वैशेषिक कहते हैं कि-सदाशिव नाम का एक महेश्वर है जो सदा ही मुक्त है, कभी भी कर्ममल से लिप्त नहीं था अनादिकाल से ही मुक्त है और सम्पूर्ण सृष्टि का कर्ता है।
शरीर, जगत, इन्द्रिय आदि विवाद की कोटि में आये हुए पदार्थ बुद्धिमान निमित्त कारण से हुए हैं, क्योंकि वे कार्य हैं। जो कार्य होता है वह बुद्धिमान निमित्त कारण से ही होता है, जैसे वस्त्रादि और कार्य प्रकृत शरीर आदि हैं इसलिए बुद्धिमान निमित्त कारण से हुए हैं। जो बुद्धिमान उनका कारण है वे ईश्वर है। ‘‘इसलिए यह सिद्ध होता है कि अनादि सिद्ध ईश्वर ही सम्पूर्ण विश्व का बनाने वाला है।
जैनाचार्यों का मत है कि शरीर जगत् और इन्द्रिय आदि बुद्धिमान कारण जन्य नहीं है, क्योंकि जिन मकानादि के कर्ता देखे जाते है। उनसे भिन्न हैं। जैसे आकशादि।
दूसरी बात यह है कि वह ईश्वर सृष्टिकर्ता शरीर सहित है या रहित ? यदि रहित कहो तो अन्य मुक्त जीवों के समान वह भी सृष्टि नहीं बना सकता। यदि शरीर सहित कहो, तो वह कर्मसहित होने से अज्ञानी संसारी प्राणी के समान सृष्टि नहीं कर सकोग।
इन वैशेषिकों ने एक सदाशिव ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना है, उसमें ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न ऐसी तीन शक्तियाँ मानी हैं। पुन: प्रश्न यह भी होता है कि कर्म के बिना इच्छा शक्ति वैâसे होगी ? यदि ज्ञान शक्ति से ही सम्पूर्ण कार्य करना मानो, तो भी असंभव है। यदि वैशेषिक कहे कि-
जिस प्रकार से आप जैनों का जिनेश्वर बिना इच्छा के मोक्ष मार्ग का उपदेश देता है, वैसे ही हमारा महेश्वर बिना इच्छा के सृष्टि बनावे क्या बाधा है ? जैन आचार्य ने कहा कि भाई! हमारे जिनेश्वर की तीर्थंकर नामा नाम कर्म विशेष से उपदेश में प्रवृत्ति होती है और वे तीर्थंकर तो कर्म सहित हैं शरीर सहित हैं। हाँ! मोहकर्म के नष्ट हो जाने से इच्छा रहित अवश्य हैं। पूर्णकर्म रहित सिद्धों को उपदेशक हम नहीं मानते हैं।
यदि आप भी ईश्वर के योग विशेष मानों तो शरीर अवश्य मानना पड़ेगा, पुन: प्रश्न माला चलती जायेंगी। वह सृष्टि रचने के पहला अपना शरीर बना लेता है या शरीर रहित ही सृष्टि बनाकर अपना शरीर बनाता है ? यदि कहो ईश्वर स्वयं अपना शरीर नहीं बनाता है वह स्वयं बन जाता है, तब तो जैेसे ईश्वर की इच्छा और प्रयत्न के बिना उसका शरीर बन गया है, वैसे ही सारी सृष्टि बन जावे।
यदि ईश्वर अपने पूर्व शरीर का कर्ता पूर्व पूर्ववर्ती शरीर से होता है तब तो शरीर परम्परा अनादि सिद्ध होने से अनवस्था दोष आ जाता है एवं संसारी प्राणी और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं दिखता है। कार्मणशरीर से सहित ही संसारी प्राणी अनादि काल से शरीरों का निर्माण करता चला आ रहा है।
दूसरी बात यह भी है कि उस ईश्वर का ज्ञान नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य कहो तो सारे कार्य एक साथ हो जावेंगे क्योंकि ज्ञान सदा काल एक नित्य है, अनित्य कहो तो भी अनेकों दूषण आते हैं। यहाँ ईश्वर का ज्ञान व्यापी है या अव्यापी ? स्वसंविदित है या अस्वसंविदित ?
