निंह किंचित् भी तेरा जग में, यह ही आविंâचन भाव कहा।
बस एक अकेला आत्मा ही, यह गुण अनन्त का पुँज अहा।।
अणुमात्र वस्तु को निज समझें, वे नरक निगोद निवास करें।
जो तन से भी ममता टारें, वे लोक शिखर पर वास करें।।१।।
जमदग्नि मिथ्या तापस ने, निज ब्याह रचा था आश्रम में।
परिग्रह का पोट धरा शिर पर, बस डूब गया भवसागर में।।
जिनमत के मुनिगण सब परिग्रह, तज दिग अम्बर को धरते हैं।
बस पिच्छी और कमंडल लेकर, भवसागर से तिरते हैं।।२।।
धन्य—धन्य महामुनि वे जग में, गिरि शिखरों पर तप करते हैं।
वे जग में रहते हुए सदा निज, में ही विचरण करते हैं।।
ग्रीष्म में पर्वत चोटी पर, सर्दी में सरिता तट तिष्ठें।
वर्षा में तरुतल ध्यान धरें, निश्चलतन से परिषह सहते।।३।।
मैं काल अनादि से अब तक, एकाकी जन्म मरण करता।
एकाकी नरक निगोदों के, चारों गतियों के दुख सहता।।
इस जग में जितने भी भव हैं, मैं उन्हें अनन्तों बार धरा।
बस मेरा निर्मम एक शुद्ध पद, उसे न अब तक प्राप्त करा।।४।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं निर्मम हो वनवास करूँ।
आतापन आदि योग धरूँ, भवभव का त्रास विनाश करूँ।।
उपसर्ग परीषह आ जावें, मुझको निंह किंचित् भान रहे।
हो जाय अवस्था ऐसी ही, बस मेरा ही इक ध्यान रहे।।५।।