इसके पश्चात उत्सर्पिणी इस नाम से विख्यात काल प्रवेश करता है इसके छह भेदों में से प्रथम अतिदुष्षमा, दुष्षमा, दुष्षमसुषमा, सुषमदुष्षमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा काल क्रम से आते हैं। प्रथम अतिदुष्षमा काल छठे काल के सदृश छठा काल ही कहलाता है। उत्सर्पिणी काल के प्रारंभ में पुष्कर मेघ सात दिन तक सुखोत्पादक जल बरसाते हैं। जिससे वङ्कााग्नि से जली हुई पृथ्वी उत्तम हो जाती है। पुन: क्षीर मेघ क्षीर जल बरसाते हैं, अमृत मेघ अमृत जल बरसाते हैं और रस मेघ दिव्यरस की वर्षा करते हैं विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वाद परिणत हो जाती है। पश्चात् शीतल गंध को ग्रहण कर वे मनुष्य और तिर्यंच गुफाओं के बाहर निकल आते हैं। दिन प्रतिदिन उनकी आयु, अवगाहना, बुद्धि तेज, बाहुबल, क्षमा, धैर्य इत्यादि बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्षों के बीत जाने पर भरतक्षेत्र में अतिदुष्षमा नामक काल पूर्ण होता है।