वह ज्ञान महेश्वर से भिन्न है या अभिन्न ? इत्यादि प्रश्न चलते ही रहेंगे।
वैशेषिक महेश्वर के ज्ञान को महेश्वर से भिन्न मानकर समवाय से महेश्वर को ज्ञानी कहता है तब आचार्य कहते हैं कि यह समवाय एक है तो यह समवाय महेश्वर में ही ज्ञान को जोड़े अन्यत्र आकाशादि में नहीं, ऐसा क्यों ? यदि कहो आकाश अचेतन है, ईश्वर चेतन है तो भी ठीक नहीं है क्योंकि आपने ईश्वर को चेतन नहीं माना है, चेतन के समवाय से ही चेतन माना है।
यदि कहो कि ईश्वर न ज्ञाता है न अज्ञाता। किन्तु ज्ञान समवाय से ज्ञाता है तब तो बताओ ईश्वर आत्मा है या नहीं ?
तब उसने कहा-ईश्वर न आत्मा है न अनात्मा है। आत्मतत्त्व के समवाय से आत्मा है। तब तो बताओ उस आत्मतत्त्व समवाय के पहले वह क्या है ? द्रव्य है ?
तब वह कहता है कि नहीं। ईश्वर न द्रव्य है न अद्रव्य है, द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य है तब प्रश्न होता है कि द्रव्यत्व समवाय के पहले वह सत् रूप तो अवश्य होगा? उसने कहा-नहीं। ईश्वर न स्वत: सत् है न असत् है सत्ता के समवाय से सत् है तब तो बड़ी आफत आ गई, सत्ता समवाय के पहले ईश्वर असत् ही रहेगा। अर्थात् उस ईश्वर का कुछ भी स्वरूप समझ में नहीं आता है।
समवाय की सिद्धि तो असंभव है, क्योंकि जीव में या ईश्वर में ज्ञान समवाय के पहले वे ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी हैं तो समवाय ने क्या किया ? यदि अज्ञानी हैं तो पत्थर आदि अज्ञानी अचेतन में भी ज्ञान का समवाय क्यों नहीं होता है अत: समवाय संबंध नाम से तादात्म्य संबंध मानकर स्वरूप का स्वरूपवान् के साथ तादात्म्य ही स्वीकार करना चाहिए, अग्नि में उष्ण का, जीव में ज्ञान का जो तादात्म्य संबंध है, उसे ही समवाय भले ही कह दो।
इसलिए उपर्युक्त दोषों के निमित्त से आपका महेश्वर, देहसहित, कर्मसहित, सर्वज्ञ एवं मोहरहित सिद्ध नहीं होता है।
दूसरी बात यह है कि वह ईश्वर सृष्टि क्यों बनाता है किसी अन्य पुरुष की प्रेरणा से, या दया से क्रीड़ा से या स्वभाव से ? यदि अन्य से प्रेरित होकर बनाता है तब तो उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। यदि दया से बनाता है तो उसने दु:खी प्राणी को क्यों निर्माण किये?
