इष्टोपदेश में वर्णित एकत्वविभक्त आत्मा – प्रश्नोत्तरी
भारतीय साहित्य की समृद्धि में जैनाचार्यों का योगदान उल्लेखनीय है। आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में मुख्य रूप से दो प्रकार की विचारधारायें भारत के प्राचीन मनीषियों में प्रचलित रही हैं। एक विचारधारा में आत्मा के अस्तित्व को मूलभूत सम्य माना गया और उसकी पूर्ण विकसित अवस्था को परमात्मा कहा गया। दूसरी विचारधारा में परमात्मा को वास्तविक सत्य कहा गया है और विभिन्न दृश्यमान आत्माओं को परमात्मा का बिम्ब बताया गया है। पहली परम्परा के प्रतिष्ठापक हैं श्रमण और दूसरी के वैदिक ऋषि। जैन आचार्यों में कुन्दकुन्द का नाम विश्रुत है और उनका समयसार ग्रन्थ अध्यात्म का आकर ग्रन्थ है। उन्होंने इस ग्रन्थ में एकत्व विभक्त आत्मा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है।
अर्थात् मैं उस एकत्वविभक्त आत्मा के निज वैभव द्वारा प्रदर्शित कर रहा हूँ यदि उस वैभव को दखलाने में कहीं चूक जाऊँ तो छल नहीं ग्रहण कर लेना। आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में पूज्यपाद आचार्य बहुश्रुत प्रज्ञा में पारगामी मनीषी हैं जिनका तप:पूत प्रज्ञा से अनेक ग्रंथों का सृजन हुआ जो साहित्य, व्याकरण, दर्शन और अध्यात्म के अनुपम रत्न हैं। उनकी सुप्रसिद्ध कृति इष्टोपदेश अध्यात्मपरक रचना है जो जीवों को सार्थक जीवन की कला सिखाकर अध्यात्म सागर में निमज्जित कर भवसागर से पार उतारती है। इसके अध्ययन से संसार एवं देह और आत्मा का भेदविज्ञान ज्ञात होता है।
यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकाराकम् । यद्देहस्मोपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् । इष्टोपदेश १९
जो कार्य आत्मा का उपकार करने वाला है, वह शरीर का अपकार करने वाला है तथा जो शरीर का उपकार करने वाला है, वह आत्मा का उपकार करने वाला है।
स्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्यय: । अत्यन्त सौख्यवानात्मा, लोकालोक विलोकन: । इष्टोपदेश २१
यह आत्मा आत्मानुभव द्वारा स्पष्ट प्रगत होता है, जाना जाता है, शरीर के बराबर है, अविनाशी है, अनन्त सुख वाला है तथा लोक और अलोक को जानने देखने वाला है। जहाँ आत्मा है, वहीं संवेदन है। जहाँ संवेदन है, वहाँ आत्मा है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों ने भी एक आत्मा की चर्चा की है पर एक होकर भी वहाँ आत्मा के पर्थाक्य का अभाव है। वेदान्त आत्मा को एक और अद्वैत ही मानता है, अद्वैत का अर्थ है संसार में दूसरी कुछ वस्तु नहीं है। जब दूसरी वस्तु कोई है ही नहीं तब आत्मा को पृथक मानने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। दो भिन्न वस्तुओं के रहते हुए ही पार्थक्य संभव है। अद्वैत का प्रयोग भी बिना द्वैत को माने हुए नहीं हो सकता। इसलिए कुन्दकुन्द जहाँ आत्मा को एक कहते वहाँ दूसरे भिन्न पदार्थों की भी सत्ता मानते हैं अत: उससे पृथक बताने के