णर—भव पावेप्पिणु तच्च मुणेप्पिणु खंचिवि पंचिंदिय समणु।
णिव्वेउ पमंडि वि संगइ छंडि वि तउ किज्जइ जाएवि वणु।।
तं तउ जिंह परगहु छंडिज्जइ, तं तउ जिंह मयणु जि खंडिज्जइ।
तं तउ जिंह णग्गत्तणु दीसइ, तं तउ जिंह गिरिकंदरि णिबसइ।।
तं तउ जिंह उवसग्ग सहिज्जइ, तं तउ जहिं रायाइं जिणिज्जइ।
तं तउ जिंह भिक्खइ भुञ्जिज्जइ, सवाय—गेह कालि णिवसिज्जइ।।
तं तउ जत्थ समिदि परिपालणु, तं तउ गुत्ति—त्तयंह णिहालणु।
तं तउ जिंह अप्पापरु बुज्झिउ, तं तउ जिंह भव—माणु जि उज्झिउ।।
तं तउ जिंह ससरूव मुणिज्जइ, तं तउ जिंह कम्महं गणु खिज्जइ।
तं तउ जिंह सुर भत्ति पयासइ, पवयणत्थ भवियणहं पभासइ।।
जेण तवें केवलु उप्पज्जइ, सासय सुक्खु णिच्च संपज्जइ।
—घत्ता—
बारह—विहु तउ वरु दुग्गइ परिहरु तं पूजिज्जइ थिरगणिणा।
मच्छरु मउ छंडिवि करणइं दंडिवि तं पि धइज्जइ गउरविणा।।
अर्थ—मनुष्य भव को प्राप्त कर, तत्वों का मनन करके, मन के साथ—साथ पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, निर्वेद को प्राप्त होकर और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके वन में जाकर भी तप करना चाहिए।तप वह है जहाँ परिग्रह का त्याग किया जाता है, तप वह है जहाँ काम को भी नष्ट कर दिया जाता है, तप वह है जहाँ नग्न मुद्रा दिखाई देती है और तप वह है जहाँ पर्वतों की कंदराओं में निवास किया जाता है।तप वह है जहाँ उपसर्ग को सहन किया जाता है, तप वह है जहाँ रागादि भावों को जीता जाता है, तप वह है जहाँ भिक्षावृत्ति से भोजन किया जाता है और श्रावक के घर योग्य काल में जाया जाता है।तप वह है जहाँ समिति का परिपालन होता है, तप वह है जहाँ तीन गुप्तियों की ओर ध्यान दिया जाता है, तप वह है जहाँ अपने और पर के स्वरूप का विचार किया जाता है और तप वह है जहाँ भव—पर्याय के अहंकार को छोड़ा जाता है।
तप वह है जहाँ अपने स्वरूप का िंचतवन किया जाता है, तप वह है जहाँ कर्मों का नाश किया जाता है, तप वह है जहाँ देवगण अपनी भक्ति प्रकाशित करते हैं और जहाँ भव्य जीवों के लिए प्रवचन के अर्थ का कथन किया जाता है।तप वह है जिसके होने पर निश्चित ही केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है और जिससे नित्य शाश्वत सौख्य की प्राप्ति की जाती है।बारह प्रकार का तप उत्तम है और दुर्गति का परिहार करने वाला है। अत: स्थिर मन होकर उसकी पूजा करनी चाहिये और मद तथा मात्सर्य भावों को छोड़कर पाँचों इन्द्रियों का दमन कर गौरव के साथ उस उत्तम तप को धारण करना चाहिये।
तपो द्वादशधा प्रोक्तं, बाह्याभ्यंतरसंयुतम्।
बाह्यमनशनादि स्यात्, प्रायश्चित्तादि चांतरम्।।१।।
सम्यक््â तपांसि रुन्ध्दंति, पतनं भववारिधौ।
कायं कृष्ट्वा समाप्नोति नरोऽनंतबलं सुखम्।।२।।
मयनाममुनीशं सा स्पृष्ट्वा िंसहेन्दुकं पिंत।
अस्प्राक्षीत् तत्क्षणं सोऽपि, निर्विषस्तमपूजयत्।।३।।
तपोभिर्दीप्ततप्ताद्या: ऋद्धय: प्रभवन्त्यरम्।
निस्पृहा अपि ते सन्त: कथ्यन्तेऽत्र तपोधना:।।४।।