यदि कहो पापियों को दण्ड देना पड़ता है तब तो उसने पाप की सृष्टि क्यों की ? परम पिता परमकारुणिक ईश्वर पाप और पापीजनों की सृष्टि बनाकर फिर उन्हें दु:ख देवें यह तो उचित नहीं है। यदि कहो क्रीड़ा से सृष्टि का निर्माण करता है त्ाब तो वह प्रभु महान् कैसे रहेगा, प्रत्युत् क्रीड़ा प्रिय होने से बालकवत् नादान समझा जावेगा। यदि कहो स्वभाव से वह सृष्टि का निर्माण करता है तब तो ईश्वर का स्वभाव नित्य है सदा काल है अत: सदा काल एक जैसी सृष्टि बनती रहेगी, तरह-तरह की विचित्रता का अनुभव नहीं होना चाहिए।
ईश्वर तो परम दयालु है, वह परोपकार के लिए ही प्रवृत्त होता है। यदि वह जगत् का कर्ता होता तो दु:ख देने वाले शरीरादि की रचना न करता। यदि वह इस प्रकार की दु:खदायक सामग्री रचता है तो वह परमदयालु नहीं हो सकता।
ईश्वर प्रत्येक कार्य के लिए एकदेश से व्यापार करता है या सर्वात्मना व्यापार करता है ? यदि एकदेश से व्यापार करता है तो जितने कार्य हैं, उतने ही ईश्वर के अवयव होने चाहिए। और ऐसी स्थिति में ईश्वर को निरंश मानने की बात नहीं बनती।
यदि ईश्वर प्रत्येक कार्य के लिए सर्वात्मना व्यापार करता है, जो जितने कार्य हैं उतने ही ईश्वर मानने होंगे, तब ईश्वर के एक होने की प्रतिज्ञा को क्षति पहुँचेगी तथा ईश्वर में रचने की इच्छा और संहार करने की इच्छा क्या एक साथ होती है या क्रम से। यदि एक साथ होती है, तो सृष्टि और संहार का एक साथ प्रसंग आता है। यदि क्रम से होती है तो उसका कारण बतालाइए। यदि वह कारण की अपेक्षा करती है, तो नित्य नहीं हो सकती।
नैयायिक—यद्यपि इच्छा, प्रयत्न आदि नित्य हैं, तथापि विचित्र सहकारियों के सान्निध्य से विचित्र कार्यों को करते हैं।
जैन—वे सहकारी उस ईश्वर के अधीन हैं या नहीं ? यदि नहीं हैं तो उन्हीं से कार्यत्व हेतु में व्यभिचार आता है। यदि ईश्वर के अधीन हैं तो वे सहकारी उसी समय क्यों नहीं होते ? यदि कहा जाता है कि उनके कारणों का अभाव है तो पुन: वही प्रश्न होता है कि वे कारण ईश्वर के अधीन हैं या नहीं, और इस प्रकार अनवस्था दोष आता है।
जगत् के निर्माण में ईश्वर की प्रवृत्ति अपनी रुचि के अनुसार होती है, या कर्म की परवशता से होती है, या करुणा से होती है, या धर्म आदि के प्रयोजन के उद्देश्य से होती है, या क्रीड़ा से होती है, या लोगों का निग्रह और अनुग्रह करने के लिए होती है, या स्वभाव से होती है ? यदि रुचि के अनुसार ईश्वर जगत् के निर्माण में प्रवृत्त होता है तो कभी सृष्टि बिलकुल विलक्षण भी हो सकती है।
यदि ईश्वर कर्माधीन है तो उसकी स्वतन्त्रता में हानि आती है, ईश्वरत्व या स्वातन्त्र्य तो यही है कि अन्य किसी का मुख देखना न पड़े। यदि ईश्वर करुणावश जगत् की रचना करता है तो दयालु होने से एक साथ सभी को ऐश्वर्यशाली बनाना चाहिए। तब संसार में कोई दु:खी ही न रहेगा, क्योंकि दयालु की यही दयालुता है कि दूसरों को दु:ख का लेश भी न हो।
नैयायिक—पूर्व उपार्जित कर्मों के वश होकर ही प्राणी दु:ख उठाते हैं, उसमें ईश्वर क्या कर सकता है ?
जैन—तब ईश्वर का क्या पौरुष रहा। कर्म तो उपभोग से ही क्षय होते हैं। यदि ईश्वर अदृष्ट की अपेक्षा करके जगत् का निर्माण करता है, तो ईश्वर को मानने से क्या लाभ है ? क्योंकि यदि ईश्वर अदृष्ट के अधीन है, तो जगत् को ही अदृष्ट के अधीन मान लेना चाहिए।
इस अन्तर्गत ईश्वर से क्या लाभ ? यदि ईश्वर धर्म आदि प्रयोजन के उद्देश्य से जगत् के निर्माण में प्रवृत्ति करता है, तो वह कृतकृत्य वैâसे हो सकता है; क्योंकि जो कृतकृत्य हो जाता है, उसे धर्मादि का प्रयोजन नहीं रहता।
यदि ईश्वर क्रीड़ावश प्रवृत्ति करता है, जो वह साधारण जन की तरह ही हुआ, वीतराग वैâसे हुआ ? ईश्वर परमपुरुष है और बच्चों की तरह क्रीड़ा करता है, यह तो महान् आश्चर्य है। इसी तरह यदि वह शिष्ट जनों के अनुग्रह और दुष्ट जनों के निग्रह के लिए प्रवृत्ति करता है, तो वह वीतराग और वीतद्वेष वैâसे हुआ ?
