जीव का जो भाव ज्ञेयवस्तु को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसको उपयोग कहते हैं। इसके दो भेद हैं-साकार और निराकार। पाँच प्रकार का सम्यग्ज्ञान और तीन प्रकार कुज्ञान यह आठ प्रकार का ज्ञान साकारोपयोग है और चार प्रकार का दर्शन, निराकारोपयोग है। इस प्रकार उपयोग के १२ भेद होते हैं। इस प्रकार से गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग, सब मिलाकर बीस प्ररूपणा होती हैं। इनका विशेष वर्णन गोम्मटसार जीवकांड से समझना चाहिए। द्रव्य संग्रह में कहा है कि- चौदह मार्गणा, चौदह जीव समास और चौदह गुणस्थान ये सब अशुद्धनय से होते हैं किन्तु शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध ही होते हैं। इस तरह जीव द्रव्य का वर्णन करके अजीव द्रव्य का संक्षेप से वर्णन करते हैं।
अजीवद्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच द्रव्य अजीव हैं। इनमें से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है बाकी चार अमूर्तिक हैं। पुद्गल-जिसका पूरण-गलन रूप स्वभाव हो उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गल के दो भेद हैं-अणु और स्वंध। एक अविभागी पुद्गल का टुकड़ा जिसका दूसरा हिस्सा न हो सके उसे अणु-परमाणु कहते हैं। दो अणु, तीन अणु आदि से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओं के मिलने से स्वंध बनता है। हम और आपको जो भी दिखता है वह सब स्वंध ही है। पुद्गल के बीस गुण हैं- पाँच रस-खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला, चरपरा। पांच वर्ण-काला, नीला, पीला, लाल, सफेद। दो गंध-सुगंध ओर दुर्गंध। आठ स्पर्श-शीत, उष्ण, मृदु, कठोर, हल्का, भारी, स्निग्ध और रुक्ष। पुद्गल द्रव्य की पर्यायें-शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं। धर्म द्रव्य का लक्षण-जीव और पुद्गल द्रव्य ही गमनशील हैं। शेष द्रव्य नहीं। जैसे पानी चलती हुई मछली को चलने में सहायक है, उसी प्रकार जो द्रव्य चलते हुए जीव और पुद्गल को चलने में सहायक है किन्तु प्रेरक नहीं है वह धर्म द्रव्य कहलाता है।
अधर्म द्रव्य का लक्षण-चलते हुए पथिक को ठहराने में सहायक हुई छाया के सदृश जीव पुद्गल को ठहराने में जो सहायक है किन्तु प्रेरक नहीं है वह अधर्म द्रव्य है। धर्म और अधर्म द्रव्य से यहाँ पुण्य और पाप नहीं समझना। आकाश द्रव्य-जीवादि छहों द्रव्यों को अवकाश देने में समर्थ द्रव्य को आकाश कहते हैं। इस आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं। जितने में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और कालद्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं, इसके परे चारों तरफ अनन्तानन्त अलोकाकाश है। कालद्रव्य-जो द्रव्यों के परिवर्तन रूप और परिणमन आदि लक्षण वाला होता है वह व्यवहार काल है और वर्तना लक्षण वाला निश्चय काल है। वर्तना-अपने-अपने उपादान कारण से स्वयं परिणमनशील द्रव्यों के परिणमन में कुम्हार के चक्र के भ्रमण में उसके नीचे की कीलि के समान जो सहकारी होता है उसे वर्तना कहते हैं। उस वर्तना को ही निश्चयकाल कहते हैं। अर्थात् निश्चय काल का लक्षण वर्तना है और व्यवहारकाल का लक्षण घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि है।
जैसे रत्नों की राशि में प्रत्येक रत्न पृथक्-पृथक् स्थित हैं उसी प्रकार लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु पृथक्-पृथक् स्थित हैं। लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात होने से ये कालद्रव्य के अणु भी असंख्यात हैं। पांच अस्तिकाय-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं। कालद्रव्य ‘अस्ति’ तो है किन्तु काय नहीं है अत: यह अस्तिकाय नहीं है। छहों द्रव्यों के प्रदेश-एक जीव द्रव्य, धर्म, अधर्म द्रव्य और लोकाकाश, इनके प्रत्येक के असंख्यात प्रदेश होते हैं। अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं। पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं और कालद्रव्य एक प्रदेशी है।