ऋजु भाव कहा आर्जव उत्तम, मन वच औ काय सरल रखना।
इन कुटिल किये माया होती, तिर्यंचगति के दु:ख भरना।।
नृप सगर छद्म से ग्रन्थ रचा, मधुिंपगल का अपमान किया।
उसने भी कालासुर होकर, हिसामय यज्ञ प्रधान किया।।१।।
मृदुमति मुनि ने ख्याति पूजा—हेतु माया को ग्रहण किया।
देखो हाथी का जन्म लिया, इस माया को धिक्कार दिया।।
यह कुटिल भाव गति कुटिल करे, औ अशुभ नाम का बंध करे।
ऋजु गती से मुक्ति गमन होता, ऋजु भावी सुख से प्राप्त करे।।२।।
जो मन में हो वह ही वच से, तन चेष्टा भी वैसी होवे।
दुर्गति स्त्री पशुयोनि छुटे, भव भव का भ्रमण तुरत खोवे।।
मैं अपने योग सरल करके, अपने में ही नितवास करूँ।
पर से विश्वास हटा करके, अपने में ही विश्वास करूँ।।३।।
माया कषाय से रहित स्वयं, आत्मा ऋजु गुण से मंडित है।
यह भाव विभाव कहा ऋषि ने, बहिरात्मा इसमें रंजित है।
मैं अन्तर आत्मा र्नििवकार, शुद्धात्मा स्वयं का ध्यान करूँ।
पर से अपने को पृथक् समझ, निज परमात्मा को प्राप्त करूँ।।४।।
अपने त्रय योग अचल करके, रत्नत्रय निज गुण प्राप्त करूँ।
योगों की चंचलता छूटे, अपना भव भ्रमण समाप्त करूँ।।
मन वच काया आत्मा को, ध्यानाचल से मैं पृथक् करूँ।
निजदर्शन ज्ञान वीर्य सुखमय, अनुपम निज पद के विभव भरूँ।।५।।