अष्टौ यवमध्यानि एकमङ्गुलमुत्सेधाख्यम्। एतेन नारकतैर्यग्योनानां देवमनुष्याणाम-कृत्रिमजिनालयप्रतिमानां च देहोत्सेधो मातव्य:। तदेव पञ्चशतगुणितं प्रमाणाङ्गुलं भवति। एतदेव चावसर्पिण्यां प्रथमचक्रधरस्या-ऽऽत्माङ्गुलं भवति। तदानीं तेन ग्रामनगरादिप्रमाणापरिच्छेदो ज्ञेय:। इतरेषु युगेषु मनुष्याणां यद्यदात्माङ्गुलं तेन तेन तदा ग्रामनगरादिप्रमाणपरिच्छेदो ज्ञेय:। यत्तत्प्रमाणाङ्गुलं तेन द्वीपसमुद्रजगती-वेदिकापर्वत-विमाननरकप्रस्ताराद्य-कृत्रिमद्रव्यायामविष्कम्भादिपरिच्छेदोऽवसेय:।
अंगुल निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है-
(१) उत्सेधांगुल-यह ८ यव या ६४ सरसों की मोटाई बराबर का एक माप है। जो ‘श्री महावीरतीर्थंकर’ के हाथ की अंगुली की चौड़ाई से ठीक अर्धभाग और उनके निर्वाण की सातवीं शताब्दी में विद्यमान ‘‘श्री पुष्पदंताचार्य’ और श्री ‘भूतबलि आचार्य’ के हाथ के अंगुली की चौड़ाई के बराबर है जब कि कंठस्थ जिनवाणी का कुछ भाग वर्तमान पंचम काल में सबसे प्रथम षट्खंड सूत्रों (प्रथम श्रुतस्कंध) में लिपिबद्ध किया गया था। यह अंगुल-माप आजकाल के साधारण शरीर वाले मनुष्यों की अंगुली से कुछ बड़ा है।
(२) प्रमाणांगुल-यह माप उपर्युक्त उत्सेधांगुल के माप से ५०० गुणा बड़ा है, जो इस भरतक्षेत्र के वर्तमान अवसर्पिणी काल के चतुर्थ विभाग में हुए प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी के या उनके प्रथम पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत की अंगुली की चौड़ाई के बराबर है।
(३) आत्मांगुल-इसका प्रमाण कोई एक नियत नहीं है। भरत व ऐरावत आदि क्षेत्रों के मनुष्यों की अपने-अपने समय में जो-जो अंगुली है उसी के बराबर के माप का नाम ‘आत्मांगुल है, जो प्रत्येक समय में शरीर की ऊँचाई घटने से घटता और बढ़ने से बढ़ता रहता है अर्थात् हर समय के हर मनुष्य का अपने-अपने अंगुली की चौड़ाई का माप ही आत्मांगुल है।
नोट-जिनवाणी में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चारों ही गति के जीवों के (अर्थात् त्रिलोक और त्रिकाल संबंधी सर्व ही जीवों के) शरीर का और देवों का परिमाण ‘उत्सेधांगुल’ से, महापर्वत, महानदी, महाद्वीप, महासमुद्र, नरकबिलों, स्वर्गविमानों आदि का परिमाण प्रमाणांगुल से और प्रत्येक तीर्थंकर या चक्रवर्ती आदि के छत्र, चमर, कलश आदि मंगलद्रव्यों या अनेक उपकरणों या शास्त्रों आदि का तथा समवसरणादि का परिमाण आत्मांगुल से निरूपण किया गया है।