लिए उन्होंने एक और विभक्त आत्मा को बताने की प्रतिज्ञा की है। एक का अर्थ भी कुन्दकुन्द के लिए वैशेषिक की तरह एक नित्य सर्वगत एक आत्मा से नहीं है किन्तु वह अपने नियत प्रदेशों में रहती हैं। ज्ञान, दर्शन ही उसका अपना स्वरूप है। उसके साथ दूसरा कुछ भी नहीं है। अमृतचंद ने अध्यात्मकलश में लिखा है। ‘अनुभवमुपयाते भांति न द्वैतमेव’ अर्थात् निर्विकल्पदशा में जब आत्मा अपना अनुभव करती है तब वहाँ द्वेत नामकी कोई वस्तु नहीं रहती।
उत्तमा स्वात्मचिंतास्यान्मोहचिंता च मध्यमा । अधमा कामचिंता स्यात्, परिचिंताऽधमाधमा ।।
उत्तम पुरुष स्वात्मा की चिन्ता करते हैं। मध्यम वे होते हैं,जो शरीर की चिन्ता में डूबे रहते हें। जघन्य वे होते हैं, जो दुनियां की चिन्ता में डूबे रहते हैं।
परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी । जायतेऽध्यात्मयोगेन, कर्मणामाशु निर्जरा ।। इष्टोपदेश २४
आत्मा के चिंतवन रूप ध्यान से परीषहादि का अनुभव न होने के कारण, कर्मों के आस्रव को रोकने वाली निर्जरा शीध्र होने लगती है।
मैं एक हूँ। मेरा और कोई नहीं है। मैं शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ श्रेष्ठ योगियों द्वारा जाना जाता है। संयोग से उत्पन्न होने वाली सभी पदार्थ मुझसे सभी तरह से बाहर हैं।आचार्य विशुद्धसागर : सर्वोदयी देशना, पृ. ९५ मैं तो एकत्वविभक्त स्परूप हूूं और चिद्स्वरूप को भूल करके ये पर सत्ता में जि सत्ता को गौण किये हूँ। यथार्थ मानना, जब तक बंधन महसूस नहीं होता, तब तक निर्बन्ध होना भी कौन चाहता है? आवश्यकता निर्बन्ध होने की नहीं हैं, आवश्यकता बंध को स्वीकार की है। निर्बन्ध होना कठिन नहीं है लेकिन बंध स्वीकार करना कठिन है। जहाँ द्वैत होता है, वहाँ विसंवाद होता है, जहाँ अद्वैत है वहाँ विसंवाद नहीं है। इसलिए आत्मा अद्वैुवादी अविसंवादी है। एकत्वविभक्त चिद्रूप है, परभावों से भिन्न रूप हैं, वहीं भागवान आत्मा का स्वरूप है। जहाँ दो की कथा प्रारंभ होती है। ”‘‘बंधकहातेण विसंवादी होई’’” वहाँ विसंवाद प्रारंभ हो जाता है। एक आत्मा, एक कर्म। आत्मा भिन्न हो जाये, कर्म भिन्न हो जाये तो सिद्धालय में पहुंच जाये और जहाँ कर्म आत्मा में एक ही भाव होता है वह संसार में घूमता है। ये संसार में पर्याय कर्म के सम्बन्ध के कारण घूम रही है, पर राग का सम्बन्ध छूट जाये तो कर्म के सम्बन्ध छूटने में देरी नहीं लग सकती।वही, पृ. १६३ आत्मतत्त्व जगत् में सर्वोपरि तत्तव है। उस द्रव्य को न समझने के कारण ही यह जीव पुद् गल-पिण्डों के पीछे पड़ा है। संयोगी भावों में सुखानुभूति करता है। ये निज सुख से वंचित होने का सुन्दर मार्ग है संयोगी भाव में लिप्त होना। मोझमार्ग ही इष्टोपदेश है। परद्रव्य आत्मा के इष्ट नहीं होते हैं। आत्मद्रव्य ही आत्मा का इष्ट होता है। जगत में सबसे बड़ा इष्ट कौन है ? व्यवहार दृष्टि से देखें तो हमारे इष्ट पंचपरमेष्ठी भगवन्त हैं, निश्चयदृष्टि से आत्मभगवन्त हैं। जिनदेव और निजदेव ये दो ही तुम्हारे इष्ट हैं।