जिन कर्मों का आस्रव होता है पर बन्ध नहीं होता उन्हे ईर्यापथ कर्म कहते है । आने के अगले क्षण में ही बिना फल दिये वे झड़ जाते है । अत: इनमें एक समय मात्र की स्थिति होती है अधिक नहीं ।
मोह का सर्वथा उपशम या क्षय हो जाने पर ही ऐसे कर्म आया करते हैं । दसवें गुणस्थान तक जब तक मोह का किंचित् भी सद्भाव है तब तक ईर्यापथ कर्म सम्भव नहीं क्योंकि कषाय के सदभाव में स्थिति बन्धने का नियम है । नारकियोंं के तथा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त ईर्यापथ कर्म नहीं होता ।