मानव—जीवन में शुद्ध अन्न सेवन का बड़ा महत्व है। उत्तम निरोगी और स्वस्थ जीवन के लिए शुद्ध आहार की जरूरत है—
सर्वेषामेव शौचानामन्नशौचं विशिष्यते।
(बृहस्पति)
सब प्रकार की शुद्धि में अन्नशुद्धि सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि अन्न से शरीर, मन और प्रज्ञा उत्पन्न होती है; इसलिये अन्न शुद्धि और आहारशुद्धि आवश्यक मानी गयी है। आज लोग जो अन्न सेवन करते हैं, इनमें शुद्धि—अशुद्धि का ख्याल ही नहीं रखते हैं। उसका बुरा असर युवा पीढ़ी पर पड़ा है। इसलिये हर एक को अन्न और आहारशुद्धि को अग्रस्थान देना चाहिए।
शुद्ध सात्त्विक आहार की जरूरत
अन्न से जैसे शरीर, मन और प्रज्ञा का निर्माण होता है, वैसे ही अन्न के स्थूलरूप से पुरीष (मल), इसके सूक्ष्मभाग से रक्त और सूक्ष्मेतर भाग से मन तैयार होता है। नीतिशास्त्र का वचन है—’
जैसे दीप अन्धकार का भक्षण करता है और कज्जल उत्पन्न करता है, वैसे ही मनुष्य जिस प्रकार का अन्नसेवन करता है, उसी प्रकार की अपत्य (संतान)— को जन्म देता है। मनुष्य जो आहार— अन्नसेवन करता है, उससे पुरूष के शरीर में ‘ शुक्रजन्तु’ और स्त्री के शरीर में ‘आर्तव’ यानी ‘स्त्रीबीज’ निर्मित होते हैं और स्त्री—पुरूष संयोग से अपत्य का जन्म होता है। माता—पिता जो अन्न सेवन करते हैं, उस अन्न से सात्विक, राजस, तामस— तीन प्रकार के गुण अपत्य में संक्रमित होते हैं ; इसलिये जीवन में शुद्ध अन्नसेवन की आवश्यकता है। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषि कहते हैं— ‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:।’ अत: हम जो आहार सेवन करें, वह शुद्ध होना चाहिए, इससे अन्त:करण की शुद्धि होती है। जब अन्त:करण —मन शुद्ध होता है तब सद्विवेक का निर्माण होता है। इससे मनुष्य सदाचारी होता है और उसका शरीर एवं मन स्वस्थ रहता है तथा उसे जीवन में सुख और शान्ति का लाभ होता है। अस्तु, स्वस्थ समाज के लिए शुद्ध अन्न का सेवन करना आवश्यक है।
शुद्ध सात्विक आहार का शास्त्रीय स्वरूप— मनुस्मृति में मनुमहाराज कहते हैं— ‘ अन्नं ब्रह्म इत्युपासीत।’ अन्न ब्रह्म है— यह समझकर उसकी उपासना करनी चाहिए। महाराष्ट्रीय संत समर्थ रामदास बोलते हैं, अन्न क्या समझकर लेना।
”‘उदर—भरण नो हे जाणीजे यज्ञ कर्म।‘’
जो अन्न सेवन करते हैं, वह एक यज्ञकर्म है, केवल उदर—भरण नहीं है, केवल पेट भरना नहीं है। अन्न सेवन करना केवल क्षुधा—निवृत्ति नहीं है। ब्रह्म की यज्ञ—उपासना समझकर अन्न सेवन करो। पवित्र कार्य समज्ञकर अन्न—सेवन करना चाहिए। आहार अन्न कैसा लेना है, मनुमहाराज कहते हैं:—
दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख—इन पाँचों अंगों को जल से स्वच्छ करके नित्य सावधान होकर आहार—सेवन करना चाहिए। भोजन के उपरांत भली प्रकार आचमन करना चाहिए तथा जल के द्वारा छहों छिद्रों (दो नासाछिद्र, दो आँख और दो कान)— का स्पर्श करना चाहिए। नित्य पहले भोजन का पूजन करना चाहिए। भोजन को देखकर हर्षयुक्त होना चाहिए और प्रसन्नतापूर्वक उसका अभिनन्दन करना चाहिए। अन्न ब्रह्मा है, रस विष्णु है और खाने वाला महेश्वर है— यह समझकर अन्न सेवन करो तो विश्वचक्र में संतुलन रहता है।अ
न्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वर: ।
