२२ अक्टूबर सन् १९३४, शरदपूर्णिमा के दिन टिकैतनगर ग्राम (जि. बाराबंकी, उ.प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी के दांपत्य जीवन के प्रथम पुष्प के रूप में ‘‘मैना’’ का जन्म परिवार में नवीन खुशियाँ लेकर आया था। माँ को दहेज मे प्राप्त‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रन्थ के नियमित स्वाध्याय एवं पूर्वजन्म से प्राप्त दृढ़ वैराग्य संस्कारों के बल पर मात्र १८ वर्ष की अल्प आयु में ही शरद पूर्णिमा के दिन मैना ने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सन् १९५२ में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रतरूप सप्तम प्रतिमा एवं गृहत्याग के नियमों को धारण कर लिया । उसी दिन से इस कन्या के जीवन में २४ घंटे में एक बार भोजन करने के नियम का भी प्रारंभीकरण हो गया । नारी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था आर्यिका दीक्षा की कामना को अपनी हर साँस में संजोये ब्र. मैना सन् १९५३ में आचार्य श्री देशभूषण जी से ही चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र में ‘क्षुल्लिका वीरमती’ के रूप में दीक्षित हो गईं । सन् १९५५ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की समाधि के समय कुंथलगिरी पर एक माह तक प्राप्त उनके सान्निध्य एवं आज्ञा द्वारा ‘क्षुल्लिका वीरमती’ ने आचार्य श्री के प्रथम पट्टाचार्य शिष्य-वीरसागर जी महाराज से सन् १९५६ में ‘वैशाख कृष्णा दूज’ को माधोराजपुरा (जयपुर-राज.) में आर्यिका दीक्षा धारण करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया। आर्यिकाशिरोमणि गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमतीमाताजी” का पूरा परिचय पढ़ें…
नाम- प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
दीक्षा पूर्व नाम- ब्र. कु. माधुरी शास्त्री
जन्मतिथि- १८-५-१९५८ (ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या)
जन्मस्थान- टिकैतनगर (बाराबंकी) उ.प्र.
माता-पिता- श्रीमती मोहिनी देवी एवं श्री छोटेलाल जी जैन
भाई- चार (कर्मयोगी पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी, कैलाशचंद, स्व. प्रकाशचंद, सुभाषचंद)
बहन- आठ (गणिनी आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी एवं आर्यिका श्री अभयमती माताजी सहित)
ब्रह्मचर्य व्रत- २५ अक्टूबर १९६९ ( शरदपूर्णिमा ) को जयपुर चातुर्मास में २ वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत एवं सन् १९७१, अजमेर में आजन्म ब्रह्मचर्य सुगंधदशमी को गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से
धार्मिक अध्ययन- १९७२ में सोलापुर से ‘‘शास्त्री’’ की उपाधि, १९७३ में ‘‘विद्यावाचस्पति’’ की उपाधि
द्वितीय एवं सप्तम प्रतिमा के व्रत- सन् १९८१ एवं १९८७ में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से
आर्यिका दीक्षा- हस्तिनापुर में १३-८-१९८९, श्रावण शु. ११ को गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से
प्रज्ञाश्रमणी की उपाधि- १९९७ में चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान के पश्चात् राजधानी दिल्ली में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा
पीएच.डी. की मानद उपाधि- तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय मुरादाबाद द्वारा ८ अप्रैल २०१२ को विश्वविद्यालय में
साहित्यिक योगदान- चारित्रचन्द्रिका, तीर्थंकर जन्मभूमि विधान, नवग्रहशांति विधान, भक्तामर विधान, समयसार विधान आदि लगभग 200 से अधिक पुस्तकों का लेखन, वर्तमान में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा ‘‘षट्खण्डागम (प्राचीनतम जैन सूत्र ग्रंथ) एवं ‘‘भगवान ऋषभदेव चरितम्’’ की संस्कृत टीकाओं का हिन्दी अनुवाद कार्य, ‘समयसार’ एवं ‘कुन्दकुन्दमणिमाला’ का हिन्दी पद्यानुवाद, भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोष, जैन वर्शिप (अंग्रेजी में पूजा, भजन, बारहभावना आदि), भजन (लगभग १०००), पूजन, चालीसा, स्तोत्र इत्यादि लेखन की अद्भुत क्षमता, हिन्दी भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी, संस्कृत आदि भाषाओं की सिद्धहस्त लेखिका, गणिनी ज्ञानमती गौरव ग्रंथ एवं भगवान पार्श्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि ग्रंथ की प्रधान सम्पादिका ।
