जैन आचार, आहार एवं जीवन शैली का सम्बन्ध व्रतों से है। अहिंसा के विचार का मनुष्य में उदय तथा पोषण होता है इसीलिए इन व्रतों से मानव में संयम तथा अहिंसा का पोषण होता है। आहार संयम के लिए प्राचीन काल में एक परम्परा थी कि श्रावक अपने घर के भोजनालय में शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक भोजन करता था। समय एवं खाद्य पदार्थों में पूर्ण प्रामाणिकता थी किन्तु आज परम्परागत गृहस्थों के भोजनालय बदल गये हैं। उनका परिवर्तित स्थान आधुनिक होटल, डाइनिंग हाल आदि आहार के व्यापारिक संस्थानों ने ले लिया है। आधुनिक कारखानों में निर्मित आहार का व्यापक रूप में प्रयोग (होम डिलिवरी के रूप में) प्रचलित हो चुका है। आगामी समाज की पीढ़ी इसी आहार एवं पेय द्रव्यों पर निर्भर होगी, उससे जो शरीर एवं मन बनेगा वह भविष्य के गर्भ में है। सम्पूर्ण राष्ट्र एवं समाज पर इसका कुप्रभाव होगा अत: इसका स्वस्थ विकल्प ढूँढना हमारा कर्तव्य है इसलिए अब विचार करना जरूरी हो गया है।
यह सर्वविदित है कि धर्मोपदेशक एवं साधु जैनागमों में वर्णित खान—पान का समय—समय पर प्रवचन करते हैं और समाज का ध्यान उसके लाभ-हानियों की ओर भी आकृष्ट करते हैं किन्तु उसका फल न्यून है अत: इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों को विचार करना चाहिए तथा सक्रिय कदम उठाना चाहिए। कृषि कार्यों में कीटनाशक औषधियोें के प्रयोग पर भी अहिंसक समाज को विचार करना चाहिये। आज विश्व में सूखी खेती तथा कीटनाशक दवाओं के बगैर कृषि सम्भव है। इजराइल का अमिरिम ग्राम इसका उदाहरण है। भारत में ऐसा हो, इसके लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक है। इससे अहिंसक विचार को बल मिलेगा।
बहुत—सी औषधियाँ जान्तव द्रव्यों (िंहसक रीति) से निर्मित होती हैं। वे अहिंसक एवं शाकाहार आस्था रखने वाले समाज के लिए अभक्ष्य हैं अत: चिकित्सकों को समाज के समक्ष एक विचार रखना चाहिए कि कौन—कौन सी औषधियाँ भक्ष्य या अभक्ष्य हैं। जैन चिकित्सकों का यह दायित्व भी है। वैâप्सूल का भी विकल्प ढूँढना चाहिए। इसके लिए उद्योगपति पहल कर सकते हैं।
सौन्दर्य प्रसाधनों में अनेक प्राणीजन्य द्रव्यों का प्रयोग होता है। अहिंसा के विचार की दृष्टि से इस पर विचार करना होगार्। Beauty without cruelity के विचार को मान्य करना चाहिए और इसके लिए जो करना हो, करना चाहिए। वस्त्रों में रेशम का प्रयोग भी विचारणीय है। वस्त्र उत्पादन में मटन टेलो (मांस चर्बी) का प्रयोग होता है, यह सभी जानते हैं अत: अहिंसक एवं शाकाहारी समाज को यथासम्भव खादी, सूती अथवा सिन्थेटिक वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।
शाकाहार क्या है ? सहज स्वभाव है। शाकाहार में दो शब्द सम्मिलित हैं-शाक और आहार। शाक से आशय साग—पात, तरकारी—फल, दूध—घी आदि का है और आहार से अभिप्राय रोटी, दाल, चावल आदि से है। जिस प्रकार दीर्घ जीवन के लिए शुद्ध जल, वायु आवश्यक है उसी प्रकार शुद्ध शारीरिक, मानसिक भोजन भी आवश्यक है। शाकाहार जितना धार्मिक है, माँसाहार उतना ही अधार्मिक है। शाकाहार हितकर भोजन है।