इच्छां सर्वां निरुध्याशु, तप्त्वा सम्यक््â तप: स्वयं।
ध्यानाग्नौ कर्मकाष्ठानि क्षिप्त्वा शुद्धो भवाम्यहम्।।५।।
‘कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तप:।’ कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है।
तप के बाह्य और आभ्यंतर से युक्त बारह भेद कहे गए हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। सम्यक््â तप जीव के संसार समुद्र में पतन को रोक लेते हैं। मनुष्य काय को कृश करके अपने अनंतबल और सुख को प्राप्त कर लेता है। एक रानी ने मय नाम के ऋद्धियुक्त मुनि का स्पर्श करके विष से मूर्छित अपने पति राजा िंसहेंदु का स्पर्श किया जो उसी क्षण वे निर्विष हो गए पुन: उन मुनि की पूजा की। तप के प्रभाव से दीप्त तप, तप्ततप आदि ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं फिर भी वे साधु उनसे निस्पृह रहते हैं अत: वे ‘तपोधन’ इस सार्थक नाम से पुकारे जाते हैं। सम्पूर्ण इच्छाओं का निरोध करके मैं सम्यक््â तप को तपकर ध्यानरूपी अग्नि में कर्म ईंधन को डालकर शुद्ध हो जाऊँगा।।१ से ५।। ऐसी भावना से ही कर्म नष्ट होते हैं।
पद्मपुराण में कहा है—
‘सुखासनविहार: सन् सदा कशिपुसक्तधी:।
सिद्धंमन्यो विमूढ़ात्मा जनोऽयं स्वस्य वञ्चका:१।।
जो मनुष्य सुखपूर्वक उठता—बैठता और विहार करता है तथा सदा भोजन और वस्त्रों में आसक्त रहता है फिर भी अपने आपको सिद्ध मानता है वह मूर्ख अपने आपकी वंचना करता है।
तीर्थंकरों ने भी पूर्व भव में िंसहनिष्क्रीडित आदि बहुत से व्रत किए हैं आज कल के मुनि भी उपवास आदि तपश्चरण में महान् सिद्ध होते हैं। देखो! चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने अपने ३५ वर्ष के मुनि जीवन में तमाम व्रत किए हैं जिनके उपवासों के दिनों की संख्या २५ वर्ष छह महीने तक की है और आहार के दिनों की संख्या केवल साढ़े नौ वर्ष की है अन्य—अन्य साधु वर्गों ने भी महीने, पक्ष आदि के उपवास करके अपनी देह से नि:स्पृहता का परिचय दिया है।
श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि ‘जिससे जीव का उपकार होता है उससे शरीर का अपकार होता है और जिससे शरीर का उपकार होता है उससे जीव का अपकार होता है२।- तथा श्री कुंदकुंद देव कहते हैं कि ‘‘जो सुखिया जीवन में तत्त्व की भावना भाते हैं उनका ज्ञान दु:ख आने पर नष्ट हो जाता है अत: दु:ख को बुलाकर आत्म तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।’’ तथा ‘तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप अकार्यकारी है अत: ज्ञान और तप से युक्त होकर निर्वाण प्राप्त होता है। देखो तीर्थंकर को निर्वाण जाना निश्चित है, दीक्षा लेते ही मन:पर्यय ज्ञान हो जाता है फिर भी वे तप करते हैं, ऐसा जानकर तप करना चाहिए३।’’
