१. धात्री दोष-धाय के समान बालकों को भूषित करना, खिलाना, पिलाना आदि करना जिससे दातार प्रसन्न होकर अच्छा आहार देवें, यह मुनि के लिए धात्री दोष है।
२. दूत दोष-दूत के समान किसी का समाचार अन्य ग्रामादि में पहुँचाकर आहार लेना।
३. निमित्त दोष-स्वर, व्यंजन आदि निमित्तज्ञान से श्रावकों को हानि, लाभ बताकर खुश करके आहार लेना।
४. आजीवकदोष-अपनी जाति, कुल या कला योग्यता आदि बताकर दातार को अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजीवक दोष है।
५. वनीपक दोष-किसी ने पूछा कि पशु, पक्षी, दीन, ब्राह्मण आदि को भोजन देने से पुण्य है या नहीं ? हाँ पुण्य है, ऐसा दातार के अनुकूल वचन बोलकर यदि मुनि आहार लेवें तो वनीपक दोष है।
६. चिकित्सा दोष-औषधि आदि बताकर दातार को खुश कर आहार लेना।
७. क्रोध दोष-क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना।
८. मान दोष-मान करके आहार उत्पादन करा कर लेना।
९. माया दोष-कुटिल भाव से आहार उत्पादन करा कर लेना।
१०. लोभ दोष-लोभाकांक्षा दिखाकर आहार करा कर लेना।
११. पूर्वसंस्तुति दोष-पहले दातार की प्रशंसा करके आहार उत्पादन करा कर लेना।
१२. पश्चात् स्तुतिदोष-आहार के बाद दातार की प्रशंसा करना।
१३. विद्या दोष-दातार को विद्या का प्रलोभन देकर आहार लेना।
१४. मंत्रदोष-मंत्र का माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना। श्रावकों को शांति आदि के लिए मंत्र देना दोष नहीं है किन्तु आहार के स्वार्थ से बताकर उनसे इच्छित आहार ग्रहण करना सो दोष है।
१५. चूर्ण दोष-सुगंधित चूर्ण आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना।
१६. मूलकर्मदोष-अवश को वश करने आदि के उपाय बताकर आहार लेना।
ये सभी दोष मुनि के आश्रित होते हैं इसलिए ये उत्पादन दोष कहलाते हैं। मुनि इन दोषों से अपने को अलग रखते हैं।