शाकाहार क्यों ? दुनिया के उच्च कोटि के वैज्ञानिक चिकित्सक और खिलाड़ियों का कहना है कि शाकाहार सर्वश्रेष्ठ भोजन है। शाकाहारी भोजन में भोजन तन्तु अधिक पाये जाते हैं। भोजन तन्तुओं की अधिकता से आँतों में भोजन का चलन व्यवस्थित रहता है। विभिन्न वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य स्वभाव से माँसाहारी नहीं है। वह तो स्वाद की लोलुपता और निर्दयता से माँसाहारी बनता जा रहा है।
शाकाहारी भोजन से अनेक लाभ हैं। शाकाहारी भोजन से हमें भरपूर रेशे मिलते हैं। इसके नियमित प्रयोग से कब्ज होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। स्वास्थ्य की दृष्टि से शाकाहार भोजन उत्तम है इसलिए आज विश्व में सभी डॉक्टर शाकाहार का समर्थन करते हैं। इसमें रोगनिरोधन शक्ति है। आर्थिक दृष्टि से भी शाकाहार उत्तम भोजन है। शाकाहार के द्वारा कम मूल्य में अधिक ऊर्जा व वैâलोरी प्राप्त की जा सकती है।
भारत की जीवन शैली के दो प्रमुख प्रेरक सूत्र हैं-‘जियो और जीने दो’ तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (यह धरती हमारा परिवार है)। अिंहसा और सहअस्तित्व की पवित्र भावनाओं ने इस देश में परस्पर—सहयोग, प्रीति और विश्वास का खुशहाल वातावरण बनाया है। कोई भी भारतीय धर्म जीव हिंसा/रक्तपात के पक्ष में नहीं है।
जहाँ तक शाकाहार के उद्भव का प्रश्न है, यहाँ सदियों से कृषि पर जोर दिया जाता रहा है। जैनधर्म के वर्तमान युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ ने कृषि संस्कृति का प्रवर्तन किया था। उन्होंने मनुष्य को ऐसी अिंहसक जीवन शैली प्रदान की थी, जिसने एक—दूसरे के साथ प्रेम से रहने की सम्भावनाओं को समृद्ध दिया था। भारत गाँवों का देश रहा है। पशुपालन भारतीय संस्कृति की प्रमुख पहचान है। माँसाहार का भारतीय संस्कृति से कोई तालमेल नहीं है।
माँसभक्षी मनुष्य ऐसा समझते हैं कि माँसादि में अन्न, फल, दूध, सब्जी आदि से अधिक शक्ति के अंश होते हैं तो उनका यह सोचना बिलकुल गलत है। वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा विशिष्ट पदार्थों से प्राप्त होने वाली शक्ति की मात्रा निम्न तालिका से पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है-
वस्तु | शक्ति की मात्रा |
सूखे चने, मटर में | ८७ प्रतिशत |
बादाम में | ९१ प्रतिशत |
दाख आदि मेवा में | ७३ प्रतिशत |
घी में | ८७ प्रतिशत |
दूध में | १४ प्रतिशत |
दूध में ८६ प्रतिशत जो पानी होता है वह भी स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है।
माँस में २८ प्रतिशत |
इसका जलीय अंश मानव शरीर के लिये हानिकारक होता है।
चावल में | ८७ प्रतिशत |
गेहूँ के आटे में | ८६ प्रतिशत |
जौ के आटे में | ८४ प्रतिशत |
मलाई में | ६९ प्रतिशत |
अंगूर आदि फलों में | २५ प्रतिशत |
इन फलों का जलीय अंश भी मनुष्य शरीर के लिये फायदेमन्द होता है।
मछली में | १३ प्रतिशत |
अण्डे में | २१ प्रतिशत |
इनका जलीय अंश भी हानिकारक होता है।
इसके अनुसार माँस में सूखे चने, मटर, चावल, गेहूँ, जौ, बादाम, घी, मलाई, फल आदि से शक्ति की मात्रा बहुत ही कम होती है अत: साधारण मनुष्य भी चना-मटर चबाकर माँसाहारियों की अपेक्षा अधिक बलवान बन सकता है।
शाकाहार में सभी आवश्यक तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं।
प्रोटीन—यह दूध, दही, छाछ, पनीर, फल, मेवों तथा दाल आदि में पायी जाती है।
चिकनाई—यह शरीर में गर्मी और शक्ति पैदा करती है। यह दूध, दही, मक्खन, तेल, बादाम, अखरोट आदि में पायी जाती है।