जैसे सूर्य स्वभाव से ही प्रकाशित होता है, वैसे ही ईश्वर यदि स्वभाव से ही जगत् के निर्माण में प्रवृत्ति करता है, तो अचेतन से भी जगत की प्रवृत्ति स्वभाव से ही हो, एक अधिष्ठाता की कल्पना से क्या लाभ है ? अनादिकाल से जगत् अपने स्वभाव से ही स्थित है।
तथा बुद्धिमान् ईश्वर की बुद्धि नित्य है या अनित्य ? नित्य तो हो नहीं सकती, क्योंकि नित्यता अनुमान से भी और प्रतीति से भी बाधित है। यदि अनित्य है, तो किससे उस बुद्धि की उत्पत्ति होती है—इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से या समाधि—विशेष से या समाधि से उत्पन्न हुए धर्म के माहात्म्य से, या ध्यानमात्र से ?
प्रथम पक्ष युक्त नहीं है; क्योंकि ईश्वर तो अशरीरी है, उसके मुक्तात्मा की तरह न तो मन है और न इन्द्रियाँ हैं। यदि हैं तो व सर्वज्ञ नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान नियत अर्थ को ही जानता है।
समाधि—विशेष और अनुध्यान भी ज्ञानविशेष ही हैं और ईश्वर अभी तक भी असिद्ध है, तब स्वयं से स्वयं की उत्पत्ति वैâसे हो सकती है ? जब समाधि—विशेष ही असम्भव है, तो उससे उत्पन्न हुआ धर्म ईश्वर में कैसे हो सकता है, जिससे उसके माहात्म्य से ज्ञान की उत्पत्ति सम्भव हो।
तथा अशरीरी ईश्वर में समाधि भी कैसे सम्भव है ? अत: कारण के असम्भव होने से ईश्वर में ज्ञान का सद्भाव नहीं बनता। ऐसी स्थिति में ईश्वर में बुद्धिमता कैसे सिद्ध हो सकती है ? तथा ईश्वर को मानने में संसार का ही लोप हो जाता है; क्योंकि ईश्वर के व्यापार से पहले शरीर और इन्द्रिय वगैरह का अभाव होने से सब आत्माओं के बुद्धि आदि गुणों का भी अभाव होगा और शरीर, इन्द्रिय वगैरह के अभाव में तथा बुद्धि आदि विशेष गुणों के अभाव में आत्यन्तिक शुद्धि को प्राप्त आत्माओं को अमुक्त मानना युक्त नहीं है।
इस प्रकार संसार की रचना में प्रवृत्त हुआ ईश्वर संसार का अभाव कर देता है, यह तो उसकी बड़ी भारी बुद्धिमत्ता है ? अत: योग के द्वारा माना गया ईश्वर समस्त जगत् का जनक नहीं हो सकता और इसलिए वह सर्वज्ञ भी सिद्ध नहीं होता।
इत्यादि अनेकों दोष आते हैं अत: ईश्वर को अनादि सिद्ध एवं सृष्टि का कर्ता मानना अनुचित है। यह संसारी प्राणी अनादिकाल से कर्म सहित होने से स्वयं ही पुण्य—पाप का कर्ता है और भोक्ता है। जब पुरुषार्थ से कर्मों का भेदन कर देता है तो ईश्वर महेश्वर, ब्रह्मा, महात्मा, परमात्मा, सिद्ध, शिव, अक्षय, अच्युत आदि अनेकों नाम से पूज्य बन जाता है। ईश्वर का अस्तित्व है, पर वह सृष्टि का रचयिता नहीं है।