इस कथन से उपवास आदि का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। तपश्चरण के प्रभाव से अनेकों ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। मय विद्याधर (मंदोदरी के पिता) मुनि हो गए। ऋद्धि सहित थे एक समय िंसहेदु राजा अपनी रानी के साथ वन में विचरण कर रहे थे। सर्प के डसने से मूर्छित हो गये। तब रानी ने ‘मयमुनि’ के शरीर का स्पर्श कर पति को स्पर्श किया, उसी क्षण वे राजा निर्विष हो गये। विशल्या ने पूर्वभव में तप किया था जिसके फलस्वरूप उसके स्नान के जल से सर्वरोग और विष नष्ट हो जाते थे। अनंतवीर्य मुनिराज अपने ५६ हजार मुनि सहित आकाश मार्ग से लंका में पहुँचे। जिस दिन रावण की मृत्यु हुई थी उसी दिन के अन्तिम प्रहर में वे पहुँचे और रात्रि के पिछले प्रहर में अनंतवीर्य मुनि को केवलज्ञान हो गया। गणधर देव कहते हैं कि—
‘रावणे जीवति प्राप्तो यदि स्यात् स महामुनि:।
लक्ष्मणेन समं प्रीतिर्जाता स्यात्तस्य पुष्कला।।’
यदि रावण के जीवित रहते यह महामुनि आ जाते तो लक्ष्मण के साथ रावण की बहुत बड़ी प्रीति हो जाती। क्योंकि ऋद्धिधारी मुनि और केवली जहाँ रहते हैं उनसे दो सौ योजन तक उपद्रव आदि नहीं होता है१।’वास्तव में जो शरीर से आत्मा को भिन्न समझते हैं वे अध्यात्म प्रेमी ही शरीर से नि:स्पृह होकर तप कर सकते हैं। भीम मुनि ने भाले के अग्रभाग से आहार लेने का नियम ले लिया, वह छह महीने में मिला तब उनका आहार हुआ। मुनियों के सिवाय श्रावकों—श्राविकाओं ने भी रोहिणी, जिनगुण संपत्ति आदि उपवासों को करके परम्परा से मुक्ति को प्राप्त किया है।इन तपों में विनय करना, वैयावृत्य करना, स्वाध्याय करना ये अंतरंग तप हैं। अंत में ध्यान तप है उसी के द्वारा ही कर्मों का पूर्णतया नाश किया जाता है। इस प्रकार से इन बारह तपों में से यथाशक्ति तप करते रहना चाहिये। शरीर से निर्मम होने के लिये तप का अभ्यास अतीव उपयोगी है। प्रमाद छोड़कर अभ्यास करने से सर्वकार्य सिद्ध हो जाते हैं अत: तपधर्म हमेशा ग्राह्य है यह भी श्रावक के छह आवश्यकों में एक आवश्यक माना गया है।
बाह्य तप के प्रभाव से भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। जैसा कि उदाहरण प्रसिद्ध है—
विदेह क्षेत्र में पुण्डरीक नाम का एक देश है। उसके चक्रधर नामक नगर में त्रिभुवनानन्द नाम का चक्रवर्ती छह खंड पृथ्वी पर एकच्छत्र अनुशासन करता हुआ स्थित था। उसकी अनंगशरा नाम की एक कन्या थी जो कि सर्व गुणों से मंडित और सौंदर्य की एक अपूर्व सृष्टि थी। चक्रवर्ती का एक पुनर्वसु नाम का सामन्त था जो कि प्रतिष्ठपुर नगर का स्वामी था। उस कन्या के सौंदर्य पर आसक्त हो उसने किसी समय उसका अपहरण कर लिया और विमान पर बिठाकर आकाश मार्ग से भागा। क्रोध से भरे चक्रवर्ती की आज्ञा पाकर सेवकों ने उसका पीछा किया और युद्ध कर उसके विमान को चूर—चूर कर डाला। तब पुनर्वसु ने पर्ण लघ्वी विद्या के सहारे उस कन्या को विमान से नीचे छोड़ दिया। वह कन्या उस विद्या के सहारे धीरे से श्वापद नामक महाअटवी में आ गिरी।
