यह दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय से सुखकारी।।
मद आठ जाति, कुल आदि हैं, क्या उनसे सुखी हुआ कोई।
रावण का मान मिला रज में, यमनृप ने सब विद्या खोई।।१।।
था इन्द्र नाम का विद्याधर, वह इन्द्र सदृश वैभवशाली।
रावण ने उसका मान हरा, अपमान हृदय को दु:खकारी।।
जब चक्री गर्व सहित जाकर, वृषभाचल पूर्ण लिखा लखते।
हो मान शून्य इक नाम मिटा, निज नाम प्रशस्ति को लिखते।।२।।
बहु इन्द्र सदृश भी सुख भोगे, औ बार अनन्त निगोद गया।
बहु ऊँच नीच पर्याय धरी, निंह किंचित् भी तब मान रहा।।
यह मान स्वयं निज आत्मा का, अपमान सदा करवाता है।
मार्दव गुण अपनी आत्मा को, सन्मान सदा दिलवाता है।।३।।
व्यवहार विनय सब सिद्ध करे, इसको सब शिव द्वार कहें।
गुणमणि साधुजन का नितप्रति, बहु विनय भक्ति सत्कार रहे।।
अपनी आत्मा है अनन्त गुणी, दुर्गति से उसे बचाऊँ मैं।
निज स्वाभिमान रक्षित करके, अपने को अपना पाऊँ मैं।।४।।
निज दर्शन ज्ञान चरित गुण का, सन्मान करूँ सब मान हरूँ।
निज आत्म सदृश सबको लखकर, निंह किस ही का अपमान करूँ।।
निज आत्मा के मार्दव गुण को, निज में परिणत कर सौख्य भरूँ।
निज स्वाभिमानमय परमामृत, पीकर निज को झट प्राप्त करूँ।।५।।