(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
ग्रन्थों में त्याग के चार भेद किये हैं–
आहारदान,
औषधिदान,
शास्त्रदान
और अभयदान।
राजा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ वन में युगल मुनि को आहार दान दिया था जिसके फलस्वरूप वे वृषभ तीर्थंकर हुए हैं तथा उनकी रानी श्रीमती भी उसी के प्रभाव से आगे राजा श्रेयांस होकर दान तीर्थ के प्रवर्तक हुए हैं। श्री कृष्ण ने एक मुनि को औषधिदान दिया था जिससे वे भविष्य में पुण्य के स्थान ऐसे तीर्थंकर होवेंगे। सच्चे शास्त्र के दान से एक ग्वाला अगले भव में कौंडेश मुनि होकर महान् श्रुतज्ञानी हुआ। वसतिका के दान के प्रभाव से सूकर ने स्वर्ग को प्राप्त कर लिया । मैं भी रत्नत्रय का दान अपने को देकर सर्वगुणों से परिपूर्ण स्वात्म तत्त्व को शीघ्र ही प्राप्त कर लेऊँ और उसी में लीन हो जाऊँ। ऐसी भावना प्रत्येक व्यक्ति को भाते रहना चाहिए। दान की महिमा अचिन्त्य ही है। आज के युग में भी जो अपने को महामुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि साधुवर्ग दिखते हैं उनके प्रति असीम भक्ति रखकर पूजा, दान, भक्ति आदि करके अपने मनुष्य जीवन को सफल कर लेना चाहिए। साधुओं को नमस्कार करने से उच्च गोत्र प्राप्त होता है उनको दान देने से भोग मिलते हैं। उनकी उपासना से पूजा प्राप्त होती है, सम्मान होता है, उनकी भक्ति से सुन्दर रूप और उनकी स्तुति करने से कीर्ति होती है। दान से ही संसार में गौरव प्राप्त होता है। देखो! देने वाले मेघ ऊपर रहते हैं और संग्रह करने वाले समुद्र नीचे रहते हैं। बड़े कष्ट से कमाई गई सम्पत्ति को यदि आप अपने साथ ले जाना चाहते हैं तो खूब दान दीजिये। यह असंख्य गुणा होकर फलेगी किन्तु खाई गई अथवा गाड़कर रखी गई संपत्ति व्यर्थ ही है। परोपकार में खर्चा गया धन ही परलोक में नवनिधि ऋद्धि के रूप में फलता है। इस प्रकार से त्यागधर्म के महत्व को समझकर यथाशक्ति दान देना चाहिए।