शुचि का जो भाव शौच वो ही, मन से सब लोभ दूर करना।
निर्लोभ भावना से नित ही, सब जग को स्वप्न सदृश गिनना।।
जमदग्नि ऋषि की कामधेनु, हर ली वह कार्तवीर्य लोभी।
बस परशुराम ने नष्ट किया, क्षत्रिय कुल सात बार क्रोधी।।१।।
तनु इन्द्रिय जीवन औ निरोग, के लोभ महादुखदायी हैं।
इनको तज निज गुण का लोभी, मैं बनूँ यही सुखदायी है।।
निर्लोभवती भगवती कही, उसको मैं वन्दन करता हूँ।
जिसके प्रसाद से सभी जगत्, को इन्द्रजाल सम गिनता हू।।२।।
‘देहि’ यह शब्द उचरते ही, जन परमाणु सम लघु होते।
आकाश समान विशाल वही, जो जन देकर दानी होते।।
जल मंत्र और व्रत से त्रयविध, स्नान सदा जो करते हैं।
शुचि धौत वसन धरकर पूजन, दानादि क्रिया जो करते हैं।।३।।
व्यवहार शुद्धि करके श्रावक, मुनि निश्चय शुद्धि करते हैं।
वे ब्रह्मचारी हैं नित्य शुचि, रत्नत्रय से शुचि रहते हैं।।
यद्यपि रज स्वेद सहित मुनिवर, अति शुष्क मलिन तन होते हैं।
पर वे अन्त:शुचि गुणधारी, नितकर्म मैल को धोते हैं।।४।।
यह आत्मा कर्म मलीमस है, बस प्राणों का धर धर मरता।
जब तन से लोभ सम्मत हरता, तब बाह्याभ्यंतर मल हरता।।
मैं ज्ञानामृत का लुब्धक बन, पर में सब लोभ समाप्त करूँ।
तब स्वयं शौचगुण से पवित्र, अपने में परमाह्लाद भरूँ।।५।।