(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
शुचि का जो भाव शौच वो ही, मन से सब लोभ दूर करना।
निर्लोभ भावना से नित ही, सब जग को स्वप्न सदृश गिनना।।
जिस प्रकार अत्यन्त घृणित मद्य से भरा हुआ घड़ा यदि बहुत बार शुद्ध जल से धोया भी जावे तो वह शुद्ध नहीं हो सकता, उस ही प्रकार जो मनुष्य बाह्य में गंगा, पुष्कर आदि तीर्थों में स्नान करने वाला है किन्तु उसका अन्तःकरण नाना प्रकार के क्रोधादि कषायों से मलिन है, तो वह कदापि उत्कृष्ट शुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए मनुष्य को सबसे प्रथम अपने अन्तःकरण को शुद्ध करना चाहिए क्योंकि जब तक अन्त:करण शुद्ध नहीं होगा, तब तक सर्व बाह्य क्रिया व्यर्थ है अत: लोभ का त्याग कर शौच धर्म का पालन करना गृहस्थ के लिए भी संभव है तथा स्नानादि करना बाह्य शुद्धि है वह भी गृहस्थ के लिए अनिवार्य है। शुद्धि के मुख्य रूप से दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यंतर। जल आदि से बाह्य शरीर आदि के मल का नाश होता है और लोभ कषाय के त्याग से अंतरंग की पवित्रता होती है। संसार में निर्धन धन को प्राप्त न करके दुःखी होते हैं और धनी लोग भी तृप्त न होकर दुःखी रहते हैं। बड़े कष्ट की बात है कि संसार में सभी दुःखी हैं बस एक मुनि ही सुखी हैं। आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि उसमें सम्पूर्ण विश्व अणु के समान प्रतीत होता है फिर बताओ यदि सब को इस विश्व का बंटवारा करके दिया जाये तो किसके पल्ले कितना पड़ेगा? लोभ से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। इस परिग्रह में आसक्त हुए मनुष्य पता नहीं कौन-कौन से पाप कर बैठते हैं। ‘जो ग्रहण करने की इच्छा करने वाले हैं वे नीचे गिरते हैं और जो निःस्पृह रहते हैं वे ऊँचे उठते हैं।’ देखो! तराजू के दो पलड़ों में से एक में कुछ भार होता है वह नीचे जाता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठ जाता है, इन सब उदाहरणों को समझकर लोभ का त्याग कर अपनी आत्मा को शौच धर्म के द्वारा पवित्र-शुद्ध बनाना चाहिए।