समाज में सामान्य श्रावकों की संख्या एवं भूमिका अवश्य ही समाज के विकास के लिए लाभदायक सिद्ध होती है। लेकिन कुछ अद्भुत प्रतिभासम्पन्न विरले महामनाओं की खोज की जावे, तो समाज में ऐसे पुरुष जिन्हें महापुरुष की संज्ञा दी जा सकती है, वे बहुत कम संख्या में ही मिलते हैं। यह बात भी निश्चित है कि हर काल एवं समय में समाज, धर्म एवं संस्कृति के उत्थान हेतु ऐसे महानुभावों का अस्तित्व अवश्य ही देखने को मिलता है। इसी श्रृँखला में इस वर्तमानकालीन युग को भी अनेक विभूतियाँ प्राप्त हुर्इं और इस बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी में भी अनेक निष्काम सेवा के धनी महानुभावों ने समाज की सेवा करके इसका विकास किया। इस शृँखला में बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज का महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस समाज द्वारा कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है क्योंकि उन्होंने जैन संस्कृति के संरक्षण में जो अवदान दिये हैं, वे सदा अतुल्य ही रहेंगे। आगे इसी परम्परा के चमकते सितारे के रूप में हमें पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी का वरदहस्त प्राप्त हुआ और उनके द्वारा वर्तमान में की गई धर्मप्रभावना एवं संस्कृति संरक्षण के कार्य समाज के समक्ष उपस्थित हैं। ऐसी पूज्य माताजी के उपकारों से भी यह समाज कभी उऋण नहीं हो सकता। और भी धर्म के प्रति विभिन्न समर्पित व्यक्तित्वों ने अपना समाज विकास हेतु योगदान दिया, उनमें एक हैं स्वस्तिश्री कर्मयोगी पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी।
तकनीकी प्रबंधक
सयंम जैन
संघ के सदस्य
ब्रह्मचारिणी कु० बीना बहनजी
कु. बीना जैन
कु. बीना का जन्म कानपुर (उ.प्र.) में १५ दिसम्बर १९६९ में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती कुमुदनी देवी और पिता का नाम स्व. श्री प्रकाशचंद जैन है। यह आपका सौभाग्य ही है कि आपको विरासत में ही धर्म के संस्कार प्राप्त हुए हैं और परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की भानजी होने का गौरव प्राप्त है। इनका गोत्र गर्ग है तथा इनके २ भाई व २ बहनें हैं। आपको १३ वर्ष की बाल्यावस्था में ही पूज्य माताजी के संघ का संपर्क प्राप्त हुआ। प्रारंभ में ५ वर्ष का ब्रह्मचर्यव्रत लेकर संघ में रहने के पश्चात् ३१ मई सन् १९८९ को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया, पुन: १५ अक्टूबर १९८९ को दो प्रतिमा एवं सन् १९९४ में सप्तम प्रतिमा ग्रहण की। लौकिक शिक्षा हाईस्कूल तक प्राप्त की एवं धर्म में शास्त्री एवं आचार्य प्रथम खण्ड की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं। धार्मिक अध्ययन के साथ-साथ गुरु सेवा-वैयावृत्ति-संघ व्यवस्था आदि में निरन्तर सजग रहते हुए वर्तमान में पूज्य माताजी की छत्रछाया में साधनारत हैं।
ब्रह्मचारिणी कु० अलका बहनजी
ब्र. कु. अलका जैन
कु. अलका का जन्म भी अवध प्रान्त के टिकैतनगर ग्राम में १० नवम्बर १९७७ को हुआ। आपके पिता का नाम श्री कोमलचंद जैन एवं माता का नाम श्रीमती शशि जैन है। आपका गोत्र गर्ग है एवं आपके १ भाई व ३ बहनें हैं। पूज्य माताजी के सन् १९९४ में टिवैतनगर चातुर्मास के मध्य आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया। ३ फरवरी १९९५ को अयोध्या तीर्थक्षेत्र पर २ प्रतिमा एवं मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के मध्य मई १९९६ में ७ प्रतिमा ग्रहण की। लौकिक शिक्षा इण्टरमीडिएट एवं धार्मिक शिक्षा विशारद तक की है। गुरु के चरण सानिध्य में धर्माराधनापूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए गुरु सेवा-वैयावृत्ति में सतत संलग्न हैं।
ब्रह्मचारिणी कु० दीपा बहनजी
ब्रह्मचारिणी कु० श्रेया बहनजी
ब्रह्मचारिणी कु० सुरभि बहनजी