( प्रवचन )
रत्नत्रय से विभूषित आचार्य, उपाध्याय और साधु से तीन प्रकार से दिगम्बर मुनि ही मुख्य रूप से उपदेश देते हैं, किन्तु गौणरूप से विद्वान श्रावक भी उपदेश देते हैं ।
श्री गुणभद्रसूरि ने प्रवक्ता आचार्य के गुणों का वर्णन बहुत ही सुन्दर किया है-
‘‘प्राज्ञ: प्राप्त समस्तशास्त्र हृदय: प्रव्यक्तलोकस्थिति:, प्रास्ताश: प्रतिभापर: प्रशमवान् प्रागेन दृष्टोत्तर: । प्राय: प्रशनसह: प्रभु: परमनोहारी परानिंदया, ब्रूयाद् धर्मकथां गणी गुणनिधि: प्रस्पष्ट मिष्टाक्षर: ।।’’ अर्थात् बुद्धिमान, समस्त शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता, लोक व्यवहार से परिचित, आशारहित, प्रतिभावन शांतचित्त, पहले ही उत्तर को देखकर रखने वाला, प्राय: प्रश्नों को सहन करने वाला, प्रभावशाली, पर को मनोज्ञ, पर की निंदा नहीं करने वाला, स्पष्ट और मधुर वचन बोलने वाला तथा गुणों का निधान ऐसा आचार्य धर्म का उपदेश देता है ।
इस श्लोक में धर्मोपदेश आचार्य के प्रमुख १२ गुण माने गए हैं । ये ही गुण विद्वान, प्रवक्ता में भी होने चाहिए ।
रत्नत्रय का उपदेश देना, या उनसे सम्बन्धित महापुरुषों का इतिहास सुनाना, जीवादि सात तत्त्वों का विवेचन करना । आत्मा के बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा आदिभेदों का कहना उपदेश है ।
उपदेश सुनकर श्रोता मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद और कषाय से डरकर यथा शक्ति हटकर मोक्षमार्ग में – सम्यक्तव, संयम और शमभाव में प्रवृत्त हो जावे यही प्रवचन का –उपदेश का फल है । इस फल के साक्षात् और परम्परा ऐसे दो भेद हो जाते हैं-
साक्षात् फल –
१ वक्ता का उपदेश ऐसा होना चाहिए कि श्रोतागण मिथ्यात्व को छोड़कर देव, शास्त्र, गुरु के परम भक्त बन जायें । उनमें पूज्य पुरुषों के प्रति आदर भाव और विनय प्रवृत्ति आ जावें तथा उदृडं व अनर्गल प्रवृत्ति छूट जाए ।
२ वर्तमान के उपलब्ध जिनागम के प्रति उनकाट्य श्रद्धा व वर्तमान के साधु-वर्गों के प्रति असीम भक्ति उम़ड़ आवे ।
३ शक्त्यनुसार चारित्र ग्रहण करने में प्रवृत्त हो जावें । अन्याय, अभक्ष्य और दुव्र्यसनों को छोड़ देवें । तथा देवपूजा , आहारदान, स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं में प्रमाद छोड़कर तत्पर हो जायें ।
परम्पराफल- उपदेश का परम्परा फल स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही है ।