जलगंध अक्षत पुष्प चरु, दीपक सुधूप फलादि से।
श्री आदि ये सब देवियाँ, विधिवत् किया अर्चित उन्हें।।
ये भक्तवत्सलता भरीं, हम भक्त की रक्षा करें।
सब विघ्न संकट चूरकर, सुख शांति दे संपति भरें।।
(इसके बाद ऋषिमंडल यंत्र के ऊपर शुद्ध लवंगों को या चमेली, जुही आदि फूलों को चढ़ाते हुए ऋषिमंडल मंत्र का १०८ बार जाप्य स्थिर आसन से एकाग्रतापूर्वक करें।)
ॐ ह्रां ह्रिं ह्रुं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो ह्रीं नमः।
श्री जिनवरचरणा, सुरगणशरणा, भवभय हरणा नित प्रणमूँ।
निज जन्मजरामृति, स्वयं किया हति, मुक्तिरमापति नित्य नमूँ।।
शिव सुख के दाता, भवदुख त्राता, भाग्य विधाता गुण गाऊँ।
निज भक्ति बढ़ाकर, स्तुतिरचनाकर, सब संकट हर सुख पाऊँ।।१।।
जय जय श्री ऋषभदेव जिनवर, कर्मारिचक्र का घात किया।
जय जय श्री अजितनाथ जिनवर, निजमोह शत्रु का नाश किया।।
जय जय श्री संभव जिन तुमने, भववारिधि को स्वयमेव तिरा।
जय जय श्री अभिनंदन जिनवर, परमानंदामृत पान करा।।२।।
जय जय श्री सुमतिनाथ तुमने, सब कुमति नाथ शिवतिय पाई।
जय जय श्री पद्मप्रभू तुमने, मुनिवृंदों से पूजा पाई।।
जय जय सुपार्श्वजिन निजकांती से, भासित होते त्रिभुवन में।
जय जय श्री चंद्रनाथ तुमको, शत इंद्र वृंद भी नित प्रणमें।।३।।
जय जय श्री पुष्पदंत स्वामी, तुम कामदेव मद ध्वंस किया।
जय जय श्री शीतल जिननामी, निजवच से जग को बोध दिया।।
जय जय श्रेयांस जिनेश्वर तुम, पद का वंदन श्रेयस्कर है।
जय जय श्री वासुपूज्य जिनवर, जी बारहवें तीर्थंकर हैं।।४।।
जय जय मद मोह राग आदिक, को नाश निजातम प्रकटाया।
जय जय भगवान स्वयं बनकर, मुक्ती का मारग दिखलाया।।
जय जय श्री विमल जिनेश्वर तुम, निजज्ञान विमलकर सुख पाया।
जय जय अनंत जिनदेव आप, निजपद अनंत कर शिव पाया।।५।।
जय जय श्रीधर्म जिनेन्द्र आप, धर्मोपदेश के अधिकारी।
जय जय श्री शांतिनाथ भगवन्, परिपूर्ण शांतिमय अविकारी।।
जय जय श्री कुंथुनाथ तुमने, सब कर्म पंक को दूर किया।
जय जय श्री अरतीर्थेश आप, मृत्यूअरि को चकचूर किया।।६।।
जय जय श्री मल्लिनाथ भगवन्, बस स्याद्वाद के नायक हो।
जय जय मुनिसुव्रत देव आप, सब विश्व तत्त्व के ज्ञायक हो।।
जय जय श्री नमि जिनराज स्वयं, संपूर्ण परिग्रह रहित हुए।
जय जय श्री नेमिनाथ भगवन् , तुम मुक्ति वल्लभाकंत हुए।।७।।
जय जय श्री पार्श्वनाथ तुमको, धरणीपति पद्मावति पूजें।
जय जय श्री वर्धमान भगवन्, तुम गुणगणपति को जग पूजें।।
इसविध जग ईश्वर तीर्थेश्वर, वंदनकर कर्मकलंक हरें।
सुरपति वंदित जिनवर गुण की, जयमाला पढ़कर अर्घ्य करें।।८।।
ऋषिमंडल वर यंत्र की, पूजा करूँ महान।
केवल ‘ज्ञानमती’ सहित, पाऊँ पद निर्वाण।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
(इस जयमाला को अति आदर से अति उत्कंठा से पढ़कर तीन प्रदक्षिणा देते हुए जल आदि आठ द्रव्यों से बने हुए सुवर्ण आदि के पात्र में रखे हुए पूर्ण अर्घ्य को चढ़ाकर इंद्र आदि सब लोग मिलकर नमस्कार करें। यदि पूजा पूर्ण हो जाये और कुछ रात रहे उस समय तीर्थंकरों का पुराण आदि बाँचकर रात्रि को बिताकर प्रातः अभिषेक विधि करें। उसके बाद ‘‘शांतिजिनं’’ इत्यादि शांतिपाठ पढ़कर शांतिविधान करें। उसके पश्चात् निम्नलिखित आशीर्वाद श्लोकों को पढ़ें।)
सम्पूर्ण सुरपति जिनपदाम्बुज, में मुकुट नित नत करें।
सुरवृक्ष के सुरभित सुमन ला, जिन चरण अर्पण करें।।
अति भक्तिवश वंदन करें, पूजन करें संस्तव करें।
वे श्री जिनेश्वर देव तुमको, ऋद्धि वृद्धी नित करें।।१।।
संपूर्ण घात अघाति हर के, ज्ञान दर्शनमय हुए।
