन्धी दोषों का संशोधन करना चाहिए। अतएव उसकी विधि बताते हैं— प्रत्याख्यान अथवा स्वाध्याय को अपने में स्थापित करने के बाद साधुओं को गोचारसम्बन्धी दोषों—अतीचारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए और उसके बाद पूर्वाह्न की तरह अपराह्ण काल में भी मध्यान्ह से दो घड़ी अधिक समय व्यतीत होने पर विधिपूर्वक स्वाध्याय का प्रारम्भ करना चाहिए।आचारसार ग्रंथ में प्रत्याख्यान के प्रतिष्ठापन में भक्ति- स्त: सिद्धयोगभक्ती द्वे प्रत्याख्यानेतदन्तगा। सूरिभक्तिर्भवेत्सिद्धभक्तिर्निष्ठापनेऽस्य तु१।।७१।। अन्वयार्थ-(प्रत्याख्याने) प्रत्याख्यान के प्रतिष्ठापन में (सिद्धयोगभक्ती) सिद्ध योगभक्ति (द्वे) वह दो (स्त:) होती है और (तदन्तगा) उसके अन्त में (सूरिभक्ति:) आचार्यभक्ति (भवेत्) होती है (तु) और (अस्य) इस प्रत्याख्यान के (निष्ठापने) निष्ठापन में (सिद्धभक्ति:) सिद्धभक्ति होती है। भावार्थ-प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन क्रिया में सिद्धभक्ति, योगभक्ति और आचार्यभक्ति करना चाहिए और इसके निष्ठापन में सिद्धभक्ति करना चाहिए।।७१।। मूलाचार प्रदीप में प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन की विधि- श्री सिद्धयोगभक्ती कृत्वा प्रत्याख्यानमूर्जितम्। गृहीत्वाचार्यभक्तिश्च कर्तव्या पारणाहनि२।।२३।।
अर्थ-सिद्धभक्ति और योगभक्ति पढ़कर उत्तम प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए और पारणा के दिन आचार्यभक्ति पढ़नी चाहिए।।२३।। फिर संयमियों को आत्म कल्याणार्थ शरीर की स्थिति के लिए दाता के घर मध्यान्ह के समय सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान का त्याग करना चाहिए।।२४।।
दिगम्बर जैन मुनियों की आहारचर्या एवं प्रत्याख्यान विधि
आहारचर्या उस समय साधु बायें हाथ में पिच्छी और कमण्डलु को लेकर दाहिने हाथ की मुद्रा को कंधे पर रखकर आहारमुद्रा में निकलते हैं। तब श्रावक उन्हें विधिवत् पड़गाहन कर घर में ले जाकर नवधाभक्तिपूर्वक आहार देते हैं। पड़गाहन करना, उच्चस्थान देना, पाद प्रक्षालन करना, अष्टद्रव्य से पूजन करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि तथा भोजनशुद्धि करना ये नवधाभक्ति कहलाती हैं। दान देने वाले दातार श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विवेक, निर्लोभता, क्षमा और सत्त्व इन सात गुणों से सहित होते हैं। नवधाभक्ति पूर्ण हो जाने पर जब श्रावक मुनि से आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करते हैं तब वे मुनि अपने खड़े होने की जगह और दातार के खड़े होने की जगह को ठीक से देख लेते हैं कि कोई विकलत्रय आदि जीव जंतु तो नहीं है। पुन: शुद्ध गरम प्रासुक जल से श्रावक द्वारा हाथ धुलाये जाने पर वे ‘‘पूर्व दिन के ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान या उपवास की सिद्धभक्तिपूर्वक निष्ठापना करके आहार शुरू करते हैं१।’’ अन्यत्र भी कहा है-‘‘जिस घर के योग्यदाता ने प्रतिग्रह और प्रणाम करके ठहराया है उसके घर में………दाता के द्वारा दिये गये अपने योग्य उचित आसन पर बैठ जाते हैं। दातार के द्वारा पादप्रक्षालन आदि क्रियाओं के होने के बाद, उनके द्वारा प्रार्थना की जाने पर साधु सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान का निष्ठापन करते हैं और समचतुरंगुल पाद से (पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर) खड़े होकर नाभि से ऊपर हाथ रखते हुए करपात्र में दातार द्वारा प्रदत्त आहार ग्रहण करते हैं। आहार करते समय उनके दोनों हाथ के पुट (अंजुलि)१ बंधे-मिले रहते हैं-अलग नहीं होते हैं। वे विकार मुख बिगाड़ना, अरुचि या ग्लानि आदि न करते हुए, अति शीघ्रता न करते हुए और हुँकार आदि शब्द न करते हुए आहार लेते हैं। खड़े होकर आहार ग्रहण करने में हेतु यही है कि ‘‘जब तक मुझ में खड़े होने की शक्ति है और जब तक मेरे दोनों हाथ मिल सकते हैं तभी तक मैं भोजन करूँगा, अन्यथा आहार का त्याग कर दूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा होती है।’’
आहारशुद्धि
दिगम्बर साधु संयम की रक्षा हेतु शरीर की स्थिति के लिए दिन में एक बार छयालीस दोष-चौदह मल दोष और बत्तीस अंतरायों को टाल कर आगम के अनुकूल नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। इसी को पिंडशुद्धि या आहारशुद्धि कहते हैं।१ छ्यालीस दोष दिगम्बर मुनि के आहार के छ्यालीस दोष माने हैं। ये साधु इन दोषों से अपने को दूर रखते हैं। उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, अप्रमाण, इंगाल, धूम और कारण, मुख्यरूप से आहार संबंधी ये आठ दोष माने गये हैं। १. दातार के निमित्त से जो आहार में दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष कहलाते हैं। २. साधु के निमित्त से आहार में होने वाले दोष उत्पादन नाम वाले हैं। ३. आहार संबंधी दोष एषणा दोष है। ४. संयोग से होने वाला दोष संयोजना है। ५. प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है। ६. लंपटता से आहार लेना इंगाल दोष है। ७. निन्दा करके आहार लेना धूम दोष है। ८. विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है। इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४, ऐसे १६±१६±१०±४·४६ दोष हो जाते हैं। इन सबसे अतिरिक्त एक अध:कर्म दोष है, जो महादोष कहलाता है। इसमें वूâटना, पीसना, रसोई करना, पानी भरना और बुहारी देना ऐसे पंचसूना नाम के आरंभ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसके करने वाले साधु उस साधु पद में नहीं माने जाते हैं।
उद्गम के १६ भेद
१. औद्देशिक-साधु, पाखंडी आदि के निमित्त से बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश्य दोष है।
२. अध्यधि-आहारार्थ साधुओं को आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना।
३. पूतिदोष-प्रासुक तथा अप्रासुक को मिश्र कर देना।
४. मिश्रदोष-असंयतों के साथ साधु को आहार देना।
५. स्थापित-अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना।
६. बलिदोष-यक्ष देवता आदि के लिए बने हुए में से अवशिष्ट को देना।
७. प्रावर्तित-काल की वृद्धि या हानि करके आहार देना।
८. प्राविष्करण-आहारार्थ साधु के आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन आदि माँजना।
९. क्रीत-उसी समय वस्तु खरीदकर लाकर देना।
१०. प्रामृष्य-ऋण लेकर आहार बनाना।
११. परिवर्तन-शालि आदि देकर बदले में अन्य धान्य लेकर आहार बनाना।
१२. अभिघट-पंक्तिबद्ध सात घर से अतिरिक्त अन्य स्थान से अन्नादि लाकर मुनि को देना।
