(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
ऋजु भाव कहा आर्जव उत्तम, मन वच औ काय सरल रखना।
इन कुटिल किए माया होती, तिर्यंचगती के दुख भरना।।
मन में जो बात होवे उस ही को वचन से प्रगट करना (न कि मन में कुछ दूसरा होवे तथा वचन से कुछ दूसरा ही बोले) इसको आचार्यआर्जव धर्मकहते हैं तथा मीठी बात बनाकर दूसरों को ठगना इसको अधर्म कहते हैं। आर्जव धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा अधर्म नरक को ले जाने वाला होता है इसलिए आर्जव धर्म के पालन करने वाले भव्यजीवों को किसी के साथ माया से बर्ताव नहीं करना चाहिए। मायावी पुरुष के व्रत और तप सब निरर्थक हैं। जहाँ पर कुटिल परिणाम का त्याग कर दिया जाता है, वहीं पर आर्जव धर्म प्रगट होता है। ऋजु अर्थात् सरलता का भाव आर्जव है। अर्थात् मन-वचन-काय को कुटिल नहीं करना, इस मायाचारी से अनंतों कष्टों को देने वाली तिर्यंच योनि मिलती है। गुणनिधि नामक मुनिराज दुर्गगिरि पर्वत पर चार माह योग में लीन हो गये। सुर-असुरों ने उनकी स्तुति की। वे चारण ऋऋिधारी थे अतः योग समाप्त होने पर वे आकाश मार्ग से चले गये। उसी समय मृदुमति मुनि आकर गाँव में आहार हेतु गये। सो नगर वासियों ने ‘ये वे ही मुनि हैं’ ऐसा जानकर उनकी विशेष भक्ति की तथा कहा भी कि ‘आप वे ही महाराज हो जो पर्वत पर ध्यान कर रहे थे’। भोजन के स्वाद मे आसक्त होकर मृदुमति ने यह नहीं कहा कि मैं वह नहीं हूँ। उसने सोचा कि यदि मैं यह बता दूँ कि मैं वह नहीं हूँ तो लोग मेरी भक्ति कम करेंगे अतः उन्होंने मायाचारी से अपने को पुजवाया। अतः वे अंत में स्वर्ग में जाकर वहाँ के सुख को भोग कर पुनः इस माया के पाप से मरकर ‘त्रिलोक मंडन’ नाम के हाथी हो गये। यह माया हमेशा आत्म वंचना ही करती है। अतः मायाचारी का त्याग करके सरल परिणामों द्वारा अपनी आत्मा की उन्नति और ऊध्र्वगति करनी चाहिए।