खनिज लवण—भोजन शक्ति को अच्छा रखते हैं। रोगों से शरीर की रक्षा करते हैं।
कार्बोहाइड्रेट—शरीर में गर्मी और शक्ति प्रदान करते हैं। यह चावल, गेहूँ, मक्का, ज्वार आदि में पाया जाता है।
कैल्शियम—हड्डियों और दाँतों को मजबूत करता है। यह दूध, दही व हरी सब्जियों में पाया जाता है।
विटामिन—शरीर को स्वस्थ और रोगों से मुक्त रखता है। यह चावल, गेहूँ, दूध, मक्खन, फल, नींबू, सेम आदि में पाया जाता है।
‘‘जैसा अन्न वैसा मन’’ यह उक्ति इस तथ्य को रेखांकित करती है कि आपका खानपान जैसा होगा आपके मन में भी वैसा ही प्रभाव परिलक्षित होगा क्योंकि भोजन से शरीर में शक्ति का निर्माण होता है क्रूरतम खाद्य पदार्थों के सेवन से क्रूरतम मन बनेगा। मन को निर्मल बनायें, शाकाहार अपनायें यही संदेश हमारे ऋषि-मुनियों ने दिया है।
शाकाहार समूची मानवता के लिए श्रेष्ठतम आहार माना गया है जो मानव की अंत:प्रेरणा से सम्बन्ध रखता है। आहार स्वाद या स्वास्थ्यविषयक तथ्य मात्र नहीं है। यह संस्कृति एवं प्रकृतिविषयक जीवनशैलीमूलक सिद्धान्त है। भारतीय संस्कृति शाकाहार को शक्तिपुंज मानती है। यजुर्वेद में ऋषिगण कहते हैं कि शाकी शक्तिमान अर्थात् जो शाकाहारी है वही शक्तिमान है।
लोकजीवन में ही नहीं लोकोत्तर जीवन में भी भारतीय संस्कृति शाकाहार का अत्यधिक महत्व स्वीकार करती है।
छन्दोपनिषद में ऋषिगण कहते हैं कि आहार की शुद्धि (अिंहसक आहार) से प्राणी के विचार शुद्ध होते हैं। शाकाहार सुखी जीवन की कुंजी है। यह ध्रुव सत्य है क्योंकि शाकाहार सात्विक भोजन है, जो शांत, सरल, निश्छल एवं प्रगतिशील िंचतनधारा को जन्म देता है। तभी तो प्रो. मैक्समूलर को कहना पड़ा था कि ‘‘भारत सोते-जागते धर्माचरण ही करता है।’’
विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसमें अिंहसा को आधार मानकर माँसाहार को वर्जित न किया गया हो। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है-माँसभक्षण कर अपने उदर को कब्रिस्तान न बनाओ। वेद-पुराण, बाइबिल, महाभारत, रामायण, गुरुग्रंथ, सभी विश्वप्रसिद्ध ग्रंथों एवं धर्माचार्यों ने, धर्म संस्कृतियों ने माँसाहार का विरोध तथा शाकाहार का समर्थन किया है इसीलिए यह मानव जाति का मात्र नैतिक पहलू ही नहीं है।
आधुनिक शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि शाकाहारी भोजन से न केवल उच्चकोटि के प्रोटीन प्राप्त होते हैं अपितु भोजन से प्राप्त होने वाले सभी पोषक तत्व विटामिन, खनिज, ऊर्जा आदि प्राप्त होती है।
माँस एक अत्यधिक शीघ्र सड़ने-गलने वाली वस्तु है। मृत्यु के तुरन्त बाद इसमें विकृति आने लगती है व बीमार पशुओं की बीमारियाँ मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। इसके साथ ही वध के भय से जो एक प्रकार का रसायन इन पशुओं के शरीर में उत्पन्न होता है वह माँस को जहरीला बनाता है। अण्डे और माँस में निहित यूरिक एसिड से माँसाहार में जहरीला प्रभाव होता है। माँस में खून मिला होने से इन्फेक्शन बहुत जल्दी होता है। इसके शरीर के रक्त में मिलकर हृदय रोग, टी. वी., एनीमिया, हिस्टीरिया, फेफड़े के रोग, इन्फ्लुएंजा जैसी अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं। इसके विपरीत शाकाहारी भोजन में यह यूरिक तथा यूरिया एसिड नाम का विष बिल्कुल नहीं पाया जाता है। शिकागो में हुए रिसर्च के अनुसार अधिकतम मानसिक रूप से अविकसित तथा शारीरिक रूप से अविकसित बच्चे भी माँसाहारी माता-पिता के ही अधिक होते हैं।