वह महावन ऐसा था जो बड़े—बडे विद्याधरों को भी भय उत्पन्न करने वाला था। जिसके अन्दर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन था, जहाँ पर बड़े—बड़े वृक्षों की सघन झाड़ियों से अंधकार ही अंधकार बना रहता था अत: सूर्य की किरणें जहाँ पर अवकाश नहीं पा सकती थीं। उस सघन वन में भेड़िये, शरभ, चीते, तेंदुए और िंसह आदि क्रूर जन्तु ही अपना निवास स्थान बनाए हुए थे। वहाँ की भूमि कठोर थी और कहीं अतीव ऊँची थी तो कहीं अतीव नीची थी। जिधर देखो उधर ही बड़े—बड़े बिल दिखाई देते थे जिनमें से निकल—निकल कर बड़े—बड़े सर्प फण उठाए घूम रहे थे। उस वन में अनंगशरा बालिका चारों तरफ दृष्टि डालते हुए महाभय से आक्रांत हो मूर्च्छित हो गई। जब होश आया भय से काँपती हुई जोर—जोर से दहाड़ मार—मार कर रोने लगी। वह कन्या विलाप कर रही है—
हाय! मैं लोक की रक्षा करने वाले इन्द्र के समान सुशोभित त्रिभुवनानंद नाम के चक्रवर्ती पिता से उत्पन्न हुई हूँ और महास्नेह से लालित हुई हूँ फिर भी आज भाग्य की प्रतिकूलता से इस महाकष्ट की अवस्था को प्राप्त हो रही हूँ। हाय, पिता, तुम तो महापराक्रमी हो षट्खंड स्वरूप इस लोक की पूर्णतया रक्षा करते हो, फिर वन में असहाय पड़ी हुई मुझ पर दया क्यों नहीं करते? हाय माता! गर्भ में धारण कर वैसा दु:ख सहकर इस समय तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करती हो ? हाय! मेरे भाई—बंधु आदि परिजन तुमने मुझे एक क्षण के लिये भी अकेली नहीं छोड़ा था पुन: आज मेरी सुध क्यों नहीं ले रहे हो? हाय, हाय, मैं दुखिया इस समय क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? किसका आश्रय लूँ? किसे देखूँ? और इस महावन में पापिनी वैâसे रहूँ? क्या यह स्वप्न है अथवा नरक में मेरा जन्म हो गया है? क्या मैं वही हूँ अथवा यह कौन सी दशा प्रकट हुई है?
इस प्रकार चिरकाल तक विलाप कर वह अत्यन्त विह्वल हो गई। उसका वह विलाप क्रूर पशुओं के भी मन को द्रवित करने वाला था। जब वह भूख की बाधा से व्याकुल होती थी तब वन के फल—पत्तों को खाकर नदी अथवा झरने का पानी पीकर कुछ शांत हो जाती थी। पुन: कुटुम्बी जनों की याद कर—कर के रोने लगती थी और कभी—कभी महामंत्र का स्मरण करते हुए धैर्य धारण करती थी। उसका सारा शरीर शोकरूपी अग्नि से झुलस गया था। कभी रो—रोकर पागल जैसी हो जाती थी, कभी मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर जाती थी, कभी उठकर इधर—उधर चलने लगती थी और जंगल से निकलने का मार्ग ढूँढने लगती थी। उस भयावह जंगल में मार्ग न प्राप्त कर पुन: निराश हो धरती माता की गोद में सो जाती थी। शीतकाल की बर्फ से, कुहरे से, बरसात से उसका शरीर नष्टप्राय हो गया था किन्तु फिर भी उसका मरण नहीं हो रहा था, न ही कोई जंगली प्राणी ही उसका भक्षण करते थे। ग्रीष्म ऋतु की भयंकर गर्मी से वह झुलसने लगती थी और सोचती थी कि क्या यह ही नरक स्थान है? वर्षा ऋतु की