समवसरण मे आठ भूमियाँ मानी है –
१ चैत्यप्रासाद भूमि
२ खातिका भूमि
३ लताभूमि
४ उपवनभूमि
५ ध्वजाभूमि
६ कल्पभूमि
७ भवनभूमि
८ श्रीमंडप भूमि
चौथी उपवन भूमि में पूर्व आदि के क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपा और आम के बगीचे हैं । इन चारों वनो – बगीचों में छोटी – छोटी नदियां है, उन पर पुल बने हुए है , कही क्रीड़ा पर्वत है तो कही पर बावड़िया बनी हुई है और कहीं – कहीं सुन्दर हिंडोले लगे हुए है ।
इन चारों वनों के बीच –बीच में एक – एक चैत्यवृक्ष है । ये तीर्थंकर देव की ऊँचाई से बारह गुने ऊँचे है । इन चैत्य वृक्षों में एक – एक में चारों दिशाओं में एक – एक अर्हंत देव की मणिमय प्रतिमाए विराजमान है । इन प्रतिमाओं के आश्रित आठ महाप्रातिहार्य बने हुए है ।
एक –एक चैत्यवृक्ष के आश्रित – प्रतिमाओं के सामने एक – एक मानस्तंभ बने हुए हैं ये मानस्तंभ तीन परकोटे से वेष्टित व तीन कटनी के ऊपर रहते हैं । एक – एक मानास्तंभ में भी चार चार प्रतिमाएं विराजमान है अर्थात् एक चैत्यवृक्ष में चार प्रतिमाएं और चार मानस्तंभ हो गए है ।
ये चैत्यवृक्ष वनस्पतिकायिका नहीं है प्रत्युत पृथिवीकायिका रत्नों से निर्मित होते है । इन मानस्तंभो के आश्रित भी वापियां होती है । वहाँ कहीं पर रमणीय भवन कही क्रीडन शाला और कही नाट्य शालायें बनी हुई है । अनेक रत्नों से निर्मित भवनों में देव मनुष्य आदि विचरण करते है ।
उपवन भूमि में बनी वापिकाओं में स्नान करने से मनुष्य अपना एक भव देख लेते हैं । और उन वापिकाओं के जल में अपना मुख देखने से वे अपने पूर्व के तीन, वर्तमान का एक और भविष्यत् के तीन ऐसे सात भव देख लेते है। हरिवंश पुराण में बावड़ियो का बहुत सुन्दर वर्णन किया है ।
उदय और प्रीतिरूप फल को देने वाली वापिकाओं के बीच के मार्ग के दोनों ओर तीन खण्ड वाली सुवर्णमय बत्तीस नाट्यशालाएँ है । ये डेढ कोश चौड़ी है इनकी भूमियाँ रत्नों से निर्मित है और दीवालें स्फटिक की है । उनमें ज्योतिषी देवों की बत्तीस – बत्तीस देवांगनाएं नृत्य करती रहती है ।
महापुराण में लिखा है कि – अशोक चैत्यवृक्ष में नील मणियों के पत्ते है और पद्मरागमणियों से निर्मित फूलों के गुच्छे शोभित हो रहे है एवं सुवर्ण से बनी हुई ऊंची – ऊंची शाखाये है । ये हवा के झकोरे से हिलते है । इस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेंद्रदेव की चार प्रतिमाएं है जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक करते हैं । इस वृक्ष के ऊपर घंटे लटक रहे है ,ध्वजायें फहरा रही है मोतियों की झालरों से सहित छत्रत्रय लगे हुए है।
इन चारों वनो के आश्रित चारों गलियों के दोनों पाश्र्वभागों में दो – दो नाटयशालाएं है ऐसे सोलह नाटय शालाये हो गई । इनमें से आदि की आठ नाटयशालाओं में भवनवासिनी देवांगनाएं एवं आगे की आठ नाटयशालायों में भवनवासिनी देवांगनाए एवं आगे की आठ नाटय शालााओ में कल्पवासिनी देवकल्यायें (देवांगनाएँ) नृत्य किया करती है ।