शाकाहारी दीर्घायु, शांतप्रकृति तथा सौम्य स्वभाव के होते हैं क्योंकि यह निश्चित है कि ‘‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन’’, ‘‘जैसा पीओ पानी वैसी बोले वाणी’’। शाकाहार जीवदया की भावना से ओतप्रोत होने के कारण वन्य जीवन और पर्यावरण से भी सम्बन्धित है। आजकल उन्नत चिकित्सा पद्धति ने अनेक खोजपूर्ण तथ्यों से यह सिद्ध कर दिया है कि दीर्घायु और स्वस्थ रहने के लिये शाकाहार सर्वोत्तम आहार है।
आज शाकाहार के गुणों व माँसाहार के अवगुणों तथा वास्तविकताओं से अवगत होना प्रत्येक मानव के लिये आवश्यक हो गया है क्योंकि यह निश्चित है कि जब तक व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान नहीं मिलेगा व्यक्ति अपना स्वभाव या विचार नहीं बदल सकता है अत: सब कुछ जान-समझ लेने के पश्चात् इन निर्बल, निसहाय, मूक प्राणियों के लिये कुछ सोचने व स्वयं के स्वास्थ्य और जीवन के लिए सोच-समझकर निर्णय लेने का आपका अपना मत है कि आप माँसाहारी रहें या शाकाहारी। यह वहम भी माँसाहारी का झूठा है कि माँसाहारी अधिक चुस्त और फुर्तीले होते हैंं। आज अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भारत के गौरव गुरु हनुमान को कौन नहीं जानता, पूर्ण शाकाहारी रहकर आज वे अपने जीवन की लंबी पारी खेल रहे हैं एवं उन्होंने विश्वप्रसिद्ध कई पहलवानों को अपनी शिक्षा से विभूषित किया है।
एवरेस्ट पर विजय हासिल करने वाले शेरपाओं की तंदुरुस्ती का भी यही राज है, शेरपा तेनिंसह अपनी फुर्ती और स्फूर्ति के लिए शाकाहारी भोजन को श्रेय देते हैं।
देश में बढ़ रहे माँसाहार एवं अण्डा व उनसे निर्मित वस्तुओं से आज हमारी संस्कृति खतरे में पड़ गई है। माँसाहार के प्रचार—प्रसार को रोकने के लिए यदि शाकाहारी समाज ठोस कदम नहीं उठाता है तो यह उनके लिए खतरे का बिगुल है। आज देश भर में बूचड़खाने खुलते जा रहे हैं तथा सरकारी माध्यम, आकाशवाणी, दूरदर्शन के लुभावने आकर्षक विज्ञापनों के चंगुल में आज का मानव फंसता जा रहा है, कई राष्ट्रीय कंपनियाँ भारत में इस प्रकार के पदार्थों के उत्पादन बढ़ाने लगी हैं, जो दिखने में आकर्षक लेकिन वास्तव में माँस, अण्डा आदि से निर्मित होते हैं। फैशन के नाम पर भारी संख्या में कृत्रिम प्रसाधन तैयार हो रहे हैं।
आज सभी को जानने-समझने की आवश्यकता है कि अहिंसक भाव हमें विरासत में मिले हैं, यह बात अलग है कि वे भौतिकवादी चकाचौंध से डगमगा गये हैं इसीलिये यथार्थता का बोध कराने हेतु मानव में अहिंसा भावों की पुनर्स्थापना के लिये वर्तमान में जगह-जगह शाकाहार के कार्यक्रम आयोजित कर समूची मानव जाति को आहार के माध्यम से जीवनपद्धति और जीवनशैली को समझाने का प्रयत्न किया जा रहा है जो प्रकृतिजन्य है और ऐसा चिंतन, जो व्यक्ति को जीवन जीने के अधिकार की स्वतंत्रता का पोषक है। जो किसी के जीवन को छीनकर अपनी उदरपूर्ति के लिये उसे आहार की वस्तु नहीं बनाते। भारतीयों में बढ़ता मांसाहार आज जीवन-मरण का यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा है इसलिये आज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है कि शाकाहार का सिंहनाद घर-घर तक पहुंचाने के लिये सभी कृतसंकल्प होवें।
