सत् सम्यक् और प्रशस्त वचन, कहता है सत्यधर्म सुन्दर।
अस्ति को अस्ति रूप कहना, मिथ्या अपलाप रहित सुखकर।।
र्गिहत निदित पैशून्य वचन, अप्रिय कर्वश हिसादि वचन।
क्रोधादि बैर अपमान करी, उत्सूत्र और आक्रोश वचन।।१।।
छेदनभेदन सावद्य वचन, आरोप अरति करने वाले।
मंत्री श्री वंदक सम झूठे, वच निज के दृग् हरने वाले।।
वसु नृपति असत् का पक्ष लिया, सिहासन पृथ्वी में धसका।
मरकर वह सप्तम नरक गया, है झूठ वचन सबको दुखदा।।२।।
प्रिय वचनों से मन को हर ले, ऐसे मृदुभाषी बहु जन हैं।
जो अप्रिय पर हितकर होवे, ऐसे वक्ता श्रोता कम हैं।।
हितकर औ पथ्य सहित वाणी, जग में वच सिद्धि करती है।
सच भाषा सचमुच ही जग में, दिव्यध्वनि को भी वरती है।।३।।
प्रिय हित मित मधुर वचन सुन्दर, सबमें विश्वास प्रगट करते।
ये उत्तम सत्य वचन जग में, अप्रिय जन को भी वश करते।।
विश्वासघात है पाप महा, नहिं कभी भूलकर करना तुम।
जैसा तुम अपने प्रति चाहो वैसा सबके प्रति करना तुम।।४।।
आत्मा से भिन्न सभी पर हैं, उनको नहिं अपना मानो तुम।
सब से मन भाव हटा करके, अपने को ही पहचानों तुम।।
हे आत्मन् ! अपने में सम्यक् अपना अवलोक करलो तुम।
सब ही संकल्प विकल्पों को, तजकर अपने को भज लो तुम।।५।।