सुख वीर्य अव्याबाध कर, चैतन्य धातूमय हुए।।
वे सिद्धगण तुम भक्त जन को, सर्ववांछित फल भरें।
परिपूर्ण धृति सुख शांति देकर, मुक्ति पद में भी धरें।।२।।
जो स्वयं पंचाचार को नित, आचरण में ला रहे।
बहु शिष्यजन को भी उन्हीं में, नित्यमेव लगा रहे।।
देवेन्द्र पूजित पदकमल वे, सूरि पाठक साधुगण।
तुम भाक्तिकों को नित्य देवें, सौख्य औ आरोग्यफल।।३।।
भवनपती व्यंतरपती, ज्योतिष्कपति कल्पाधिपति।
श्री ह्री प्रमुख सब देवियाँ, औ अन्य भी जो सुरपती।।
वे सर्व श्री जिन भक्त के सब, विघ्न को घातें सदा।
जिससे सतत वे भक्तगण, जिनधर्म परकाशें मुदा।।४।।
जब तक जगत में रवि शशी, गंगा नदी सागर रहें।
कुलगिरि सुमेरू जिन जिनालय, सिद्ध परमात्मा रहें।।
तब तक सभी तुम भक्तगण, निज पुत्र पौत्रादिक सहित।
सुख का करो अनुभव मुदित सब, ऋद्धि वृद्धि समृद्धि युत।।५।।
इन आशीर्वादों को पढ़कर पूजा करने वाले यजमान और उसकी पत्नी के वस्त्रों पर भगवान् के चरणों में चढ़ाये गये फूूलों का क्षेपण करें।
उसके बाद ‘ॐ समाहूता’ इत्यादि विसर्जन मंत्र बोलकर यंत्र के ऊपर पुष्पांजलि चढ़ाके देवों का विसर्जन करें पुनः ‘चौबीस तीर्थंकर’ आदि श्लोक बनाकर चौबीस तीर्थंकर और अर्हंत पाठ पदों का ध्यान करें।
‘‘ॐ समाहूता देवाः सर्वे स्वस्थानं गच्छत गच्छत।’’
इस मंत्र से विसर्जन करते हुए यंत्र पर पुष्पांजलि क्षेपण करें।
चौबीस तीर्थंकर तथा, अर्हंत सिद्धाचार्यगण।
पाठक व साधू और सम्यक्, दरश ज्ञान चरित्र मिल।।
ये आठ परमानंदकारी, नित्य ही मंगल करें।
हम भक्तगण के चित्त में, राजें सतत भवमल हरें।।१।।
इति देवताविसर्जन।
जिन घातिचतुष्टय नष्ट किया, फिर ‘केवलज्ञानी’ सूर्य हुए।
जिनकी वाणी जगहितकारी, जो सर्व पदारथ देख लिये।।
जो भव्य कमल हेतू रवि हैं, जिनके पद में सब नत होवें।
वे जिनवर तुम उन भक्तों को, नित लक्ष्मी और शांति देवें।।१।।
(इस श्लोक के द्वारा यंत्र के सन्मुख शांतिधारा करते हुए इस प्रकार अर्घ्य आदि चढ़ावें।)
ॐ अर्हद्भ्यो नम: सिद्धेभ्यो नम: सूरिभ्यो नम: पाठकेभ्यो नम: सर्वसाधुभ्यो नम: अतीतानागतवर्तमान त्रिकाल गोचरानंत द्रव्यगुण पर्यायात्मकवस्तु परिच्छेदक सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राद्यनेकगुणगणाधार-पंचपरमेष्ठियो नम:। पुण्याहं २ प्रियंतां२। ऋषभादि वर्धमानपर्यंत तीर्थंकर परमदेवा पुण्याहं २ प्रियंतां २ तत्समय पालिन्य: गोमुखादि यक्षेश्वरा: चक्रेश्वरी प्रभृतिचतुर्विंशति यक्ष्य: पुण्याहं २ प्रियंतां २ आदित्य सोममंगलबुधबृहस्पति-शुक्रशनिराहुकेतु प्रभृत्यष्टाशीतिग्रहा: पुण्याहं २ प्रियंतां २। वासुकिशंखपालकर्कोटक पद्म कुलिकानंत तक्षकमहापद्म जय विजय नागयक्ष गंधर्व ब्रह्मराक्षस भूतव्यंतर प्रभृति भूताश्च सर्वेऽप्येते जिनशासन वत्सला: पुण्याहं २ प्रियंतां २। ऋष्यार्यिका श्रावक श्राविका यष्ट्रयाजक राजमंत्रि पुरोहित सामंतारक्षक प्रभृति समस्त लोक समूहस्य शांतिवृद्धि पुष्टि तुष्टि क्षेम कल्याण स्वायुरारोग्यप्रदा भवंतु, सर्वसौख्य प्रदाश्च संतु। देशे राष्ट्रे पुरेषु च सर्वदैव चौरारिमारीति दुर्भिक्षविग्रह विघ्नौघ दुष्टग्रह भूत शाकिनी प्रभृत्यशेषाण्यनिष्टानि प्रलयं प्रयान्तु। राजा विजयी भवतु। प्रजा सौख्यं भजतु। राज प्रभृति समस्त लोका: सततं जिनधर्मवत्सला: पूजादानव्रतशील महामहोत्सवप्रभृति उद्यता भवंतु। चिरकालं नंदंतु। यत्र स्थिता भव्य प्राणिन: संसारसागरं लीलया एवं उत्तीर्य अनुपम सिद्धि सौख्यं अनंतकालं अनुभवन्तु।
(यहाँ तक पढ़कर पुष्प अक्षत आदि से मिला हुआ अर्घ्य चारों तरफ चढ़ावें।)
इस प्रकार पूजा विधि समाप्त हुई।