हमारी इस शस्यश्यामला भूमि पर आदिकाल से ही मानव ने आदिब्रह्मा, परमपिता भगवान् ऋषभदेव के द्वारा सिखाई गई जीवनकला के अनुसार अन्न, फल, सब्जी, मेवा आदि खाद्य पदार्थों को खेतों में अपने परिश्रम द्वारा उत्पन्न कर ‘‘कृषि’’ कला का परिचय प्रदान किया है। जिसके आधार पर हम सभी शाकाहारी जीवन जीकर अपनी ‘‘भारतीय संस्कृति’’ पर गौरव करते हुए दुनिया भर की दृष्टि में सदाचारी के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।
परन्तु इसे कलियुग का अभिशाप कहा जाए अथवा पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण ? इसे मानवीय अत्याचार कहें अथवा अत्याधुनिक बनने की होड़ में छिपा अमानुषिक व्यवहार ? समझ में नहीं आता कि राम, कृष्ण, महावीर के जिस देश में सदैव दूध की नदियाँ बहती थीं, खेतों में सुगन्धित हरियाली लहराती थी, सड़क के आजू—बाजू वृक्षों पर लगे स्वादिष्ट फल मन को मुग्ध करते थे तथा जहाँ गरीब, अमीर सभी के घर गोधन से समाविष्ट रहते थे, प्रत्येक घरों में दूध की पौष्टिक सुगन्धि महकती थी और बच्चे, बूढ़े सभी मिल-बांटकर काजू, बादाम, मूंगफलियाँ खाते-खाते मनोरंजन करते तथा रामलीलाएँ देखा करते थे, आज बीसवीं सदी के समापन दौर पर इस उपर्युक्त जीवन प्रक्रिया में बहुत तेजी से विकृति आ रही है। जैसे-पशुपालन केन्द्रों के स्थान पर लगभग समस्त राज्यों में अनेक बड़े-बड़े बूचड़खाने खुल गये हैं, जिनसे सतत खून की नदियाँ बहकर धरती माता की छाती कम्पित कर रही हैं। हरे-भरे खेतों की जगह धरती का तमाम प्रतिशत भाग मुर्गीपालन केन्द्र (पॉल्ट्री फार्म), मत्स्यपालन, सुअरपालन, कछुवा पालन आदि केन्द्रों के रूप में कृषि के नाम को कलंकित कर रहा है जिसके कारण सड़क पर चलते पथिकों को वहाँ से निकलती दुर्गन्ध के कारण नाक बन्द करके द्रुतगति से कदम बढ़ाने पड़ते हैं। यदि भूल से कभी उधर नजर पड़ जाए तो पेड़ों के फलों की जगह अण्डों के दुर्दर्शन होने लगते हैं जो हृदय को दुर्गन्धित और घृणा से पूरित कर देता है।
गरीब-अमीर सभी भारतीयों के कुछ प्रतिशत घरों में अब प्रात:काल से ही गरम-गरम दूध की जगह नशीली चाय और उसके साथ अण्डों से बनी वस्तुएँ—बिस्कुट, केक, पेस्ट्री आदि तथा डायरेक्ट अण्डों का मांसाहारी नाश्ता और भोजन प्रचलित हो गया है जो बालक, वृद्ध सभी के मन और तन को विकृत कर रहा है। इसी प्रकार गाँव—गाँव की चौपालों पर अब सामूहिक रूप से देशी-विदेशी शराबों का दौर तथा जुआ व्यसन का वृिंद्धगत रूप देखने में आने लगा है।
ऐसी न जाने कितनी विकृतियाँ भारतीय समाज में व्याप्त हो गई हैं जो परिवार, समाज एवं देश के पतन का कारण तो हैं ही, भारत को पुन: परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ने की भूमिका भी निभा रही हैं। देश के सम्भ्रान्त वर्ग को इस ओर शीघ्रता से ध्यान देना होगा अन्यथा भारतीयता की रीढ़ टूटते देर नहीं लगेगी और लकवायुक्त मनुष्य की भाँति भारत पुन: दाने—दाने का मोहताज होकर दूसरे देशों की ओर दयनीय मुद्रा से ताकता हुआ नजर आएगा।