वही, पृ. १६३ आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज देशना में लिखते हैं ‘‘धन्ना तो भगवन्ता।’’ धन्य हैं जो भगवन्त बने। तुम संयोगी भाव को छोड़ देना। पर भक्तों के संयोग में नहीं पड़ना, इतना भी ध्यान रखना। ये मोक्षमार्ग में सहकारी किंचित् भी नहीं है। आचार्य उमास्वामि ने महायोग की चर्चा की है, पूत्यपाद स्वामी परमयोग की चर्चा कर रहे हैं अब करना क्यो है? इस पर चिंतन करना कि संयोगीभाव दु:ख का कारण है।
संयोगी भाव से शून्य हो जाओं, तो असंयोगी भाव में आ जाओ। ज्ञानी हमारी आत्मा शुद्ध गगनतुल्य पर- संयोगी भाव से शून्य अशरीरी है। उस परम असंयोगी भाव को प्राप्त करना है जो चिन्तन करना ‘‘संयोगी भाव रहितोऽहम्’’ जिस दिन ये भाव अन्दर आ जायेगा तो कौन सी जमीन ? सब समझ में आ जायेगा। ये ही अध्यात्म का आनन्द है।
जीव अन्य है और पुद् गल अन्य है इस प्रकार यह तत्तव का सार है, इसके अलावा जो कुछड भी अन्य कहा जाता है, वह सब उसका ही विस्तार है। जहाँ तत्वदृष्टि है, वहाँ सत्यदृष्टि है।। सत्म्य को समझना है, तो तत्त्वदृष्टि को बना के चलाना होगा। जब तक तत्तवदृष्टि नहीं होगी तब तक मनीषियों की तटस्थ दृष्टि नहीं होगी। तटस्थ भाव तत्त्वभाव को प्रदर्शित करता है, तो तत्त्वभाव वस्तुस्वभाव को जन्म देता है।वही, पृ. २४४ इष्टोपदेश के अध्ययन से संसार एवं शरीर से भिन्न निज शुद्धात्मा का यर्थाथ परिज्ञान और मोह, राग, द्वेष-भावों का अभाव हो जाता है।
हे ज्ञानी! अद्वैत-भाव यानी परम भाव, द्वेत यानी अपरमभाव। सुगत तत्त्व यानी परम तत्तव, परगत तत्त्व यानी परातत्त्व। में चटाई का कर्ता हूँ। सम्बन जब भी होता है दो में होता है। आत्मा ने आत्मा को आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा से, आत्मा में ध्याया अभेद कारक है। भेद कर दो तो, आत्मा ने अरहंत को, आत्मा से कल्याण के लिए, मन्दिर में बैठकर ध्याया में भिन्न कारक हैं। ये भी सत्य है, वह भी सत्य है। भेद कारक का भी व्यवहार करना चाहिए। अभेउकारक का भी करना चाहिए पर ध्यान रखना, दोनों कारक स्ेय हैं, ध्येय शुद्धात्मा है। एकत्त्वभाव वहीं आ सकता है, जहाँ विभक्तभाव होगा। एकत्व भाव पहले नहीं आता, विभक्तभाव लाना चाहिए और विभक्तभाव आ जायेगा, तो एकत्व भाव आ जायेगा। सभी के परिणाम एक से हैं। भिन्न समयवर्ती, एक समयवर्ती, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जो परिणाम हैं एक समय में सभी जीवों के परिणाम एक से हों वह कैसे हो सकता है? पर के उपकार करने का त्याग करके अपने उपकार करने में तत्पर तो दिखाई देने वाले इस जबत की तरह अज्ञानी जीव अन्य पर्दााि का उपकार करता हुआ पाया जाता है।वही, पृ. १९०
परद्रव्यों से भिन्न अपने स्वरूप के एकत्व में स्थित आत्मा के अनन्तधर्मों के रहस्य को प्रकाश करने वाली अनेकान्तस्वरूपता ही जिसकी मूर्ति है ऐसी जिनवाणी सदाकाल संसार के प्राणिमात्र के हृदय में प्रकाशित हो। निश्चयनय से आत्मा का यथार्थरूप क्या है आचार्य अमृतचन्द्र वर्णन करते हैं :-