१३. उद्भिन्न-भाजन के ढक्कन आदि को खोलकर अर्थात् सील मुहर चपड़ी आदि हटाकर वस्तु निकालकर देना।
१४. मालारोहण-निसैनी से चढ़कर वस्तु लाकर देना।
१५. आछेद्य-राजा आदि के भय से आहार देना।
१६. अनीशार्थ-अप्रधान दातारों से दिया हुआ आहार लेना। ये लेते हैं।
उत्पादन के १६ भेद
१. धात्री दोष-धाय के समान बालकों को भूषित करना, खिलाना, पिलाना आदि करना जिससे दातार प्रसन्न होकर अच्छा आहार देवें, यह मुनि के लिए धात्री दोष है।
२. दूत दोष-दूत के समान किसी का समाचार अन्य ग्रामादि में पहुँचाकर आहार लेना।
३. निमित्त दोष-स्वर, व्यंजन आदि निमित्त ज्ञान से श्रावकों को हानि, लाभ बताकर खुश करके आहार लेना।
४. आजीवकदोष-अपनी जाति, कुल या कला योग्यता आदि बता कर दातार को अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजीवक दोष है।
५. वनीपक दोष-किसी ने पूछा कि पशु, पक्षी, दीन ब्राह्मण आदि को भोजन देने से पुण्य है या नहीं ? हाँ पुण्य है, ऐसा दातार के अनुकूल वचन बोलकर यदि मुनि आहार लेवें तो वनीपक दोष है।
६. चिकित्सा दोष-औषधि आदि बताकर दातार को खुश कर आहार लेना।
७. क्रोध दोष-क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना।
८. मानदोष-मान करके आहार उत्पादन करा कर लेना।
९. मायादोष-कुटिल भाव से आहार उत्पादन करा कर लेना।
१०. लोभदोष-लोभाकांक्षा दिखाकर आहार करा कर लेना।
११. पूर्वसंस्तुति दोष-पहले दातार की प्रशंसा करके आहार उत्पादन करा कर लेना।
१२. पश्चात् स्तुतिदोष-आहार के बाद दातार की प्रशंसा करना।
१३. विद्या दोष-दातार को विद्या का प्रलोभन देकर आहार लेना।
१४. मंत्रदोष-मंत्र का माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना। श्रावकों को शांति आदि के लिए मंत्र देना दोष नहीं है किन्तु आहार के स्वार्थ से बताकर उनसे इच्छित आहार ग्रहण करना सो दोष है।
१५. चूर्ण दोष-सुगंधित चूर्ण आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना।
१६. मूलकर्मदोष-अवश को वश करने आदि के उपाय बताकर आहार लेना। ये सभी दोष मुनि के आश्रित होते हैं इसलिए ये उत्पादन दोष कहलाते हैं। मुनि इन दोषों से अपने को अलग रखते हैं।
एषणा संबंधी १० दोष
१. शंकित-यह आहार अध:कर्म से उत्पन्न हुआ है क्या ? अथवा यह भक्ष्य है या अभक्ष्य ? इत्यादि शंका करके आहार लेना।
२. म्रक्षित-घी, तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने चम्मच आदि से दिया हुआ आहार लेना।
३. निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी, जल आदि से संबंधित आहार लेना।
४. पिहित-प्रासुक या अप्रासुक ऐसे बड़े से ढक्कन आदि को हटा कर दिया हुआ आहार लेना।
५. संव्यवहरण-जल्दी से वस्त्र, पात्रादि खींचकर बिना विचारे या बिना सावधानी के दिया हुआ आहार लेना।
६. दायक-आहार के योग्य, मद्यपायी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त अथवा सूतक-पातक आदि से सहित दातारों से आहार लेना।
७. उन्मिश्र-अप्रासुक वस्तु संमिश्रित आहार लेना।
८. अपरिणत-अग्न्यादि से अपरिपक्व आहार पान आदि लेना।
९. लिप्त-पानी या गीले गेरु आदि से लिप्त ऐसे हाथों से दिया हुआ आहार लेना।