भगवान ऋषभदेव के वंशज एवं भारतीय होने के नाते हमें यह अटल विश्वास रखना चाहिए कि पेड़ से उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु शाकाहारी और पेट से उत्पन्न होने वाली सभी वस्तुएं मांसाहारी होती हैं। शाकाहारी वस्तु में खून, पीव, मांस, हड्डी आदि का सम्मिश्रण नहीं होता है तथा मांसाहारी वस्तुएं अण्डा, मछली सभी खून, मांस वगैरह का पिण्ड होने से अखाद्य ही कहलाती हैं। इन्हें शाकाहारी कभी भी नहीं कहना चाहिए और न ही ऐसे उत्पत्ति स्थलों को कृषि संंज्ञा प्रदान करनी चाहिए।
आधुनिक युग में इन उपर्युक्त हिंसक केन्द्रों एवं राज्य सरकारों के द्वारा जो प्रोत्साहन प्रदान किया जा रहा है तथा विभिन्न बैंकों के द्वारा इन व्यापार केन्द्रों को कृषि के नाम पर ऋण दिये जा रहे हैंं वह तीव्र पापबन्ध के कार्य हैं। इन क्रियाकलापों से भारत देश की गरीबी कभी भी मिट नहीं सकती है प्रत्युत उसकी आर्य संस्कृति का विनाश होकर क्रूर म्लेच्छ संस्कृति का विकास होगा।
वास्तव में हम सबके लिए यह अत्यन्त विचारणीय विषय है कि जिस देश में हमेशा आध्यात्मिकता और हिंसा धर्म का विदेशों में निर्यात होता था, जिसके कारण हमने आजादी प्राप्त की थी उस देश से आज मांस का निर्यात करना अथवा अण्डों को शाकाहार कहकर जनता को स्वतंत्र रूप से मांसाहार की प्रेरणा देना क्या अपनी संस्कृति पर कुठाराघात नहीं है ? धरती माता आखिर इन पशु अत्याचारों को कितना सहन कर सकती है ? उस माँ की ममता पर मानव और पशु सभी का समान अधिकार है। यहाँ जब मनुष्य अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके पशुओं पर अत्याचार करने लगा, उनकी गर्दनों पर छुरी चलाने लगा तो धरती माँ काँप उठी और उसने भूकम्प, प्रलय आदि अनेक प्राकृतिक प्रकोपों के द्वारा मनुष्य को दण्ड देने का निर्णय ले लिया अर्थात् इन हिंसात्मक कृत्यों के कारण ही आज जगह-जगह भूकम्प, बाढ़, गैसकाण्ड, रेल दुर्घटना, बादल फटना आदि अनेक दुर्घटनाएँ घटित हो रही हैं जिससे मानव विनाश के कगार पर पहुँच गया है।
देश से बाहर मांस का निर्यात करना आर्य संस्कृाfत के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात और नैतिक अपराध है। जैसे कोई नारी अपनी अस्मिता को बेचकर यदि पैसा कमाने का धन्धा करती है तो उसे सभी दुराचारिणी एवं वेश्या के नाम से बुरी नजरों से देखते हैं, उसी प्रकार भारत देश अपनी अस्मितारूप पशुधन को क्रूरतापूर्वक पश्चिमी देशों के हाथों बेचकर अन्य देशों की नजरों में हिंसक व क्रूर बन गया है।
शाकाहार प्राकृतिक भोजन है, मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी है।
शाकाहार में भोजन तन्तु अधिक पाये जाते हैं।
शाकाहार सस्ता एवं पौष्टिक होता है।
शाकाहार शक्ति से भरपूर होता है।
शाकाहार से चित्तवृत्तियाँ शान्त होती है एवं मन प्रसन्न रहता है।
शाकाहार से व्यवहार में शालीनता आती है, शरीर स्वस्थ-चुस्त रहता है।
शाकाहारी पद्धति विश्व में हिंसा दूर करने की दिशा में ठोस कदम है।
शाकाहार हमारे अनुकूल निर्दोष, निरापद, आरोग्यवर्धक और तृप्तिकर आहार है।
शाकाहार हमारे उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिये नैतिक और धार्मिक दोनों रूपों में सही आहार है।
शाकाहार शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति एवं शारीरिक क्षमता में वृद्धि करता है।
शाकाहार पर मनुष्य पूरी एवं लम्बी उम्र सरलता से जी सकता है परन्तु मांसाहार पर नहीं।
शाकाहार सात्विक आहार है, वह मानवीय गुणों को विकसित करता है।