मूसलाधार बारिश भी वह अपने खुले शरीर पर ही झेलती थी। उसके पहने हुये वस्त्र गलकर समाप्त हो चुके थे अत: वन के पत्तों से ही वह अपने शरीर को ढकने का प्रयत्न करती रहती थी। हाय! मैं चक्रवर्ती से उत्पन्न होकर भी इस निर्जन वन में ऐसी दुरावस्था को प्राप्त हो रही हूँ। सो निश्चित ही मैंने जन्मांतर में घोर पाप संचित किया होगा, उसी का यह फल आज मुझे भोगने को मिल रहा है। इस प्रकार अविरल अश्रु वर्षा से जिसका मुख दुर्दिन के समान हो गया था। ऐसी वह अनंगशरा नीची दृष्टि से पृथ्वी की ओर देखकर स्वयं पक कर गिरे हुए ऐसे फलों को उठाकर खाकर शांत हो जाती थी। कभी वह बेला करती थी, कभी तेला करती और कभी अनेकों उपवास कर लेती थी पुन: उपवास से अत्यन्त कृश हो जाने के बाद कभी वह केवल पानी से पारणा करती थी सो भी एक ही बार और कभी कुछ फल खाकर संतुष्ट होती थी।
जो अनंगशरा पहले अपने केशों से च्युत हो शैय्या पर पड़े हुये फूलों से भी खेद को प्राप्त होती थी वह इस वन में मात्र उबड़—खाबड़ कंकरीली पृथ्वी पर ही अनेकों रात्रियाँ निकाल चुकी है। जो पहले पिता के संगीत को सुनकर जागती थी, वह यहाँ पर सियार आदि के भयंकर शब्दों को सुनकर जागती है। इस प्रकार से सर्दी, गर्मी और बरसात के दु:खों को अपने शरीर पर झेलती हुई तथा अनेकों उपवास कर—करके प्रासुक आहार से पारणा करती हुई उस कन्या ने तीन हजार वर्ष तक महान उग्र घोरातिघोर बाह्य तप किया। इतने दिनों तक उस वन में उसे मनुष्य का दर्शन तो क्या, शब्द भी सुनने को नहीं मिला। शरीर भी उसका तपश्चरण से और कष्ट के झेलने से अब शुष्क हो चुका था। तब जीवन से निराश हो उस धीर—वीर बाला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली। उसने जिन शासन में पहले जैसा सुन रखा था वैसा नियम ग्रहण कर लिया कि मैं अब सौ हाथ से बाहर की भूमि में नहीं जाऊँगी।
उसे सल्लेखना का नियम लेकर जब छह दिन व्यतीत हो गये तब लब्धिदास नामक एक पुरुष जो कि मेरु पर्वत की वंदना कर लौट रहा था सो उसने उस कन्या को देखा। वह उसे उसके पिता के पास ले जाने के लिये तैयार हुआ तब कन्या ने यह कहकर मना कर दिया कि मैंने अब यम सल्लेखना ग्रहण कर ली है। लब्धिदास ने शीघ्र ही चक्रवर्ती त्रिभुवनानंद के पास पहुँचकर कन्या का समाचार सुना दिया। कन्या के अपहरण के बाद चक्रवर्ती ने सर्वत्र अपने लोगों को भेज—भेजकर उसका पता लगवाया था किन्तु कोई भी उसे ढूँढ नहीं सके थे। इसी कन्या के शोक में चक्रवर्ती भी अपनी विशाल सम्पत्ति को तुच्छ समझते थे। उसकी माता भी रो—रोकर अपने शरीर को दुर्बल कर चुकी थी। उस समय चक्रवर्ती तमाम परिजन को लेकर अति शीघ्र ही वहाँ पहुँचे। वह वहाँ देखते हैं कि अत्यन्त भयंकर एक मोटा अजगर उस बाला को खा रहा था। यह देख उस कन्या को छुड़ाने में तत्पर हो चक्रवर्ती ने उस अजगर को अलग करना चाहा कि कन्या ने तत्क्षण ही रोक दिया। उस स्थूल अजगर के द्वारा खाई गई वह कन्या महामंत्र का स्मरण करते हुये धैर्यपूर्वक शरीर छोड़कर ईशान स्वर्ग में देवी हो गई।