१०. छोटित-हाथ की अंजुलि से बहुत कुछ नीचे गिराते हुए आहार लेना। ये दश दोष मुनियों के भोजन से संबंध रखते हैं। मुनि दोषों से अपने को सदैव बचाते रहते हैं।
१. संयोजना दोष-आहारादि के पदार्थों का मिश्रण कर देना, ठंढे जल आदि में उष्ण भात आदि मिला देना, अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तु का मिश्रण करना, संयोजना दोष है।
२. अप्रमाण दोष-उदर के दो भाग रोटी आदि से पूर्ण करना होता है, एक भाग रस, दूध, पानी आदि से भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है। यह आहार का प्रमाण है, इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है।
३. अंगार दोष-जिह्वा इंद्रिय की लंपटता से भोजन ग्रहण करना। ४. धूमदोष-भोज्य वस्तु आदि की मन में निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना। इस प्रकार से उद्गम के १६ + उत्पादन के १६ + एषणा के १० + और संयोजना आदि ४ + सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं। जो पहले आठ दोषों में १ कारण दोष था वह इनसे अलग है। अब उसको बतलाते हैं- ‘‘छह१ कारणों से आहार ग्रहण करते हुए भी मुनि धर्म का पालन करते हैं और छह कारणों से ही आहार को छोड़ते हुए भी वे मुनि चारित्र का पालन करते हैं।’’
आहार ग्रहण के ६ कारण
(१)‘‘क्षुधा१ की वेदना मिटाने के लिए
(२)अपनी और अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने के लिए
(३) सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं के पालन के लिए
(४)संयम पालन के लिए
(५)अपने दश प्राणों की चिंता अर्थात् प्राणों की रक्षा के लिए और
(६)दश धर्म आदि के चिंतन के लिए मुनि आहार ग्रहण करते हुए भी धर्म का पालन करते हैं।’’ अर्थात् यदि मैं भोजन नहीं करूँगा, तो क्षुधा वेदना धर्मध्यान को नष्ट कर देगी, स्व अथवा अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने की शक्ति नहीं रहेगी सामायिकादि आवश्यक क्रियाएँ निर्विघ्नतया नहीं हो सकेंगी, षट्कायिक जीवों की रक्षारूप संयम नहीं निभेगा, अपने इंद्रिय, बल, आयु प्राणों की रक्षा के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं होगी और आहार के बिना दश धर्मादि का पालन भी कैसे होगा ? यही सोचकर साधु आहार ग्रहण करते हैं।
आहार त्याग के ६ कारण
(१)‘‘१आकस्मिक व्याधि के आ जाने पर
(२)भयंकर उपसर्ग के आ जाने पर
(३) ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा हेतु
(४) जीवन दया हेतु
(५) अनशन आदि तप करने के लिए और
(६)संन्यास काल के उपस्थित होने पर मुनि आहार का त्याग कर देते हैं।’’
दिगम्बर मुनि बल और आयु की वृद्धि के लिए, स्वाद के लिए, शरीर की पुष्टि या शरीर के तेज के लिए आहार ग्रहण नहीं करते हैं प्रत्युत ज्ञान की वृद्धि, संयम की वृद्धि और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं। ये मुनि नवकोटि से विशुद्ध, ब्यालीस दोषों से रहित, संयोजना दोष से शून्य, प्रमाण सहित और विधिवत्-नवधा भक्ति से प्रदत्त, अंगार धूम दोष से भी हीन, छह कारण संयुक्त, क्रम विशुद्ध और प्राणयात्रा या मोक्ष यात्रा के लिए भी साधन मात्र तथा चौदह मल दोषरहित ऐसा आहार ग्रहण करते हैं। श्रावकों के द्वारा आहार बनाने में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति नहीं करना और कृत, कारित या अनुमोदना