व्रत धारण समिति का पालन, क्रोधादि कषाय विनिग्रह है।
मन वच तन की चेष्टा त्यागे, इन्द्रिय जप संयम पाँच कहे।।
अथवा त्रसथावर षट्कायों की, रक्षा पंचेन्द्रिय मन जय।
द्वादशविध संयम को पालें, वे मुनिवर संतत व्रतगुणमय।।१।।
इस जीव लोक में हे स्वामिन् ! कैसे आचरण करें मुनिगण ?
कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे सोयें, कैसे भोजन ?
कैसे बोले जिस विध पापों, से बंध नहीं फिर हो सकता ?
बस यत्नाचार प्रवृत्ति हो, तब बंध स्वयं ही रुक सकता।।२।।
जितना भी संयम पालो, थोड़ा भी संयम गुणकारी।
श्रावक भी एक देश पालें, त्रस हिंसा के नित परिहारी।।
रावण के एक नियम से ही, सीतेन्द्र नरक में जा करके।
सम्यक् निधि देकर तृप्त किया, लक्ष्मण से बैर मिटा करके।।३।।
यह संयम है व्यवहार धर्म, निश्चय संयम को प्रगट करे।
आत्मा में ही निश्चित होकर, रागादि विभाव अभाव करे।।
निश्चय संयम ही इन्द्रिय के, मन के व्यापार खत्म करके।
अपनी ही रक्षा करता है, षट् जीव काय का वध हरके।।४।।
इन्द्रिय व्यापार नियन्त्रण कर, मन का भी निग्रह कर पाऊँ।
उस क्षण में अन्तर में स्थिर हो, स्वात्म सुधारस को पाऊँ।।
सम्यक् पूर्वक यम के बल से, यमराज शत्रु को वश्य करूँ।
निज उत्तम संयम धर्म सहित, मैं सिद्धि वधू को शीघ्र वरूँ।।५।।