(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
संसार में कषाय तथा विषयरूपी योद्धा यद्यपि अत्यन्त दुर्जय हैं किन्तु जिस मुनि के पास तपरूपी प्रबल सुभट मौजूद है, उसका वे कुछ भी नहीं कर सकते तथा वे मुनि उपद्रव रहित सुख से मोक्ष चले जाते हैं इसलिए मोक्षाभिलाषी मुनियों को तप सबसे प्रिय समझना चाहिए। वह तप मूल में बाह्य-आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है और अनशनादि छह बाह्य प्रकार तथा प्रायश्चित, विनय आदि छह अभ्यन्तर रीति से बारह प्रकार का है। अनेक प्रकार के व्रतादि धारणकर तपश्चरण श्रावक भी करते हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं ‘जिससे जीव का उपकार होता है उससे शरीर का अपकार होता है और जिससे शरीर का उपकार होता है उससे जीव का अपकार होता है।’ तथा श्री कुन्दकुन्द देव भी कहते हैं कि ‘‘जो सुखिया जीवन में तत्त्व की भावना भाते हैं उनका ज्ञान दुःख आने पर नष्ट हो जाता है अतः दुःख को बुलाकर आत्म तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए।’’ सम्पूर्ण इच्छाओं का निरोध करके मैं सम्यव्â तप को तपकर ध्यानरूपी अग्नि में कर्म र्इंधन को डालकर शुद्ध हो जाऊँगा, ऐसी भावना से ही कर्म नष्ट होते हैं। देखो तीर्थंंकर को निर्वाण जाना निश्चित है, दीक्षा लेते ही मनःपर्यय ज्ञान हो जाता है फिर भी वे तप करते हैं, ऐसा जानकर तप करना चाहिए। वास्तव में जो शरीर से आत्मा को भिन्न समझते हैं वे अध्यात्म प्रेमी ही शरीर से निःस्पृह होकर तप कर सकते हैं। शरीर से निर्मम होने के लिए तप का अभ्यास अतीव उपयोगी है। प्रमाद छोड़कर अभ्यास करने से सर्वकार्य सिद्ध हो जाते हैं अतः तपधर्म हमेशा ग्राह्य है।