भी नहीं करना, इस प्रकार से मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणित करने पर ३² ३ = ९-नव भेद हो जाते हैं। नवकोटि से रहित आहार ‘नवकोटिविशुद्ध’ कहलाता है। श्री कुंदकुंददेव ने इसी बात को स्पष्ट किया है। यथा- ‘‘उद्गम, उत्पादन और एषणा के १६ + १६ + १० = ४२ भेद होते हैं। संयोजना, अंगार, धूम दोषों से रहित तथा प्रमाण युक्त आहार होना चाहिए। उपर्युक्त छह कारणों से सहित हो, उत्क्रम से हीन हो तथा मोक्षयात्रा के लिए साधनमात्र है२।’’ श्रावकोें के श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्त्व-शक्ति ये सात गुण हैं तथा पड़गाहन करना, उच्चासन देना, चरण प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचन शुद्धि और काय की शुद्धि कहना और आहार की शुद्धि कहना, यह नवधा भक्ति है। इन सप्तगुणसहित, नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया आहार विधिवत् कहलाता है। ऐसे विधिवत् दिये गये आहार को वे मुनि ग्रहण करते हैं तथा चौदह मल दोष रहित आहार लेते हैं।
चौदह मल दोष
आहार में नख, बाल, हड्डी, मांस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का कलेवर, कण१, कुंड२, बीज, कंद, मूल और फल। इनमें से कोई महामल हैं, कोई अल्पमल हैं, कोई महादोष हैं और कोई अल्पदोष है। रुधिर, मांस, अस्थि, चर्म और पीप ये महादोष हैं, आहार में इनके दीखने पर आहार छोड़कर प्रायश्चित्त भी लिया जाता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का शरीर-मृतक लट, चिंवटी, मक्खी आदि तथा बाल के आहार में आ जाने पर आहार का त्याग कर दिया जाता है। नख के आ जाने पर आहार छोड़कर गुरु से विंâचित् प्रायश्चित्त भी लेना होता है। कण, कुण्ड, बीज, कंद, फल और मूल के आहार में आ जाने पर यदि उनको निकालना शक्य है, तो निकालकर आहार कर सकते हैं अन्यथा आहार का त्याग करना होता है। सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि अपने शरीर में रक्त, पीप बहने लगे अथवा दातार के शरीर में बहने लगे, तो आहार छोड़ देना होता है। मांस के देखने पर भी उस दिन आहार का त्याग कर दिया जाता है। द्रव्य से प्रासुक आहार भी यदि मुनि के लिए बनाया गया हे, तो वह अशुद्ध है। इसलिए ज्ञात कर ऐसा आहार मुनि नहीं लेते हैं। ‘‘जैसे मत्स्य के लिए किये गये मादक जल से मत्स्य ही मदोन्मत्त होते हैं किन्तु मेंढक नहीं, वैसे ही पर के लिए बनाये हुए आहार में प्रवृत्त हुए मुनि उस दोष से आप लिप्त नहीं होते हैं। अर्थात् गृहस्थ अपना कत्र्तव्य समझकर शुद्ध भोजन बनाकर साधु को आहार देते हैं तब मुनि अपने रत्नत्रय की सिद्धि कर लेते हैं और श्रावक दान के फल स्वर्ग मोक्ष को सिद्ध कर लेते हैं। यदि आहार शुद्ध है फिर भी यदि साधु अपने लिए बना हुआ समझ कर उसे ग्रहण करता है, तो वह दोषी है और यदि कृत, कारित आदि दोष रहित आहार लेने के इच्छुक साधु को अध:कर्मयुक्त-सदोष भी आहार मिलता है, किन्तु उसे वह साधु बुद्धि से ग्रहण कर रहा है, तो वह साधु शुद्ध है३।’’ अन्यत्र भी कहा है-यदि मुनि मन, वचन, काय से शुद्ध होकर तथा आलस को छोड़कर शुद्ध आहार को ढूंढ़ता है, तो फिर कहीं पर अध:कर्म होने पर भी वह साधु शुद्ध ही कहा जाता है। शुद्ध आहार को ढूँढने से अध:कर्म से उत्पन्न हुआ अन्न भी उस साधु के कर्मबंध करने वाला नहीं है१।’’
