(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
यह ब्रह्मस्वरूप कही आत्मा, इसमें चर्या ब्रह्मचर्य कहा।
गुरुकुल में वास रहे नित ही, वह भी है ब्रह्मचर्य सुखदा।।
सब नारी को माता भगिनी, पुत्रीवत् समझें पुरुष सही।
महिलाएँ पुरुषों को भाई, पितु पुत्र सदृश समझें नित ही।।
दुर्धर और उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना चाहिए और विषयों की आशा का त्याग कर देना चाहिए।
यह प्राणी स्त्री सुख में रत होकर मनरूपी हाथी से मदोन्मत्त हो रहा है, इसलिए हे भव्यों! स्थिर होकर उस ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करो।
यह कामदेव चित्तरूपी भूमि में उत्पन्न होता है, उससे पीड़ित होकर वह जीव न करने योग्य कार्य को भी कर डालता है।
वह स्त्रियों के निंद्य शरीर का सेवन करता है और मूढ़ होता हुआ अपनी तथा पराई स्त्री में भेद नहीं करता है।
जो हीन पुरुष ब्रह्मचर्य व्रत का भंग करता है वह नरक में पड़ता है और वहाँ महान् दुःखों को भोगता है।
यह जानकर मन-वचन-काय में अनुराग रहित होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करो।
इस व्रत से जीव संसार के तीर को प्राप्त कर लेता है।
इस ब्रह्मचर्य व्रत के बिना व्रत और तप सब असार (निष्फल) हैं।
ब्रह्मचर्य व्रत के बिना जितने भी कायक्लेश तप किये जाते हैं वे सब निष्फल हैं, ऐसा श्री जिनेन्द्र देव कहते हैं।
बाहर में स्पर्शन इन्द्रियजन्य सुख से अपनी रक्षा करो और अभ्यंतर में परमब्रह्म स्वरूप का अवलोकन करो।
इस उपाय से मोक्षरूपी घर की प्राप्ति होती है।
इस प्रकर ‘रइधू कवि’ बहुत ही विनय के साथ कहते हैं।
‘‘अनुभूत स्त्री का स्मरण, उनकी कथाओं का श्रवण और उनसे संसक्त शयन, आसन आदि इन सबका त्याग करना ब्रह्मचर्यहै अथवा स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुओं के पास रहना सो ब्रह्मचर्य है।’’
‘आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है अथवा गुरु के संघ में रहना भी ब्रह्मचर्य है।
इस विधचर्या को करने वाला उत्तम ब्रह्मचारी कहलाता है।
जिस प्रकार से एक
(१) अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाइये किन्तु क्या कुछ संख्या बन सकती है?
नहीं, उसी प्रकार से एक ब्रह्मचर्य के बिना अन्य व्रतों का फल कैसेमिल सकता है अर्थात् नहीं मिल सकता।
सीता के शील के माहात्म्य से अग्नि भी जल का सरोवर हो गयी थी।
मैं भी सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने ब्रह्मस्वरूप आत्मा में रमण करके ज्ञानवती लक्ष्मी को प्राप्त करके पुनः निश्चिंत हो तीन लोक का स्वामी हो जाऊँगा, ऐसी भावना सतत करनी चाहिए।