दूसरी बात ऐसी है कि भगवान् को भोग न लगा हुआ अन्न विष्ठा समान है और जल मूत्र के तुल्य बन जाता है—
अन्नं विष्ठा जलं मूत्रं यद्विष्णोरनिवेदितम् ।
(ब्रह्मवैवर्त ब्रह्मखण्ड २७।६)
इसलिये आहारशुद्धि के लिए भगवान् के प्रति शुद्धभाव चाहिए, हर—एक दिन भगवान् को भोग (नैवेद्य) समर्पण करके ही आहार—सेवन करना चाहिए। इसी में भाव की शुद्धि है। भगवान् ने इस भोजन—आहार को ग्रहण कर लिया है, अब यह पदार्थ शुद्ध—पवित्र हो गया है, वही हम सेवन करें— यही हमारा भाव होना चाहिए। स्कन्दपुराण में कहा गया है कि बिना स्नान किये भोजन करना मल खाने के तुल्य है, बिना जप किये भोजन करना पीप—रूधिर खाने के समान है, बिना हवन किये भोजन करने वाला कृमिभोक्ता होता है तथा बिना दान दिये भोजन करने वाला विष्ठाभक्षक होता है—
जीवन—स्वास्थ्य के लिए पवित्र आहार—सेवन करने का यह शास्त्रीय स्वरूप ध्यान में लेना चाहिए। आहार सेवन में सावधानी रखनी चाहिए— अन्न—आहार दिखने में उत्तम, सुन्दर और स्वादिष्ट हो तो भी वह पवित्र और शुद्ध है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। धर्म का प्रथम साधन शरीर को निरोग रखना है। इसलिये कौन—सा अन्न सेवन नहीं करना चाहिए, यह ध्यान में रखना चाहिए। शास्त्रीय दृष्टि से कतिपय दूषित अन्नों का विवरण इस प्रकार है।
१- आश्रयदुष्ट— किसी के भी द्वारा—वशेषत: दुष्ट व्यक्ति द्वारा और जहां—कहीं भी तैयार किया हुआ आहार आश्रयदुष्ट आहार है, उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।
२- कालदुष्ट—कल का आहार आज लेना अथवा असमय बनाया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। ऐसे आहार की कालदुष्ट संज्ञा है।
३- भावदुष्ट—बुरी भावना से बनाया हुआ अन्न भावदुष्ट होता है, ऐसा अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए।
४- स्वभावदुष्ट—कुछ पदार्थो का अलग गुण—धर्म है, वह पदार्थ सेवन ही नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए प्याज, लहसुन अथवा एक बार पकाने के बाद फिर गरम किया पदार्थ अपनी गंधविशेष के कारण स्वभावदुष्ट बन जाता है।
५- वाग्दुष्ट—अन्न बनाते समय अगर दुर्वचन बोलते हुए खाद्यसामग्री पकायी जाय तो ऐसा आहार वाग्दुष्ट होता है, ऐसा आहार हानिकर होता है।
६- संसर्गदुष्ट— भोज्य पदार्थ तैयार करने वाला मनुष्य बीमार हो अथवा पदार्थ विषमय हो अथवा किसी पशु—पक्षी ने स्पर्श किया हो तो ऐसा पदार्थ नहीं सेवन करना चाहिए। ऐसा आहार संसर्गदुष्ट कहा गया है। निष्कर्षत: मन, शरीर, इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के लिए शुद्ध आहार सेवन की जरूरत है। इसीलिए ऊपर लिखे हुए प्रकार के अन्न— आहार सेवन न करने की सावधानी रखनी चाहिए। श्रुतिवचन है कि अन्न की कभी भी निन्दा मत करो, ‘अन्न’ न परिचक्षीत’ (तैत्तिरीयोपनिषद्) अन्न का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए, यह व्रत है—
हरिनाम— संकीर्तन सभी रोगों का उपशमन करने वाला, सभी उपद्रवों का नाश करने वाला और समस्त अरिष्टों की शान्ति करने वाला है। अत: हरिनाम— संकीर्तन करके ही आहार तैयार करना चाहिए और सेवन करते समय भी हरिनाम लेकर ही भोजन करना चाहिए— ऐसा करने से आहार शुद्ध—सात्विक हो सकता है।’