आहार का काल
‘‘सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पहले तक आहार२ का समय है। ‘‘आहार काल में भी आहार का समय उत्कृष्ट एक मुहूर्त (४८ मिनट) मध्यम दो मुहूर्त और जघन्य तीन मुहूर्त प्रमाण तक है३।’’ मध्यान्ह काल में दो घड़ी बाकी रहने पर प्रयत्नपूर्वक स्वाध्याय समाप्त कर, देववंदना करके वे मुनि भिक्षा का समय जानकर पिच्छी, कमण्डलु लेकर शरीर की स्थिति हेतु आहारार्थ अपने आश्रम से निकलते हैं। मार्ग में संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति का चिंतन करते हुए ईर्यापथ शुद्धि से धीरे-धीरे गमन करते हैंं। वे किसी से बात न करते हुए मौनपूर्वक चलते हैं। श्रावक द्वारा पड़गाहन हो जाने पर वे खड़े हो जाते हैं तब श्रावक उन्हें अपने घर ले जाकर नवधाभक्ति करता है। अनंतर मुनि अपने पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर खड़े होकर अपने दोनों करपात्रों को छिद्र रहित बना लेते हैं। अनंतर सिद्धभक्ति करके क्षुधा वेदना को दूर करने के लिए वे प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं।
आहार में पाँच प्रकार की वृत्ति
‘‘गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रमणाहार, भ्रामरीवृत्ति और श्वभ्रपूरण, इन पाँच प्रकार की वृत्ति रखकर मुनि आहार ग्रहण करते हैं४।’’ जैसे गाय को घास देने वाली स्त्री चाहे सुन्दर हो या असुन्दर, वह गाय स्त्री की सुन्दरता अथवा वस्त्राभूषणों को न देखकर मात्र अपनी घास पर दृष्टि रखती है। वैसे ही मुनि भी अन्न, रस, स्वादिष्ट व्यंजन आदि की इच्छा न रखते हुए दाता के द्वारा प्रदत्त प्रासुुक आहार ग्रहण कर लेते हैं यह गौ के आचरणवत् गोचर या गोचरी वृत्ति कहलाती है। जैसे कोई वैश्य रत्नों से भरी गाड़ी के पहियों की धुरी में थोड़ी सी चिकनाई (ओंगन) लगाकर अपने इष्ट देश में ले जाता है। वैसे ही मुनिराज भी गुणरत्नों से भरी इुई शरीररूपी गाड़ी को ओंगन के समान थोड़ा सा आहार देकर आत्मा को मोक्षनगर तक पहुँचा देते हैं। इनको अक्षम्रक्षणवृत्ति कहते हैं। जैसे कोई वैश्य रत्नादि से भरे भांडागार में अग्नि के लग जाने पर शीघ्र ही किसी भी जल से उसे बुझा देता है। वैसे ही साधु भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नों की रक्षा हेतु उदर में बढ़ी हुई क्षुधारूपी अग्नि के प्रशमन हेतु सरस वा नीरस कैसा भी आहार ग्रहण कर लेते हैं। इसे उदराग्निप्रशमन वृत्ति कहते हैं। जैसे भ्रमर अपनी नासिका द्वारा कमलगंध को ग्रहण करते समय कमल को किंचिन्मात्र भी बाधा नहीं पहुँचाता है। वैसे ही मुनिराज भी दाता के द्वारा दिये गये आहार को ग्रहण करते समय उन्हें किंचित् भी पीड़ित नहीं करते हैं। इसको भ्रामरीवृत्ति कहते हैं। इस प्रकार से आहार ग्रहण करते हुए यदि बत्तीस अंतरायों में से कोई भी अन्तराय आ जाये, तो वे आहार छोड़ देते हैं। जो दाता और पात्र दानों के मध्य में विघ्न आता है, वह अन्तराय कहलाता है।
बत्तीस अन्तराय
१. काक-आहार को जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि वीट कर देवे, तो काक नाम का अन्तराय है।
२. अमेध्य-अपवित्र विष्ठा आदि से पैर लिप्त हो जावे।
३. छर्दि-वमन हो जावे।