इस घटना से चक्रवर्ती त्रिभुवनानंद को महान वैराग्य उत्पन्न हो गया। उस समय उन्होंने अपने बाईस हजार पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।अनंगशरा कन्या स्वर्ग के सुखों का अनुभव करके राजा द्रोणमेघ की रानी के गर्भ में आ गई। उस समय रानी अनेकों रोगों से पीड़ित थी, कन्या के गर्भ में आते ही माता पूर्णतया नीरोग हो गई।
किसी समय िंवध्य नाम का व्यापारी ऊँट, गधे तथा भैंसे आदि जानवरों पर सामान लाद कर अयोध्या में आया और वहाँ ग्यारह माह तक रहा। उनमें से एक भैंसा तीव्र रोग से पीड़ित हो नगर के बीच में गिर पड़ा। कितने ही दिनों तक पड़ा रहा। लोग उसे ठुकरा कर चलते थे कभी कोई उसके मस्तक पर पैर रख—रखकर चले जाते थे। वेदना से और भूख—प्यास से पीड़ित होकर भी शांतभाव धारण करते हुये उसने प्राण छोड़ा। तब अकाम निर्जरा के प्रभाव से वह वायवावर्त नाम का धारक वायु कुमार जाति के देवों का स्वामी हो गया। अवधिज्ञान के निमित्त से उसने पूर्वभव के पराभाव को जान लिया। तब उसने अयोध्या में आकर महारोग उत्पन्न करने वाली बहुत ही भयंकर विषम वायु चला दी, जिससे अयोध्या में भयंकर रोगों का प्रकोप पैâल गया। महादाहज्वर, सर्वशूल रोग, अरुचि वमन, फोड़े, सूजन आिद अनेकों रोगोंं से शहर में त्राहि—त्राहि मच गई। जब भरत महाराज ने सुना कि हमारे शहर में क्या सारे देश में कोई भी निरोग नहीं बचा है। मात्र एक द्रोणमेघ नाम का राजा है जो कि अपने मंत्री, परिवार आदि के साथ—साथ पूर्ण स्वस्थ रह रहे हैं। भरत महाराज ने उन्हें बुलाकर कहा कि हे महानुभाव! आप जैसे स्वस्थ हैं वैसे ही हम लोगों को स्वस्थ करना उचित है। तब राजा द्रोणमेघ ने अपने अन्त:पुर से सुगन्धित जल मंगवाकर उन सभी पर सििंचत किया जिससे सभी का रोग शांत हो गया। तब भरत राजा के कहने से द्रोणमेघ ने सारे अयोध्या निवासियों को निरोग कर दिया।
उस प्रसंग में भरत महाराज ने प्रश्न किया कि यह महिमाशाली सुगन्धित श्री जल आपने वैâसे प्राप्त किया है? द्रोणमेघ ने कहा—हे देव! मेरी कन्या विशल्या है, यह उसी पुण्यशालिनी के स्नान का जल है जो कि सर्व रोगों का नाशक सिद्ध हो चुका है और उस जल के द्वारा अब तक अगणित जीवों ने जीवन लाभ प्राप्त किया है।किसी समय देवगीतपुर के विद्याधर चन्द्रप्रतिम आकाश मार्ग में विचरण कर रहे थे। उसी समय उनका शत्रु सहस्रविजय कुछ पुराने वैर को याद कर क्रोध को प्राप्त हो उसके साथ युद्ध करने लगा। उस युद्ध में चंडरवा नाम की शक्ति (देवोपनीत अस्त्र) से उसे मारा जिससे वह मरणासन्न होकर रात्रि के समय आकाश से गिरा, जहाँ पर वह गिरा वह अयोध्या का महेन्द्रोदय नामक उद्यान था। आकाश से पड़ते हुये तारािंबब के समान उसे देखकर राजा भरत तर्क करते हुये उसके पास पहुँचे और शक्ति से शल्ययुक्त वक्षस्थल को देखकर दया से आर्द्र हो उठे। उन्होंने तत्क्षण ही जीवनदान देने वाले जल को मँगाकर उस चन्द्रप्रतिम विद्याधर को स्वस्थ कर दिया।