शाकाहार एवं अिंहसा एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
शाकाहार के अभाव में अिंहसक समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
शाकाहार विश्व की भोजन समस्या का सबसे किफायती समाधान है।
मांसाहार मानवता पर कलंक है।
मांसाहार रोगों का जन्मदाता है।
मांसाहार से हृदय रोग, मिर्गी, गुर्दे के रोग, पथरी, कैन्सर एवं ब्लडप्रेशर आदि ऐसे रोगों की सम्भावना रहती है, जिनकी कोई सर्वसुलभ एवं स्थायी चिकित्सा नहीं है।
मांसाहार नैतिक एवं आध्यात्मिक पतन का कारण है।
मांसाहार तामसी वृत्ति को जन्म देता है।
मांसाहार प्राकृतिक आहार नहीं है।
मांसाहार के प्रचलन से भूस्खलन, वनों की बरबादी, जल प्रदूषण जैसे दुष्परिणाम प्रगट हुए हैं।
मांसाहार से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है।
मांसाहार से प्रकृति में पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाता है।
मांसाहार करना धर्मविरुद्ध है। इसका निषेध पृथ्वी के सभी धर्म प्रवर्तक एवं महापुरुषों ने किया है।
मांसाहार मनुष्य को क्रूर, बेरहम, हृदयहीन एवं हिंसक बनाता है। मांसाहार आर्थिक रूप से अधिक महंगा होता है। एक मांसाहारी के भोजन का खर्च ७ शाकाहारी व्यक्तियों के भोजन के खर्च के बराबर होता है।
मांसाहार से पाचन तंत्र पर काफी दबाव पड़ता है इसलिये पाचन शक्ति असन्तुलित एवं कमजोर हो जाती है।
मांसाहार से पाचन क्रिया मन्द, विखण्डित और दुर्गन्धयुक्त हो जाती है।
मांसाहार यदि मनुष्य का भोजन होता तो उसके दाँत और नाखून मांस खाने वाले, शेर आदि जानवरों की तरह नुकीले और तीखे होते परन्तु मनुष्य के नहीं हैं, वह प्रकृति से शाकाहारी है।
जियो और जीने दो।
किसी प्राणी के साथ ऐसा व्यवहार न करो, जैसा तुम अपने लिये नहीं चाहते।—भगवान महावीर
किसी भी प्राणी का वध मत करो।—वेद धर्मोपदेश
जीव मारने की सलाह देने वाला, माँस को बेचने वाला, पकाने एवं खाने वाला ये सभी पापी हैं। —मनुस्मृति (५—४५)
जो कच्चा या पक्का मांस खाते हैं जो गर्भ का विनाश करते हैं, उनका सर्वनाश होगा।—अथर्ववेद (८—६—२३)
जो लोग दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहते हैं उनसे बढ़कर संसार में कोई निर्दयी नहीं है।—महाभारत ११६
जो रत्त लागे कापडा, जामा होइ पलीत। ते रत पीवे मानवा, तिन क्यूँ निर्मल चीत।।—गुरुग्रंथ साहब
अल्लाह खून और गोश्त पसन्द नहीं करता। अल्लाहताला को तुम्हारी कुर्बानियों (बलि) के गोश्त और लहू से कोई वास्ता नहीं है।—पवत्रि कुरान शरीफ
दुनिया के प्रत्येक प्राणी पर रहम करो क्योंकि खुदा ने तुम पर बड़ी मेहरबानी की है।—पवित्र ग्रंथ हदीस
तुम सदैव मेरे पास एक पवित्र आत्मा होंगे, बशर्ते कि तुम किसी का माँस नहीं खाओ।—होली बाइबिल
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल। जो बकरी को खात है, ताको कौन हवाल।।—महात्मा कबीरदास
मद्य मांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभक्षणम्। ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थयात्रा जपस्तप:।।
जो मनुष्य मदिरापान करते हैं, माँस खाते हैं, रात्रि में भोजन करते हैं, जमीकन्द का भक्षण करते हैं, उनकी तीर्थयात्रा जप-तप सभी व्यर्थ जाते हैं। —महाभारत
परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। —रामचरितमानस