(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
नहिं किंचित मेरा जग में, यह ही आकिंचन्य भाव कहा।
बस एक अकेला आत्मा ही, यह गुण अनन्त का पुंज अहा।।
अणुमात्र वस्तु को निज समझें, वे नरक निगोद निवास करें।
जो तन से भी ममता टारें, वे लोक शिखर पर वास करें।।
‘न में किञ्चन अकिञ्चनः’ मेरा कुछ भी नहीं है अतः मैं अकिञ्चन हूँ। फिर भी मेरी आत्मा अनंतगुणों से परिपूर्ण है। मैं सदा परद्रव्य से भिन्न हूँ और तीन लोक का अधिपति महान् हूँं। यह आत्मा अणुमात्र भी परवस्तु को जब तक अपनी मानता रहता है तब तक संसार में भ्रमण करता रहता है और जब काय से भी निर्मम हो जाता है तब लोक के अग्र भाग में विराजमान हो जाता है। जमदग्नि मुनि ने मिथ्यातापसी होकर स्त्री आदि का परिग्रह स्वीकार कर लिया, अतः वह संसार समुद्र में डूब गया। सच है, दीर्घ भार लेकर मनुष्य ऊपर वैâसे गमन कर सकता है? शरीर से भी निःस्पृह हुये साधु पिच्छी, कमंडलु और शास्त्र को ग्रहण करते हैं फिर भी अपनी आत्मा में एकाग्र होते हुये आतापन आदि योगों में स्थित हो जाते हैं। हे भगवन् ! आपके प्रसाद से शीघ्र ही मुझ में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जावे कि मैं पर्वत पर, कन्दराओं में और दुर्ग आदि प्रदेशों मे अपनी आत्मा का ध्यान करते हुये सिद्धि पद को प्राप्त कर लेऊँ। ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिए। जो भव्य जीव संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर गृह का त्याग कर देते हैं वे ही महासाधु अविंâचन कहलाते हैं। पुनः अपनी रत्नत्रय निधि को संभालकर तीन लोक के नाथ हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं, इस भोग वासना की निंद्यबुद्धि को धिक्कार हो कि जहाँ स्त्री, पुत्र आदि परिग्रह रखकर भी मूढ़ लोग अपने को तपस्वी मान लेते हैं। क्या वे इस परिग्रह के भार को लेकर संसार समुद्र को पार कर सकते हैं? नहीं। ऐसा समझकर निग्र्रंथ दिगम्बर मुद्रा को ही मोक्षमार्ग मानना चाहिए और इस आविंâचन्य धर्म की उपासना करके अपने आत्मगुणों को विकसित करना चाहिए।