जब राम—रावण के युद्ध में रावण ने लक्ष्मण को अमोघविजया नामक शक्ति से घायल कर दिया था और उनके जीवन में संशय उपस्थित हो गया था, उस समय यह चंदप्रतिम विद्याधर वहाँ पहुँच कर इस विशल्या के स्नान जल के महत्त्व को बतला कर रामचन्द्र को आशवस्त करता है। तब रामचन्द्र शीघ्र ही रात्रि में ही भामंडल, हनुमान आदि को अयोध्या नगरी में भरत के पास उसी सुगन्धित जल हेतु भेज देते हैं। भरत राजा सर्व समाचार विदित कर अपने अग्रज के जीवन हेतु उपाय में सन्नद्ध हो द्रोणमेघ के पास पहुँचते हैं तब वे द्रोणमेघ अपनी विशल्या कन्या को ही भामंडल आदि के साथ वहाँ भेज देते हैं। विशल्या के निकट पहुँचते ही लक्ष्मण के वक्षस्थल से शक्ति नामक अस्त्र निकल जाता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं। यह है बाह्य तप का अद्भुत चमत्कार।
जिस समय वह अमोघ शक्ति नाम की विद्या लक्ष्मण के वक्षस्थल से निकलकर आकाश मार्ग से जाने लगी, हनुमान ने उसे पकड़ लिया तब वह देवी के रूप में प्रकट हो बोली, हे हनुमान! मैं तीनों लोकों में प्रसिद्ध अमोघविजया नाम की विद्या हूँ। इस समय इस संसार में इस विशल्या के सिवाय मैं किसी से पराजित नहीं की जा सकती थी। पूर्वभव में इसने अपना शिरीष के फूल के समान सुकुमार शरीर ऐसे तप में लगाया था कि जो प्राय: मुनियों के लिए भी कठिन था। सचमुच में इसीलिए यह मानव जीवन सारभूत है कि जहाँ पर ऐसे—ऐसे कठिन तप किये जा सकते हैं।
जाप्य—ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय नम:।
उत्तम तप द्वादश विध माना, बाह्याभ्यंतर के भेदों से।
अनशन ऊनोदर वृत्तपरीसंख्या१, रस त्याग प्रभेदों से।।
एकान्त शयन आसन करना, तनु क्लेश यथाशक्ति तप है।
तपने से स्वर्ण शुद्ध होता, आत्मा भी तप से शुद्धि लहे।।१।।
प्रायश्चित विनय सुवैयावृत, स्वाध्याय उपाधि का त्याग कहे।
शुचि ध्यान छहों अन्तर तप ये, इनसे ही कर्म कलंक दहे।।
आगम विधि से सम्यक््â तप ये, आत्मा की पूर्ण शुद्धि करते।
जो तप से मन को कृश करते, वे आत्मबली सिद्धि वरते।।२।।
व्रत कर्म दहन चारित्र शुद्धि, जिनगुण संपति कहे उत्तम।
कनकावली रत्नावली आदिक, सर्वतोभद्र जग में उत्तम।।
व्रत श्रेष्ठ िंसहनिष्क्रीड़ितादि, नन्दन मुनि ने भी व्रत पाला।
सोलहकारण भावित करके, महावीर बने सब अघ टाला।।३।।
‘मय’ मुनि को कर स्पर्श सती, िंसहेंदु का स्पर्श किया।
पति भी निर्विष हो खड़ा हुआ, मय मुनि की पूजा भक्ति किया।।
तप बल से ऋद्धि तभी प्रगटें, भविजन के बहुविध त्रास हरें।
ऋषि स्वयं तपोधन होकर भी, निस्पृह हो निज सुख चाह करें।।४।।
सब इच्छाओं का रोध करूँ, बस स्वात्म सुखामृत को चाहूँ।
निज आत्मा में ही लीन हुआ, निश्चय सम्यक््âतप को पाऊँ।।
बहिरंतर तप तपते तपते, मैं स्वयं तपोधन बन जाऊँ।
अपने में ही रमते—रमते, मैं स्वयं स्वयंभू बन जाऊँ।।५।।