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम् । तन्मुक्त्वा नवतत्वसन्ततिमिमामात्यायमेकोऽस्तु न: ।। अमृतकलश-६
अपने समस्त आत्मप्रदेशों में जो ज्ञान रूप से ठोस है, अपने गुणों में तथा पर्यायों में व्याप्त रहने वाले शुद्धनय की अपेक्षा जो अपने ही स्वभाव में स्थित है। इस प्रकार जो इस आत्मा का अन्य समस्त द्रव्यों से पृथक् दर्शन है यही निश्चय से सम्यग्दर्शन है। जितना सम्यग्दर्शन का विषय है उतना ही आत्मा है, अन्य सब अनात्मा है, जड़ स्वरूप है। जब कि ऐसा निर्णय है तब जीव-अजीव-आस्रव-बन्ध संवर-निर्जरा-मोक्ष, पुण्य-पाप ऐसे नव-पदार्थों की श्रद्धा को जिसे व्यवहारत: सम्यग्दर्शन कहा था, उस नवतत्व की कथन परिपाटी रूप व्यवहार को छोड़कर यह विचार करो कि मेरा आत्मा तो इन नव पदार्थों से भिनन अपने स्वरूप में उकत्व को लिए हुए है, जो अपने एकत्व में ज्ञानानन्दी स्वभाव में स्थित है, वहीं मैं हूँ, अन्य नहीं।
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणम् । क्र्वाचदपि च न विद्मो यानि निक्षेपचक्रम् ।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वकषेऽस्मिन् । अनुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।। अध्यात्म अमृतकलश ९
समपूर्ण तेजों को नीचा कर देने वाले इस आत्मानुभव के तेज के अनुभव आने पर नयों की लक्ष्मी का उदय नहीं होता, प्रमाण भी अपने भेद-प्रभेदों सहित अस्त हो जाते हैं, चारों निक्षेपों का समुदाय कहीं चला जाता है। हम यह भी नहीं जानते और ज्यादा क्या कहें उस समय दूसरा कोई पदार्थ सामने नहीं आता। अद्वैत आत्मा ही प्रतिभासित होता है।
जीव अनादि अनन्त अपने स्वरूप में स्थिर निर्बाध रूप से स्वयं संवेदन ज्ञान के जानने योग्य स्वयं ही चेतना स्वरूप अत्यन्त प्रकाशमान है। आचार्य विशुद्धसागर जी सर्वोदयी देशना में लिखते हैं, देखने वाला दु:खी नहीं होता, सोचने वाला ही दु:खी होता है। विषय को ध्यान में रखना। सुख दु:ख का वेदन देखने से नहीं होता, सोचने से होता हैं। यदि देखने से दु:ख होने लग जाये फिर तो अग्नि को देखने से आँखे जलना प्रारंभ हो जायेंगी। अहो मनीषियों ! मुट्ठी का जहर मृत्यु नहीं दिलाता, मुख में रखा जहर ही मृत्यु का कारण होता हैं ज्ञाता-दृष्टापना बन्ध का कारण नहीं मोक्ष का भी कारण नहीं है। ज्ञातादृष्टापना मोक्ष का भाव है। आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा स्वरूप भाव जो है, उसमें लीन हो जाता है तो ज्ञानी ! वह निर्बन्धता को बुलाता है और ज्ञातादृष्टा भाव पर बन्ध में चला जाता है तो बन्ध का कारण हाकाता है। ज्ञाता दृष्टा भाव स्वरूप में जाता है तो मोक्ष का कारण है और ज्ञातादृष्टा भाव सहत होता है तो न बन्ध का कारण होता है, न मोक्ष का। देखने में कभी मिटा नहीं है, पर देखने की भावना से व्यक्ति पिटा है।वही, पृ. ३२ आचार्य विशुद्धसागर महाराज ने अध्यात्म अमुतकलश के एक श्लोक को उद्धृत करते हुए लिखा है –