४. रोधन-आहार के जाते समय कोई रोक देवे।
५. रक्तस्राव-अपने शरीर से या अन्य के शरीर से चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुआ दीखे।
६. अश्रुपात-दु:ख से अपने या पर के अश्रु गिरने लगे।
७. जान्वध: परामर्श-यदि मुनि जंघा के नीचे के भाग का स्पर्श कर लें।
८. जानूपरिव्यतिक्रम-यदि मुनि जंघा के ऊपर का व्यतिक्रम कर लें अर्थात् जंघा से ऊँची सीढ़ी पर-इतनी ऊँची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़ें, तो जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय है।
९. नाभ्योनिर्गमन-यदि नाभि से नीचे शिर करते आहारार्थ जाना पड़े।
१०. प्रत्याख्यात सेवन-जिस वस्तु का देव या गुरु के पास त्याग किया है, वह खाने में आ जाये।
११. जंतुवध-कोई जीव अपने सामने किसी जीव का वध कर देवे।
१२. काकादि पिंडहरण-कौवा आदि हाथ से ग्रास का अपहरण कर लें।
१३. ग्रासपतन-आहार करते समय मुनि के हाथ से ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे।
१४. पाणौ जंतुवध-आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खी आदि जन्तु हाथ में मर जावे।
१५. मांसादि दर्शन-मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेने से अन्तराय है।
१६. पादांतर जीव-यदि आहार लेते समय पैर के नीचे से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जाये।
१७. देवाद्युपसर्ग-आहार लेते समय, देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि उपसर्ग कर देवें।
१८. भाजनसंपात-दाता के हाथ से कोई बर्तन गिर जाये।
१९. उच्चार-यदि आहार के समय मल विसर्जित हो जावे।
२०. प्रस्रवण-यदि आहार के समय मूत्र विसर्जन हो जावे।
२१. अभोज्य गृह प्रवेश-यदि आहार के समय चांडालादि के घर में प्रवेश हो जावे।
२२. पतन-आहार करते समय मूर्धा आदि गिर जाने पर।
२३. उपवेशन-आहार करते समय बैठ जाने पर।
२४. सदंश-कुत्ते बिल्ली आदि के काट लेने पर।
२५. भूमिस्पर्श-सिद्धभक्ति के अनन्तर हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर।
२६. निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर।
२७. वस्तुग्रहण-आहार करते समय हाथ से कुछ वस्तु उठा लेने पर।
२८. उदर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदर से कृमि आदि निकलने पर।
२९. अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई किंचित् वस्तु ग्रहण कर लेने पर।
३०. प्रहार-अपने ऊपर या किसी के ऊपर शत्रु द्वारा शस्त्रादि का प्रहार होने पर।
३१. ग्रामदाह-ग्राम आदि में उसी समय आग लग जाने पर।
३२. पादेन किंचिद्ग्रहण-पाद से किंचित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर। इन उपर्युक्त कारणों से आहार छोड़ देने का नाम ही अन्तराय है। इसी प्रकार से इन बत्तीस के अतिरिक्त चांडालादि स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक-संन्यासपतन, राज्य में किसी प्रधान का मरण आदि प्रसंगों से भी अन्तराय होता है। अन्तराय के अनन्तर साधु आहार छोड़कर मुख शुद्धि कर आ जाते हैं। मन में वे किंचित् भी खेद या विषाद को न करते हुए ‘‘लाभादलाभो वरं’’ लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक कर्मनिर्जरा होती है, ऐसा चिंतन करते हुए, वैराग्य भावना को वृद्धिंगत करते रहते हैं।