कर्म का अपनी स्थिति को प्राप्त होना अर्थात् फल देने का समय प्राप्त हो जान उदय है ।
जीव के पूर्वकृत जो शुभ या अशुभ कर्म उसकी चित्र भूमि पर अंकित पड़े रहते है वे
समय – समय पर परिपक्त दशा को प्राप्त होकर जीव को फल देकर खिर जाते हैं । इसे ही कर्मों का उदय कहते हैं । कर्मों का यह उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भव की अपेक्षा रखकर आता है । कर्म के उदय से जीव के परिणाम उस कर्म की प्रकृति के अनुसार ही नियम से हो जाते है इसी से कर्मों को जीव का पराभव करने वाला कहा गया है ।
कर्मों के उदय का विशेष नियम गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा में बताया है –
आहारं तु पमत्ते केवलिणि मिस्सयं मिस्से ।
सम्मं वेदगसम्मे मिच्छदुगचदेव आणुदयो ।।’’
आहारक शरीर व उसके आंगोपांग इन दोनों कर्मों का उदय छठे प्रमत्त गुणस्थान में ही होता है । तीर्थंकर प्रकृति का उदय सयोगी तथा अयोगी केवली के ही होता है , मिश्र दर्शन मोहनीय का उदय तीसरे मिश्र गुण स्थान में तथा सम्यक्तव प्रकृति का उदय क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के चार गुणस्थानों में होता है और असुपूर्वी कर्म का उदय मिथ्यात्व, सासादन ये दो तथा चौथा असंयत गुणस्थान इन तीनों में ही होता है ।
गुणस्थानों में उदय योग्य प्रकृतियों की संख्या बताई है –
‘‘सत्तरसेक्कार खचदुसहियसयं सगिगिसीदि छदुसदरी ।
छावटिठ सट्ठि णवसगवण्णास दुदालबारूदया ।।’’
मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों में क्रम से ११६, ११२, १०० ,१०४ ,८७ ,८१, ७६, ७२, ६६, ६०, ५९, ५७, ४२, १२ प्रकृतियों का उदय होता है । उदय में भेद की अपेक्षा सभी प्रकृतियां उदय योग्य हैं और अभेद भी अपेक्षा प्रकृतियां उदय योग्य है ।