आत्मा का स्वभाव परभावों से भिन्न है, वह अपने में परिपूर्ण है, आदि अन्तरहित अर्थात् अनाद्यनन्त है, एक अर्थात् अनाद्यनन्त है, एक अर्थात् द्वैतभाव से रहित है, संकल्प और विकल्पों के भेदों के जाल से रहित है, आत्मा के ऐसे स्वरूप को प्रकट करता हुआ शुद्धनय उदय को प्राप्त होता है। अर्थात् तब शुद्ध नय प्रकट होता है तब आत्मा का ऐसा शुद्ध निजस्वरूप प्रतिभासित होता है। आचार्य विशुद्धसागर महाराज ने देशना में कहा कि ‘भतेश वैभव’ में श्रंगार की चर्चा की तो उत्कर्ष रूप की। वैराग्य की चर्चा की तो उत्कर्ष रूप की ‘भतेश वैभव’ में कवि रत्नाकर आत्मा को कभी आत्मा नहीं कहता, आत्मा को हंसात्मा कहता है। हे हंस-आत्मन् ! वह पक्षी कितना महान है, जो नीर-क्षीर को अलग कर देता है। हे हंस आत्मा! तू कितना महान है जो आत्मा और कम्र को अलग कर देता है। हे हंस आत्मन् ! नीर-क्षीर तो जड़ की क्रिया है और स्वात्मा और कर्म, चेतना की क्रिया है। अहो ज्ञानियों ! वन वाटिका से आज निकल जाओं और चेतन की वाटिका में प्रवेश करके तुम आत्मा को कर्मों से भिन्न निहारना प्रारम्भ करो। ये सूत्र बाल से लेकर वृद्धों को समझना है। शिखर तो अन्त में चढ़ता है। पर नींव पहले भरनी पड़ती है। बिना नींव भरे कलश कैसे चढ़ेगा, बिना भेद विज्ञान के बीतराग भाव कैसे आयेगा? भेद विज्ञान तो आज से ही करना है। भेद विज्ञान शब्दों से नहीं करना। स्वाभाव में करना।वही, पृ. १८७ एकत्व भाव वहीं आ सकता है, जहाँ विभक्त भाव होगा। आचाय्र कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है –
आदा खु मज्झ णाणं में दंसणंचरित्तं च । आदा पच्चक्खाणं आदा में संवरो जोगो ।।
अर्थात् आत्मा ही संवर, आत्मा ही योग है, आत्मा ही प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान है, आत्मा ही ज्ञान है इसलिए निश्चय की दृष्टि से जो कुछ है, सब आत्मा है। आत्मा ही आत्मा का गुरु है यथा –
स्वस्मिन् सदमिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वत: । स्वयं हित प्रयोत्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मन: ।।
जगत् के द्रव्य ज्ञेय तो हैं, पर हेय भी हैं, उपादेय तो एक चिद्स्वरूप आत्मा है। इसी प्रकार आचार्य पूज्यपाद प्रणीत इष्टोपदेश ग्रन्थ में तत्व का सूक्ष्मरीत्या प्रतिपादन है उसमें आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार का सार भरा हुआ है। पूज्य आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज अध्यात्म रस के रसिक हैं। आत्मा का संवेदन अनुभगम्य है। योगी साधन में निरत रहकर आत्मिक आन्नद का अनुभव करते हैं। उनके मुखारबिन्द से निसृत अमृतमयी वचन हम अज्ञानी जनों को सन्मार्ग की ओर अग्रसर कराते हैं। पूज्य श्री की इष्टोपदेश ग्रन्थ पर सर्वोदयी देशना समत्व के सागर में निमज्जित कराकर असीम आनन्द प्रदात्री है।
डॉ. अशोक कुमार जैन अनेकान्त अप्रेल-जून २०१३ पृ. ८७ से ९२