धर्मतीर्थस्य कर्तृणां, स्तुत्वा नामानि भक्तित:।
पुन: पुन: नमस्यामि, तांस्तान् सर्वान् जिनान् मुदा।।१।।
स्मरामि च पुनर्नित्यं, आश्रयामि भजाम्यपि।
आराधयामि भक्त्याहं, वंदे पुन: पुन: स्तुवे।।२।।
पंचसंसार-निर्मुक्तान्, पंचमीगतिमाश्रितान्।
पंचमज्ञानसंपन्नान्, पंचकल्याणनायकान्।।३।।
पंचाजवंजवान्मुक्त्यै, पंचांगेन नमाम्यहं।
पंचमज्ञानसंसिद्ध्यै, पंचमीगतिलब्धये।।४।।
यावदीदृगवस्था मे, न स्यात्तावत् जिनेश्वरा:।
युष्मत्पादकमलानि, तिष्ठंतु मे मनोम्बुजे।।५।।
रंरम्येत मनोऽपि मे, युष्मद् पादाम्बुजेष्विति।
यथा तथा च स्वप्नेऽपि, गच्छेदन्यत्र न क्वचित्।।६।।
एतां स्तुतिं पठेत् यौऽसौ, सर्वकल्याणभाक् पुन:।
पंचकल्याणमप्याप्य, धर्मतीर्थाधिपो भवेत्।।७।।
अनंतानंतकालं स:, परमानंदसद्मनि।
केवलज्ञानमत्यामा, लक्ष्म्या नित्यं सुखी वसेत्।।८।।
इन धर्मतीर्थ कर्ताओं की भक्ती से नामावलि पढ़ के।
मैं पुन: पुन: उन सब जिनवर को नमूं हर्ष मन में धर के।।
पुनरपि नितप्रति स्मरण करूँ, आश्रय लेऊँ संस्तवन करूँ।
भक्ती से आराधूं पुनरपि, प्रणमन वंदन औ नमन करूँ।।१।।
जो पांच परावृत मुक्त हुये, पंचम गति को भी प्राप्त हुये।
औ पंचम ज्ञान सहित पाँचों-कल्याणक के भी नाथ हुये।।
मैं पांच परावृत मुक्ति हेतु, पंचम वर ज्ञान के पाने को।
औ पंचम सिद्धगती हेतू, पंचांग नमूं नितप्रति उनको।।२।।
जब तक शिवगती न हो मेरी, तब तक मेरे मन अंबुज में।
हे प्रभो! आपके चरण कमल, नित तिष्ठें यही आश चित में।।
मेरा मन भी बस आप पाद-कमलों में अतिशय रमा रहे।
इस विध कि स्वप्न में भी अन्यत्र, किंह जाने से बस बचा रहे।।३।।
इस विध जो यह संस्तुति पढ़ते, वे सर्व कल्याणों को पाते।
पुनरपि पांचों कल्याण पाय, वृष तीर्थाधिप भी बन जाते।।
वे काल अनंतानंतों तक, परमानंदालय में जाके।
निज केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी, के साथ रहें नित सुख पाके।।४।।